फ़िल्म – शमशेरा
निर्माता- यशराज फिल्म्स
निर्देशक- करण मल्होत्रा
कलाकार- रणबीर कपूर,वाणी कपूर,संजय दत्त
प्लेटफार्म- सिनेमाघर
रेटिंग- दो {2/5}
चार साल के अंतराल पर अभिनेता रणबीर कपूर की रुपहले परदे पर फ़िल्म शमशेरा से वापसी हुई है.पिछली बार वह संजय दत्त की बायोपिक फ़िल्म संजू में नज़र आए थे. शमशेरा रणबीर कपूर की पहली पीरियड ड्रामा फ़िल्म है. फ़िल्म में रणबीर का डबल रोल भी है,साथ में इस फ़िल्म में उनके साथ खुद संजय दत्त भी हैं,लेकिन अफसोस सब मिलकर भी शमशेरा को एंटरटेनिंग नहीं बना पाए हैं. कमज़ोर कहानी और स्क्रीनप्ले ने मामला बोझिल ज़रूर बना दिया है.
फ़िल्म शमशेरा के ट्रेलर में जो कहानी दिखायी गयी है वही इस दो घंटे की फ़िल्म की कहानी भी है. फ़िल्म की कहानी 1800 के बैकड्रॉप पर सेट है. खमेरण जाति के अस्तित्व की लड़ाई है.जिनका इस्तेमाल ऊंची जाति के लोगों ने अपने फायदे के लिए कर उन्हें कुचलने की कोशिश की, जिसमे अंग्रेज़ी हुकूमत ने भी उसका साथ दिया ,लेकिन खेमरण का सरदार शमशेरा (रणबीर कपूर) इन अमीर ऊंची जाति के लोगों के खिलाफ लोहा लेता है.इसी के लिए वह अपनी जान भी दे दे देता है.कहानी 25 साल आगे बढ़ जाती है.बल्ली (रणबीर कपूर) नाम का युवा भी वही करता है जो 25 साल पहले शमशेरा किया करता था.इसकी शिकायत अमीर लोग ब्रिटिश हुकूमत को देते हैं. सभी को लगता है कि शमशेरा वापस आ गया है.
ब्रिटिश हुकूमत पुलिस ऑफिसर शुद्ध सिंह (संजय दत्त) को इस मामले को सौंपती हैं.जिसने पहले भी शमशेरा का खात्मा किया है. क्या शुद्ध सिंह इस बार भी शमशेरा को खत्म कर देगा? शुद्ध सिंह अंग्रेजों से क्यों मिला हुआ है लिखने में भले ही ट्विस्ट और टर्न कहानी में साउंड कर रहा हो,लेकिन फ़िल्म देखते हुए उसकी दूर -दूर तक कोई आहट आपको महसूस नहीं होती है,क्योंकि अगले पल क्या होगा ये आपको पता होता है.फ़िल्म 70 और 80 के किसी भी आम मसाला फ़िल्म की तरह है .
फ़िल्म के ट्रेलर लॉन्च के बाद ही यह बात कही गयी थी कि यह फ़िल्म ठग ऑफ हिंदुस्तान और केजीएफ से प्रेरित लगता है.फ़िल्म देखते हुए यह बात और भी शिद्दत से महसूस होती है. केजीएफ की तरह यहां भी सोने वाला मामला है. ठग्स की तरह फ़िल्म का वीएफएक्स है.फ़िल्म की भव्यता और वीएफएक्स प्रभावित करती है,लेकिन जब कहानी में ही प्रभाव नहीं है.यह बातें बेमानी लगने लगती है . यह ठीक उसी तरह है जैसे किसी स्वादहीन डिश को बहुत ज़्यादा गार्निश कर दिया गया हो.फ़िल्म पहले ही हाफ से खींच गयी है और मामला बोझिल बन गया है. फ़िल्म की 2 लाइनर कहानी में पौने तीन घंटे की फ़िल्म बना दी गयी है. फ़िल्म की एडिटिंग पर बहुत ज़्यादा काम करने की ज़रूरत थी. क्वीन के ताज चुराने का दृश्य हो या खेमरण के लोगों को टॉर्चर करना ज़रूरत से ज़्यादा वह लंबा खिंच गया है.
फ़िल्म की कमज़ोर कहानी और स्क्रीनप्ले के बावजूद रणबीर कपूर ने अपने किरदार को शिद्दत से निभाया है.परदे पर उन्हें देखना अच्छा लगता है. संजय दत्त इस बार ओवर द टॉप हो गए हैं.वाणी कपूर ग्लैमरस गर्ल के तौर पर एक बार फिर नज़र आईं हैं. फ़िल्म में उन्होंने एक बार फिर बेहतरीन डांस मूव्स दिखाए हैं,रोमांस भी किया है,उनके हिस्से बस यही फ़िल्म में है .रोहित रॉय, इरावती और सौरभ शुक्ला जैसे कलाकारों को फ़िल्म में अच्छे से इस्तेमाल नहीं हो पाया है.
इस तरह की मसाला फिल्मों की जान इसके संवाद होते हैं,लेकिन फ़िल्म के शीर्षक से जुड़ी टैगलाइन को छोड़कर फ़िल्म का एक भी संवाद याद नहीं रह जाता है. फ़िल्म के गीत-संगीत की बात करें तो हुजूर गाने को छोड़कर बाकी के गाने कोई खास असर नहीं छोड़ पाए हैं.
अगर आप रणबीर कपूर और संजय दत्त के बहुत बड़े प्रसंशक हैं और आपके पास फ्री टाइम भी है,तो आप टाइमपास के लिए इस फ़िल्म को देख सकते हैं.