झारखंड, बिहार और बंगाल उन राज्यों में शामिल है, जहां से महिलाएं आजीविका की तलाश में दिल्ली, मुंबई, अहमदाबाद और सूरत जैसे बड़े शहरों का रुख करती हैं. कोरोना काल में इन प्रवासी घरेलू कामगारों की स्थिति बहुत ही खराब हो गयी है, एक ओर तो उनके मालिक जहां वे काम करती हैं, वे उन्हें समुचित सहायता नहीं दे रहे हैं, वहीं सरकारी योजनाओं का लाभ भी उन्हें नहीं मिल पा रहा है. इन घरेलू कामगारों की समस्याओं पर बात करने के लिए हमने कुछ ऐसे लोगों से बात की जो उनके लिए काम करते हैं, तो जो तथ्य सामने आये, वे चौंकाने वाले हैं.
सेवा संस्था जो घरेलू कामगारों के लिए काम करती हैं, उनकी दिल्ली शाखा की आर्गनाइजर अदिति बेन ने बताया कि दिल्ली जैसे शहर में घरेलू कामगारों की स्थिति बहुत ही खराब है. आंकड़ों की बात करें तो हमारी संस्था से ही जुड़ी छह हजार महिला कामगार हैं. इन सबने यह बताया है कि मार्च में उन्हें तनख्वाह मिली थी, लेकिन उसके बाद उन्हें पैसे नहीं मिले. जहां वे काम करती हैं, उनमें से कई लोगों ने उन्हें राशन खरीद लेने को कहा है, लेकिन तनख्वाह नहीं दे रहे हैं. दिल्ली में काम करने वाली मात्र 7-8 प्रतिशत महिलाएं ही ऐसी हैं, जो काम पर लौट सकीं है, बाकी सब घर पर हैं. इसका कारण यह है कि उनके मालिक उनसे डर रहे हैं, क्योंकि वे स्लम एरिया में रहती हैं और साफ-सफाई का भी उस तरह ख्याल नहीं रखती हैं.वहीं घरेलू कामगारों में भी कोराना के संक्रमण को लेकर भय है, लेकिन वे काम पर जाने को तैयार हैं, क्योंकि मसला रोजी-रोटी का है. इसलिए हम ट्रेनिंग दे रहे हैं कि वे किस तरह काम पर जायें और क्या सावधानी रखें, क्योंकि कोरोना वायरस अभी हमारे बीच से जाने वाला नहीं है. लेकिन दिक्कत यह है कि लोग इन्हें काम पर वापस बुलाना नहीं चाह रहे हैं.
झारखंड, बिहार और बंगाल से जाने वाली महिलाएं यहां खाना बनाने से लेकर साफ-सफाई, बच्चे की देखभाल और टॉयलेट की साफ-सफाई का काम भी करती हैं. लेकिन आज इनके पास काम नहीं है. यह कामगार वर्षों से यहां रहते हैं लेकिन आज जबकि ये परेशानी में हैं, इनके मालिकों ने इनसे मुंह फेर लिया है. अदिति बेन ने बताया कि यहां काम करने वाली घरेलू कामगार अभी अपने घर वापस नहीं जा सकीं हैं, क्योंकि वे यहां वर्षों से हैं और उन्होंने एक तरह से दिल्ली को ही घर मान लिया है. इनके पास आधार कार्ड दिल्ली का है राशन कार्ड दिल्ली का है, तो ऐसे में इनके सामने संकट है कि वे क्या करें.
वहीं सेवा संस्था की रांची शाखा में काम करने वाली सीमा का कहना है कि रांची जिले से बाहर जाकर काम करने वाली महिलाओं की संख्या बहुत कम है. हालांकि सिमडेगा, खूंटी और गुमला जैसे जिलों से महिलाएं काम करने के लिए बाहर जाती हैं.
टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज मुंबई के पूर्व छात्र और वर्तमानव में बदलाव मिशन से जुड़े प्रदीप गुप्ता का कहना है कि झारखंड और बिहार जैसे राज्यों से बाहर जाकर काम करने वाले मजदूर आज बदहाल हैं. वे जहां काम करते थे, वहां उन्हें जाने की इजाजत नहीं है. पिछले डेढ़-दो महीने से वे भूख से संघर्ष कर रहे हैं. चूंकि वे स्लम एरिया से आते हैं, इसलिए उनके मालिकों ने उन्हें काम पर आने से मना कर दिया है. ऐसे में कल्पना नहीं की जा सकती है कि वे किस हाल में हैं. हमारी संस्था से सिमडेगा और गुमला की लगभग तीन सौ महिलाओं ने संपर्क किया है, जो अपने घर वापस आना चाहती हैं.
हमारी यह कोशिश थी कि किसी तरह हम उन्हें कोई स्किल्ड काम की ट्रेनिंग दिलाकर वहीं रखें, लेकिन वे मान नहीं रहीं, वे बस वापस आना चाहती हैं. क्योंकि उनके साथ पिछले कुछ दिनों में जो कुछ हुआ वह असहनीय है. झारखंड से तो पूरा का पूरा गांव घरेलू कामकाज करने के लिए माइग्रेट हुआ है, लेकिन अब वे वापस आना चाहते हैं और सबसे बड़ी बात जो देखने के लिए मिल रही है कि वे वापस नहीं जाना चाहते. ऐसे में हमारी झारखंड सरकार से बात हुई है और हम इन मजदूरों की वापसी के बाद इन्हें स्किल्ड कामकाज सिखाकर यहीं पर बसाने की कोशिश करेंगे, लेकिन यह तभी हो पायेगा, जब वे सुरक्षित वापस आ जायें.