नयी दिल्ली : भारत में गर्मियों की दस्तक से भले ही उम्मीदें जगी हों कि गर्म एवं नम मौसम कोविड-19 वैश्विक महामारी का असर धीमा हो जाएगा लेकिन विशेषज्ञों का मानना है कि मौसमी बदलाव के प्रति कोरोना वायरस की संवेदनशीलता को साबित करने के लिए पर्याप्त प्रमाण नहीं हैं .
राष्ट्रीय विज्ञान, अभियांत्रिकी एवं आयुर्विज्ञान अकादमी की एक रिपोर्ट के मुताबिक प्रायोगिक अध्ययन निश्चित ही लैबोरेटरी में अधिक तापमान एवं नमी के स्तर और सार्स-सीओवी-2 के जीवित रहने की संभावना घटने के बीच संबंध दिखाया गया है.
हालांकि रिपोर्ट में कहा गया है कि पर्यावरणीय तापमान, नमी और किसी व्यक्ति के शरीर के बाहर वायरस का जिंदा रहने के अलावा कई और कारक हैं जो ‘असल दुनिया’ में मनुष्यों के बीच संक्रमण की दर को प्रभावित तथा निर्धारित करते हैं. सात अप्रैल को तैयार त्वरित विशेषज्ञ परामर्श रिपोर्ट का लक्ष्य वैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित सिद्धांत मुहैया कराना है जो सार्स-सीओवी-2 के मौसमी परिवर्तन की क्षमता को लेकर फैसला लेने में प्रासंगिक हो.
विशेषज्ञों ने कहा कि अब तक उपलब्ध लैबोरेटरी डेटा दर्शाते हैं कि ज्यादा तापमान और तापमान संवेदनशीलता में भिन्नता पर सार्स-सीओवी-2 के जिंदा रहने की संभावना कम होती है हालांकि यह सतह के उस प्रकार से काम करने पर निर्भर करता है जिसपर वायरस को रखा गया. हालांकि रिपोर्ट के मुताबिक इस विषय पर अब तक उपलब्ध नियंत्रित अध्ययनों की संख्या कम है. इसमें कहा गया कि प्रायोगिक अध्ययनों से आये परिणाम के संबंध में कुछ महत्त्वपूर्ण स्थितियां हैं.
अकादमी के मुताबिक पहली स्थिति प्रयोगशाला की स्थितियों का वास्तविक दुनिया की स्थितियों से संबंधित होना है. रिपोर्ट में कहा गया कि अब तक प्राकृतिक इतिहास अध्ययनों में संभावित मौसमी प्रभावों के संबंध में विरोधाभासी परिणाम भी हैं. विशेषज्ञों ने पाया कि यह रिपोर्ट असंतोषजनक डेटा गुणवत्ता, संदेहास्पद कारकों और अपर्याप्त समय के कारण भी प्रभावित हैं.