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भारतीय पुनर्जागरण के नायक महर्षि दयानंद सरस्वती

सभी धार्मिक, सामाजिक, राजनैतिक विषयों पर अपनी बात कहने के लिए उन्होंने ‘सत्यार्थ प्रकाश’ नामक कालजयी ग्रंथ की रचना की. उन्होंने पूरे देश का भ्रमण किया और सारा भारत ही उनका कार्यक्षेत्र रहा.

महर्षि दयानंद सरस्वती 19वीं सदी के भारत के एक ऐसे महान समाज सुधारक, दार्शनिक और धार्मिक नेता थे, जिन्होंने देशभर में भ्रमण कर वेद-वेदांतों के ज्ञान का प्रसार करने के साथ हिंदुओं को ‘वेदों की ओर चलो’ का नारा दिया. उन्होंने शास्त्रार्थ कर न सिर्फ धार्मिक कुरीतियों व खोखली परंपराओं को खत्म करने पर बल दिया, बल्कि सामाजिक उत्थान के साथ-साथ देश में ज्ञान की अलख जगायी. वे भारतीय पुनर्जागरण के अग्रणी नायकों में से एक थे. आज उनकी 200वीं जयंती पर गुजरात के टंकारा में भव्य कार्यक्रम हो रहा है, जिसमें राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू बतौर मुख्य अतिथि शामिल हो रही हैं. इस अवसर पर पेश है प्रभात खबर की विशेष प्रस्तुति. भारत के महान ऋषि-मुनियों की परंपरा में, जिन्होंने इस देश में जागृति और उन्नति के लिए कार्य किया, उनमें महर्षि दयानंद सरस्वती जी का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है. दयानंद सरस्वती जी का जन्म 12 फरवरी, 1824 को टंकारा (गुजरात) में करसन जी लालजी तिवारी और यशोदाबाई के घर हुआ था. ब्राह्मण कुल में उत्पन्न बालक मूल शंकर को शिवरात्रि के दिन बोध प्राप्त हुआ. लिहाजा, वह सच्चे शिव की खोज के लिए 16 वर्ष की अवस्था में ही अचानक गृह त्याग कर एक विलक्षण यात्रा पर चल दिये. मथुरा में गुरु विरजानंद जी से शिक्षा प्राप्त की और इस मूल बात को समझा कि देश की वर्तमान दुर्दशा का मूल कारण वेद के सही अर्थों के स्थान पर गलत अर्थों प्रचलित हो जाना है. इसलिए समाज में धार्मिक आडंबर, अंधविश्वास, सामाजिक कुरीतियों का जाल फैल चुका है और हम अपने देश में ही दूसरों के गुलाम हैं. देश की गरीबी, अशिक्षा, नारी की दुर्दशा, भाषा और संस्कृति के विनाश को देखकर दयानंद काफी द्रवित हो उठे. कुछ समय हिमालय का भ्रमण कर और तप, त्याग, साधना के साथ वे हरिद्वार के कुंभ मेले से मैदान में कूद पड़े. उन्होंने अपनी बात को मजबूती और तर्क के साथ रखा. विरोधियों के साथ शास्त्रार्थ करके सत्य को स्थापित करने की कोशिश की. उनके जीवन का एक ही लक्ष्य था, ‘जो सत्य है उसको जानो और फिर उसको मानो’. उन्होंने ‘सत्य को ग्रहण करने और असत्य के छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिए’ का प्रेरक वाक्य भी दिया. सभी धार्मिक, सामाजिक, राजनैतिक विषयों पर अपनी बात कहने के लिए उन्होंने ‘सत्यार्थ प्रकाश’ नामक कालजयी ग्रंथ की रचना की. उन्होंने पूरे देश का भ्रमण किया और सारा भारत ही उनका कार्यक्षेत्र रहा.

अंधविश्वास व पाखंड के कड़े विरोधी

पाखंडियों ने यह प्रचलित कर दिया था कि गुरु का स्थान परमेश्वर से भी ऊंचा है. लोग परमेश्वर को छोड़ गुरु की सेवा सुश्रुषा में ही लगे रहते. महर्षि जी ने इसका खंडन किया. उन्होंने कहा, ‘ईश्वर सब गुरुओं का भी गुरु है. सृष्टि रचना, पालन और प्रलय करने वाले सर्वशक्तिमान परमेश्वर के तुल्य गुरु कभी नहीं हो सकता. परमेश्वर ही सर्वोपरि है’. उस दौर में कुछ लोगों ने अश्वमेध यज्ञ, गोमेध यज्ञ व नरमेध यज्ञ का गलत अर्थ बताकर बलि प्रथा को धार्मिक अनुष्ठान घोषित कर रखा था. पर उन्होंने शास्त्रों से प्रमाण देकर बलि प्रथा को पाखंड सिद्ध किया. उन्होंने भूत, प्रेत, पिशाच, डाकिनी, चुड़ैल, जादू, टोना, चमत्कार जैसे समाज में प्रचलित अंधविश्वासों का भी कड़ा विरोध किया. उन्होंने धार्मिक कार्यों के नाम पर नशा करने की प्रवृत्ति को अधर्म घोषित किया.

जातिवाद के विरुद्ध शंखनाद

महर्षि जी ने देश में फैले जातिवाद का हर स्तर पर विरोध किया. उन्होंने कई प्रमाण और तर्क देकर सिद्ध किया कि इन प्रचलित जन्मना जातियों का कोई शास्त्रीय आधार नहीं है और न ही इनका कोई उल्लेख किसी शास्त्र में मिलता है. जन्मना जाति व्यवस्था वेद-विरुद्ध है, इसलिए जन्म पर आधारित जाति व्यवस्था का समूल नाश होना चाहिए. वे कहते थे, ‘गुण-कर्म-स्वभाव आधारित वर्ण व्यवस्था ही वेद सम्मत है’. कुछ लोगों ने शूद्रों के वेद पढ़ने पर रोक लगा रखी थी. महर्षि जी ने घोषणा की, ‘वेद पढ़ना प्रत्येक मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है. सब मनुष्यों को बिना भेदभाव के समान अधिकार मिलने चाहिए. कोई व्यक्ति जन्म के आधार पर ऊंचा या नीचा नहीं हो सकता’. उन्होंने जन्म के आधार पर छुआछूत का प्रबल विरोध किया. साथ ही उन्होंने सभी हिंदुओं से जाति बंधन तोड़ आपस में विवाह करने का भी आह्वान किया.

नारी सशक्तीकरण के पक्षधर

महर्षि जी नारी सशक्तीकरण के प्रबल पक्षधर थे. एक ओर शास्त्रों में नारी को पूज्य बताया गया था, वहीं दूसरी ओर नारी की स्थिति पांव की जूती के समान थी. स्वार्थी जनों ने नारी को अधिकारहीन बनाकर उसकी स्थिति बद से बदतर बना रखी थी. महर्षिजी ने समाज में फैली नारी शोषक कुरीतियों का विरोध करने के साथ नारी को उसके जन्मसिद्ध अधिकार भी दिये. उन्होंने बताया कि यज्ञोपवीत विद्या का चिह्न है और इतिहास में अनेक विदूषी नारियों का जिक्र आता है. अतः पुरुषों की भांति स्त्रियों को भी यज्ञोपवीत पहनने का समान अधिकार है. उन्होंने नारी को शिक्षा का अधिकार दिया. जब छोटे बच्चों को गोदी में लेकर विवाह कर दिया जाता था. उस काल में सर्वप्रथम उन्होंने विवाह के लिए न्यूनतम आयु (लड़के की 25 वर्ष एवं लड़की की 16 वर्ष) घोषित की. इसके अलावा उन्होंने बहुविवाह, सती प्रथा, देवदासी प्रथा जैसी सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध भी आवाज उठायी. वहीं, महर्षि जी ने स्वयंवर की पुरातन परंपरा को पुनर्जीवित किया, जिसमें लड़के लड़की को अपनी स्वेच्छा से अपना जीवनसाथी चुनने का अधिकार मिला. उन्होंने विधवा विवाह को समाज में स्वीकृति दिलायी.

स्वराज्य व स्वातंत्र्य का उद्घोष

सदियों की गुलामी के बाद दासता को ही अपनी नियति मान चुकी भारतीय जनता के बीच महर्षि जी ने स्वातन्त्र्य अलख जगायी. ब्रिटिश शासन में स्वराज्य जैसे शब्द देशवासियों ने दयानंद जी के ग्रंथों से ही सीखे. भारतवासियों को स्वदेशी वस्तुओं का उपयोग के लिए सबसे प्रथम प्रेरणा देने का कार्य इन्होंने ही किया. उनके क्रांतिकारी व्याख्यानों एवं ग्रंथों से प्रेरणा लेकर हजारों लोग स्वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़े. इन क्रांतिकारियों के ऐतिहासिक बलिदानों ने पुनः लाखों देशवासियों को प्रेरित किया. भारत ही नहीं नेपाल, मॉरिशस, सूरीनाम जैसे देशों के स्वतंत्रता संग्राम में भी इनके अनुयायियों के बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया. उनसे प्रभावित स्वतंत्रता सेनानियों में सुभाषचंद्र बोस, लाला लाजपत राय, मैडम कामा, विनायक दामोदर सावरकर, लाला हरदयाल, मदनलाल ढींगरा, राम प्रसाद बिस्मिल, महादेव गोविंद रानाडे, स्वामी श्रद्धानंद, पंडित लेखराम, महात्मा हंसराज जैसी कई हस्तियां शामिल थीं. यहां तक कि क्रांतिकारी भगत सिंह भी उनसे खासे प्रभावित थे, जो लाहौर के दयानंद एंग्लो वैदिक स्कूल में पढ़े थे.

सत्य के लिए बलिदान

महर्षि जी सत्य के लिए जिये और सत्य के लिए ही बलिदान हो गये. 20 वर्ष के कार्यकाल में उनके विरोधियों ने 44 बार उनके प्राण हरण की चेष्टाएं कीं, मगर वे हर बार अपने ब्रह्मचर्य एवं यौगिक बल से बच जाते थे. मगर 44वां प्रयास प्राणघातक सिद्ध हुआ और उन्होंने शांत चित्त से प्रभु स्मरण करते हुए प्राण त्याग दिया.

इन संस्थाओं के जरिये देश में जलायी जागृति की अलख

आर्य समाज : 10 अप्रैल, 1875

महर्षि दयानंद जी ने 10 अप्रैल, 1875 को गुड़ी पड़वा के दिन मुंबई में आर्य समाज की स्थापना की. यह हिंदुओं का प्रथम संगठन है. उनके निर्वाण तक 79 शहरों में आर्य समाज मंदिरों की स्थापना हो चुकी थी. अभी आर्य समाज का विस्तार करीब 42 देशों में हो चुका है और 10000 से अधिक आर्य समाज मंदिर स्थापित हो चुके हैं. आर्य समाज का मुख्य धर्म, मानव धर्म ही था. स्वामी जी ने परोपकार, मानव सेवा, कर्म एवं ज्ञान को मुख्य आधार बताया, जिनका उद्देश्य मानसिक, शारीरिक व सामाजिक उन्नति था.

वैदिक यंत्रालय : 1880

जिस समय महर्षि दयानंद सरस्वती जी ने वेदभाष्य और अन्य ग्रंथों का लेखन एवं प्रकाशन व्यापक स्तर पर शुरू किया, तभी से वे अपना प्रकाशन संस्थान खोलने की जरूरत महसूस करने लगे. आखिरकार, 12 फरवरी, 1880 को काशी के लक्ष्मीकुंड स्थित महाराज विजयनगराधिपति के स्थान पर वैदिक यंत्रालय की स्थापना हुई. शुरू में इसका नाम ‘प्रकाश यंत्रालय’ रखा गया था. बाद में वैदिक यंत्रालय कर दिया गया. आगे चलकर इसको अजमेर स्थानांतरित कर दिया गया.

दयानंद एंग्लो वैदिक : 1886

दयानंद एंग्लो वैदिक (डीएवी) स्कूलों की स्थापना साल 1886 में महर्षि दयानंद सरस्वती की स्मृति में महात्मा हंसराज के प्रयासों से लाहौर में की गयी थी. दयानंद एंग्लो वैदिक कॉलेज ट्रस्ट एंड मैनेजमेंट सोसायटी द्वारा चलाये जा रहे थे, जिन्हें दयानंद एंग्लो वैदिक एजुकेशन सोसायटी के नाम से भी जाना जाता है. डीएवी परिवार के तहत 900 स्कूल, 75 कॉलेज और एक विश्वविद्यालय है.

गोरक्षिणी सभा : 1882

महर्षि दयानंद सरस्वती ने 1882 में गोरक्षिणी सभा की स्थापना की. उसके बाद ही देश में गोरक्षा आंदोलन शुरू हुआ. उनका मकसद था, ‘गाय को बचाने के नाम पर हिंदुओं को एकजुट करना’.

महर्षि जी पर नायकों के बोल

सरदार वल्लभभाई पटेल

महर्षि दयानंद जी के राष्ट्र प्रेम के लिए, उनके द्वारा उठाये गये कष्टों, उनकी हिम्मत, ब्रह्मचर्य जीवन के कारण मुझे उनके प्रति आदर है. समाज में उस समय जो-जो कुरीतियां, अज्ञानता व बुराइयां थीं, स्वामी जी ने उनको दूर करने के लिए बल लगाया. यदि वे न होते, तो हिंदू समाज की क्या हालत होती, इसकी कल्पना भी कठिन है.

लाला लाजपत राय

महर्षि दयानंद मेरे गुरु हैं. मैंने संसार में केवल उन्हीं को गुरु माना है. वे मेरे धर्म के पिता हैं और आर्य समाज मेरे धर्म की माता है. इन दोनों की गोदी में मैं पला हूं. मुझे इस बात का गर्व है कि मेरे गुरु ने मुझे स्वतंत्रतापूर्वक विचार करना, बोलना और कर्तव्य पालन करना सिखाया.

नेताजी सुभाषचंद्र बोस

दयानंद सरस्वती जी उन महापुरुषों में से थे, जिन्होंने आधुनिक भारत का निर्माण किया और जो इसके आचार संबंधी पुनरुत्थान तथा धार्मिक पुनरुद्वार के उत्तरदाता हैं. हिंदू समाज का उद्वार करने में आर्यसमाज का बहुत बड़ा हाथ है. स्वामी जी को मैं एक धार्मिक व सामाजिक सुधारक तथा कर्मयोगी मानता हूं.

दयानंद जी के पांच उपदेश

स्वामी जी धर्म, अर्थ, कर्म और मोक्ष में विश्वास करते थे. उन्होंने मनुष्य के जीवन के चार चरणों- ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास- को इन्हीं चार विश्वासों के साथ आत्मसात किया.

एक ईश्वर है: ओम

एक जाति : आर्य

एक धर्म : वैदिक धर्म

पूजा की एक विधि: संध्या

एक शास्त्र है : वेद

महर्षि जी के विचार

जीवनरूपी रथ के स्त्री और पुरुष, दोनों एक समान पहिए हैं. ऐसे में स्त्री को शिक्षा के प्रकाश से वंचित रखना जीवन के संतुलित विकास में व्यवधान उत्पन्न करना है.

और जो तुम स्त्रियों के पढ़ने का निषेध करते हो, वह तुम्हारी मूर्खता, स्वार्थता अौर निर्बुद्विता का प्रभाव है.

भला जो पुरुष विद्वान और स्त्री अविदुषी तथा स्त्री विदुषी व पुरुष अविद्वान हो, तो नित्यप्रति देवासुर संग्राम घर में ही मचा रहे, फिर सुख कहां?

इससे अधिक हृदय-विदारक, दारुण वेदना और क्या हो सकती है कि विधवाओं की दुखभरी आहों से, अनाथों के निरंतर आर्तनाद से और गो-वध से इस देश का सर्वनाश हो रहा है.

दयानंद सरस्वती जी ने वैदिक शिक्षा व संस्कृत को लोगों तक पहुंचाने के लिए कई ग्रंथों की रचना की. इनमें प्रमुख हैं:

सत्यार्थ प्रकाश

पहली बार दयानंद जी ने इस ग्रंथ की रचना 1875 में की थी. महर्षि जी की यह पुस्तक सबसे प्रसिद्ध है. इसमें 14 अध्याय हैं, जिनमें वेदों का ज्ञान, चारों आश्रम, शिक्षा व अन्य धर्मों की कुरीतियों के बारे में बताया गया है. इस पुस्तक में भाषा की काफी त्रुटियां थीं. बाद में उन्होंने फिर से लिखा और दूसरा संस्करण 1884 में प्रकाशित हुआ.

संस्कृत वाक्य प्रबोध

संस्कृत भाषा के प्रचार-प्रसार के करने लिए इस ग्रंथ की रचना की. महर्षि दयानंद सरस्वती जी की यह एक तरह से सामान्य जन को संस्कृत भाषा सीखने और उसमें बातचीत करने के लिए प्रेरित करती है. इसमें आम बोलचाल के कई शब्दों को हिंदी की सहायता से संस्कृत में बताया गया है, जिससे लोगों को सीखने में आसानी हो.

गोकरुणानिधि

पशुओं के प्रति हिंसा रोकने के उद्देश्य से इस ग्रंथ की रचना हुई. इस ग्रंथ में गो माता की रक्षा, कृषि में उनके सहयोग, उनसे मिलने वाले लाभ, गोबर-गोमूत्र का उपयोग आदि का जिक्र किया गया है, ताकि लोगों में जागरूकता फैले व गो हत्या रुके. उन्होंने इस पुस्तक में अन्य जीवों को भी न मारने और शाकाहार अपनाने की प्रेरणा दी है.

पञ्च महायजना विधि

इस ग्रंथ में पर्यावरण संरक्षण के बारे में जानकारी दी गयी है. इस पुस्तक में उन्होंने पृथ्वी के सभी अनमोल रत्नों जैसे-भूमि, आकाश, वायु, जल आदि को सुरक्षित और स्वच्छ रखने की बात कही है. साथ ही उन्होंने सभी जीव-जंतुओं, पेड़-पौधों को सम्मान देने और उनकी हत्या न करने की भी प्रेरणा दी है.

व्यवहारभानु

यह पुस्तक मनुष्य जीवन के व्यवहार व कर्मों से जुड़ी है. यह पुस्तक मनुष्य जीवन के व्यवहार और कार्यों से जुड़ी है. इसमें मनुष्य के जीवन में प्रतिदिन क्या काम होता है, उसे उन्हें किस प्रकार करना चाहिए, किसके साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए, क्या आदर्श अपनाने चाहिए आदि के बारे में बताया गया है.

ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका

महर्षि जी का यह ग्रंथ संस्कृत और हिंदी दोनों भाषाओं में है. यह पुस्तक सनातन धर्म में वेदों के उत्थान, उनकी भूमिका और उनके उद्देश्य के बारे में बात करती है. ऋग्वेद चारों वेदों में सर्वप्रथम आता है. उन्होंने इस पुस्तक में ऋग्वेद का सारा सार बताने का प्रयास किया है. महर्षि जी का यह ग्रंथ संस्कृत और हिंदी दोनों भाषाओं में है.

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