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Rahul Sankrityayan की भारत- तिब्बत संबंध को मजबूत करने में अहम भूमिका, 45 साल खोज में बिताए

राहुल सांकृत्यायन महा पंडित थे उन्होंने 13 वर्ष की उम्र में अपना घर छोड़ दिया और 45 साल तक खोज और अन्वेषण में समय बिताया.

-ब्रिगेडियर एस के सिंह-
09 अप्रैल को आधुनिक भारतीय इतिहास के सबसे महान यात्री और यात्रा के इतिहासकारों में से एक महापंडित राहुल सांकृत्यायन की 131वीं जयंती है. राहुल सांकृत्यायन न केवल एक अथक यात्री थे, बल्कि एक विपुल लेखक भी थे जिन्होंने 13 साल की उम्र में पहली बार घर छोड़कर अपनी यात्रा शुरू की. उन्होंने यात्रा वृतांत को ‘साहित्यिक रूप’ दिया इसलिए राहुल सांकृत्यायन को हिंदी यात्रा साहित्य का जनक कहा जाता है. उन्होंने अपने जीवन के 45 वर्ष अपने घर से दूर अन्वेषण में बिताए.


भारत और तिब्बत के बीच प्राचीन संबंधों को उजागर किया


अपने जीवन के विभिन्न चरणों में, राहुल सांकृत्यायन एक वैष्णव मठ के महंत, किसान आंदोलन कारी, बौद्ध भिक्षु, स्वतंत्रता सेनानी और क्रांतिकारी थे. हालांकि, उनका सबसे बड़ा योगदान अपनी यात्राओं के माध्यम से भारत और तिब्बत के बीच प्राचीन संबंधों को फिर से उजागर करना और प्रचुर सामग्री भारत वापस लाना था. मिन्हाजू सिराज ने अपनी पुस्तक ‘तबकात -ए-नासरी’ में 12वीं शताब्दी के अंत में नालंदा, विक्रमशिला और उदवंतपुरी के प्राचीन विश्वविद्यालयों के विध्वंस का वर्णन किया है. मुख्य रूप से बौद्ध शाक्य संप्रदाय के मठों में संग्रहित कई अमूल्य पांडुलिपियों को तिब्बत से वापस लाए. इन ग्रंथों को पलायनकारी भिक्षु अपने साथ तिब्बत ले गए थे. तिब्बत के मौसम ने यह सुनिश्चित किया कि ये प्रकृति की अनिश्चितताओं से नष्ट न हो.

तिब्बत में चार अभियान किए

महापंडित ने संस्कृत, पाली और अन्य भाषाओं में दुर्लभ पांडुलिपियों को प्राप्त करने के लिए तिब्बत में लगातार चार अभियानों का नेतृत्व किया और उनके प्रयासों ने बुद्ध की शिक्षाओं को पुनर्जीवित किया जो विलुप्तता के कगार पर थीं. अपने प्रयासों से, वह न केवल इन दुर्लभ हिंदू और बौद्ध ग्रंथो की प्रतियां वापस लाए बल्कि उपमहाद्वीप की भूली हुई विरासत और इतिहास पर भी प्रकाश डाला.राहुल सांकृत्यायन ने स्वयं पाली सीखी और बौद्ध ग्रंथ “मध्यम निकाय” का अध्ययन किया जिसमें बौद्ध प्रवचनों का वर्णन है . राहुल सांकृत्यायन के अनुसार, तिब्बत की उनकी यात्राएं अच्छे और बुरे दोनों अनुभवों से पूर्ण थी. जहां उन्होंने भारी कठिनाइयों का सामना किया, वहीं कुछ अनुभव बहुत अच्छे थे. उन्हें प्राचीन ताड़ के पत्तों की पांडुलिपियों के साथ-साथ भारतीय शैली की अमूल्य स्क्रॉल पेंटिंग भी मिली.

पहली तिब्बत यात्रा ज्यादातर पैदल की

1926 में राहुल सांकृत्यायन ने अपनी पहली तिब्बत यात्रा ज्यादातर पैदल तय की. उस यात्रा में उनका साथी केवल एक कुत्ता था. तिब्बत की उनकी बाद की यात्राओं में, घोड़े तथा खच्चर यात्रा के साधन थे. उन्होंने लिखा है कि उनके पास जो पैसे थे उनमें से ज्यादातर यात्रा खर्च के लिए भी पर्याप्त नहीं थे. वह आगे लिखते हैं कि उन्हें कभी दूसरों से पैसा उधार लेना पसंद नहीं था, लेकिन तिब्बत में उन्हें इस व्यक्तिगत प्रवृत्ति को छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा. 1933-34 में अपनी दूसरी यात्रा के दौरान उन्होंने अपने उल्लेखनीय साथी, मित्र, दार्शनिक, कलाकार और भिक्षु ‘गेदुन चोफेल’ से मुलाकात की . राहुलजी के अनुसार तिब्बत एक सुनहरा पुल था जिस पर वे एक-दूसरे से मिले थे. उनकी दोस्ती पारस्परिक सम्मान पर आधारित थी और दोनों ने एक-दूसरे की सोच और दृष्टिकोण को प्रभावित किया. वह गेदुन चोफेल को लेकर भारत वापस लौटे जिसे तिब्बती विद्वान ने अपने सपने का साकार होना बताया.

राहुल सांकृत्यायन का तीसरा तिब्बत अभियान सबसे महत्वपूर्ण

1936 में राहुल सांकृत्यायन का तीसरा तिब्बत अभियान उनका सबसे महत्वपूर्ण और उत्पादक माना जा सकता है. गेदुन चोफेल के साथ, राहुलजी ने 15,000 फीट से अधिक की ऊंचाई पर न्यालम से होकर यात्रा की , जो शिगात्से के पश्चिम में है. रास्ते में, वे डिंगरी और सागा से गुजरे . उन्होंने बड़ी मात्रा में ताड़ के पत्तों पर लिखी हुई संस्कृत की पांडुलिपियों की खोज की. इनमें प्राचीन ग्रंथों की टीका और भाष्य (टिप्पणी और व्याख्या) दोनों शामिल थे. शाक्य मठों में, उन्होंने तमिल और सिंहली पांडुलिपियां भी मिलीं. उन्होंने नालंदा विद्वान संतरक्षित को श्रद्धांजलि देने के लिए साम्ये मठ का दौरा किया , जिन्होंने पहले सात तिब्बती भिक्षुओं को दीक्षा दी और पूरे हिमालय में बौद्ध धर्म की जड़ों को मजबूत किया. साम्ये ल्हासा के पश्चिम में दो दिन का पैदल रास्ता है. इन पांडुलिपियों की खोज पर अत्यंत प्रसन्नता का वर्णन करते हुए उन्होंने लिखा है कि मैंने पांडुलिपियों पर एक नजर डाली और विभूतिचंद्र द्वारा अपने हाथ से लिखित ‘प्रमाण- वर्तिका’ को देखकर मुझे अपार आनंद की अनुभूति हुई. विभूतिचंद्र विक्रमशिला विश्वविद्यालय के एक युवा विद्वान थे जिन्होंने मुस्लिम आक्रमणकारियों द्वारा प्रसिद्ध संस्थान के विनाश के बाद निर्वासन में अपने शिक्षक विक्रमशिला विश्वविद्यालय के सकयारीभद्र, का अनुसरण किया. दोनों विद्वान पहले पूर्वी-बंगाल में जगत्ताला गए और शायद इसके विनाश के बाद नेपाल गए, जहां से उन्हें 1203 ईस्वी में तिब्बत में प्रवेश करने वाले शाक्य मठ के प्रमुख द्वारा आमंत्रण मिला.

वह अपने तीसरे अभियान से किरू / गिरू और उसके ततपश्चात चुम्बी घाटी से होते हुए 22 खच्चरों पर पांडुलिपियां और अन्य ग्रंथ लेकर लौटे. महापंडित ने 1938 में तिब्बत की अपनी चौथी यात्रा की जब उन्होंने कुछ अन्य पांडुलिपियों की नकल की और उनमें से कुछ को मूल रूप में भारत लाने में सफल हुए. राहुलजी ने तिब्बती जीवन शैली के बारे में लिखा है कि तिब्बती मुख्य रूप से चाय, त्सम्पा (भुना हुआ जौ का आटा) और सूखे मांस भोजन में उपयोग करते हैं. महिलाएं खेतों में कड़ी मेहनत करती हैं और उनमें से अधिकांश की शादी एक ही परिवार के सभी भाइयों से होती है. तिब्बतियों के लिए प्राचीन पांडुलिपियां पूजनीय कलाकृतियां थीं और उन्हें ज्यादातर निर्माण के दौरान मठों के अंदर चुनवा दिया जाता था, जिसके बारे में मान्यता थी कि यह इन संरचनाओं को अत्यधिक शक्ति प्रदान करती हैं. पांडुलिपियों के छोटे टुकड़े कर भक्तों को दिए जाते थे जिनका मानना था कि जिस पानी में ये टुकड़े डुबोए जाएंगे, उससे कई बीमारियां ठीक हो सकती हैं.

राहुल सांकृत्यायन ने कई कृतियां खोजीं और उन्हें वापस लाये

भारत और तिब्बत के बीच व्यापक आदान-प्रदान का इतिहास है, जिसकी शुरुआत पहले भारतीय विद्वान ‘संतरक्षित’ से हुई, उसके बाद ‘पद्मसंभव’, ‘अतिशा’ आदि से लेकर 20वीं सदी के राहुल सांकृत्यायन महत्वपुर्ण कड़ी हैं. अपनी यात्राओं का दस्तावेजीकरण के अलावा, उन्होंने इन दो प्राचीन देशों के बीच साहित्यिक ग्रंथों का विशाल प्रवाह शुरू किया जिसके परिणामस्वरूप तिब्बत प्राचीन नालंदा परंपरा का भंडार बन गया जबकि भारत में इसे विनाश का सामना करना पड़ा. राहुलजी लिखते हैं कि पाल्डेन लामा (श्रीदेवी), तिब्बत की सबसे प्रतिष्ठित रक्षक हैं जो वास्तव में देवी काली का अवतार हैं. उन्होंने भारतीय गुरु पद्मसंभव के महत्व का भी उल्लेख किया है, जिनकी तिब्बत में बौद्ध धर्म की स्थापना में प्रमुख भूमिका थी. उन्होंने तिब्बत में बोधगया मंदिर का मॉडल भी देखा. राहुल सांकृत्यायन ने भारतीय विद्वानों नागार्जुन, असय, वसुबन्ध, भव्य, धर्मकीर्ति की कृतियां खोजीं और उन्हें वापस लाये. तिब्बत में उन्होंने भित्तिचित्रों की खोज की जिन्हें उन्होंने तकनीक में अजंता के चित्रों से मिलता जुलता बताया है. उन्होंने बोधगया में महाबोधि मंदिर के 12वीं शताब्दी के पत्थर के मॉडल के बारे में भी लिखा है, जो गया में पाए जाने वाले काले पत्थर के समान हैं.

प्राचीन बौद्ध ग्रंथों का सरल हिंदी में अनुवाद किया

धर्मकीर्ति द्वारा लिखित ‘प्रमाण वर्तिका’ तर्क शास्त्र पर अब तक की सबसे बड़ी कृति है. इसके मूल पांडुलिपि की खोज तत्कालीन विद्वानों के अनुसार बहुत बड़ा योगदान है. कई दिनों तक, कड़ाके की सर्दी के बावजूद, राहुलजी ने अपना सारा समय तस्वीरें लेने और इन पांडुलिपियों की हस्तलिखित प्रतियां बनाने में समर्पित कर दिया. उन्होंने तिब्बत के विभिन्न मठों में सुंदर भारतीय कांस्य मूर्तियों की तस्वीरें भी लीं. उनका सबसे बड़ा योगदान बौद्ध धर्म के माध्यम से भारत और तिब्बत के बीच के प्रगाढ़ संबंधों को उजागर करना है. उनकी तिब्बत से 22 खच्चर भर लाई गई पांडुलिपियां अनमोल हैं. महापंडित ने अपने गांव के स्कूल में केवल उर्दू का अध्ययन किया था, लेकिन 30 से अधिक भाषाओं में स्व-शिक्षित थे और 12 से अधिक में पारंगत थे. उन्होंने यात्रा वृतांत से लेकर उपन्यास तक 140 से अधिक ग्रंथ लिखे. उनका सबसे बड़ा योगदान आम जनता के लिए प्राचीन बौद्ध ग्रंथों का सरल हिंदी में अनुवाद करना रहा, जिससे यह सर्वसुलभ हो गया. उन्होंने तिब्बती-हिंदी शब्दकोश भी लिखा. मूल बौद्ध सिद्धांतों को पढ़ने के लिए उन्होंने स्वयं पाली सीखी. बाद में वे श्रीलंका गये जहां उन्होंने संस्कृत पढ़ाई. राहुल सांकृत्यायन द्वारा लाई गईं अधिकांश पांडुलिपियां काशी प्रसाद जायसवाल संस्थान, पटना में संरक्षित हैं. जायसवाल स्वयं एक प्रसिद्ध इतिहासकार और वकील थे जिन्होंने महापंडित को उनकी यात्राओं के वित्तपोषण और पांडुलिपियों के अनुवाद में सहायता की.

साहित्य अकादमी और पद्म भूषण से सम्मानित

राहुल सांकृत्यायन को साहित्य अकादमी और पद्म भूषण सहित कई पुरस्कारों से सम्मानित किया गया . उन्होंने त्रिपटक ग्रंथ का गहन अध्ययन किया और उन्हें’ त्रिपटकाचार्य’ की उपाधि दी गई . उनकी रचनाएं मुख्य रूप से हिंदी में हैं, जिसके कारण अंग्रेजी भाषी अभिजात वर्ग द्वारा इसे नजरअंदाज कर दिया गया है. उनके समकालीन ज्ञानी उन्हें विलक्षण प्रतिभा का धनी मानते थे. पंडित जवाहर लाल नेहरू ने कहा था, ‘मैं केवल एक ही राहुल को जानता हूं जो विलक्षण हैं.’ हमारा देश वर्तमान में ‘सांस्कृतिक पुनरुद्धार’ पर की ओर अग्रसर है. हमें महापंडित जैसे लोगों का अध्ययन करने और उनके योगदान से सीखने की जरूरत है. राहुल सांकृत्यायन ने जनमानस की चेतना से मिटाए गए ग्रंथों को फिर से खोजा. उनका लेखन भारत और तिब्बत के बौद्ध संबंधों और विरासत को समझने के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है. महापंडित का जीवन ‘चरैवेति –चरैवेति’ वाक्यांश में समाहित है, जिसका अर्थ है निरंतर चलते रहो. ‘बदलाव’ भी उनके जीवन का उपयुक्त वर्णन होगा. राहुल सांकृत्यायन भारतीय ज्ञान तथा परंपरा के प्रतीक हैं जिसे पुनर्जीवित करने की आवश्यकता है. उन्होंने अपना समय एवं ऊर्जा, हमारे प्राचीन ग्रंथों और संस्कृति के अध्ययन की पुनः खोज और उनके माध्यम से भारत और तिब्बत के बीच के संबंधों को और भी प्रगाढ़ करने में समर्पित किया जिसके लिये वह साधुवाद के भागी हैं.

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