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कर्नाटक में झंडे की सियासत

II आशुतोष चतुर्वेदी II प्रधान संपादक, प्रभात खबर ashutosh.chaturvedi @prabhatkhabar.in राजनीति किस स्तर तक जा सकती है, इसका जीता जागता उदाहरण है कर्नाटक. वहां की राज्य सरकार ने अलग झंडे की मांग की है. आपको याद होगा कि गुजरात चुनावों के दौरान हमने क्या नहीं देखा और लगता है कि अब कर्नाटक की बारी है. […]

II आशुतोष चतुर्वेदी II
प्रधान संपादक, प्रभात खबर
ashutosh.chaturvedi
@prabhatkhabar.in
राजनीति किस स्तर तक जा सकती है, इसका जीता जागता उदाहरण है कर्नाटक. वहां की राज्य सरकार ने अलग झंडे की मांग की है. आपको याद होगा कि गुजरात चुनावों के दौरान हमने क्या नहीं देखा और लगता है कि अब कर्नाटक की बारी है. वहां एक नया शिगूफा छोड़ा गया है, जो देश की एकता के ताने-बाने के लिए खतरनाक है.
कर्नाटक की राज्य सरकार ने केंद्र सरकार से अपना अलग झंडा अपनाने के लिए अनुमति मांगी है. हम सब जानते हैं कि कर्नाटक में जल्द विधानसभा चुनाव होने वाले हैं और चुनाव आयोग कुछ ही समय में चुनाव कार्यक्रम की घोषणा कर सकता है. यह जान लीजिए कि क्षेत्रीय अस्मिता के नाम पर अलग झंडे की मांग एक चुनावी मुद्दा बनने जा रहा है. कर्नाटक में अलग झंडे को कन्नड़ सम्मान से जोड़ कर पेश किया जा रहा है.
भारत में विशेष संवैधानिक राज्य का दर्जा प्राप्त जम्मू और कश्मीर के अलावा किसी भी राज्य का अपना अलग झंडा नहीं है. भारतीय संघीय ढांचे में किसी राज्य को अलग झंडे की अनुमति नहीं है. साथ ही हमारे देश के राष्ट्रीय प्रतीक चिह्नों के साथ सम्मान का भाव जुड़ा है.
इसमें न केवल राष्ट्रीय ध्वज तिरंगा, बल्कि तीन शेरों वाला चिह्न, राष्ट्रगान और संविधान भी आते हैं. लेकिन, कर्नाटक सरकार केंद्र सरकार से फ्लैग कोड 1952 के तहत अलग झंडे की अनुमति मांग रही है. हम सब इस बात को जानते हैं कि राष्ट्रीय ध्वज को लेकर नियम बेहद सख्त है.
राष्ट्रीय ध्वज के आगे कोई भी झंडा नहीं फहराया जा सकता है. अगर कई झंडा किसी आयोजन में फहराना आवश्यक हो तो उसे राष्ट्रीय ध्वज के नीचे ही फहराया जा सकता है. दूसरी ओर कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया की दलील है कि संविधान में कहीं अलग से नहीं लिखा है कि राज्यों का अपना झंडा नहीं हो सकता है. उन्होंने गेंद भाजपा के पाले में डालते हुए कहा कि भाजपा नेताओं को भी झंडे की अनुमति देने के लिए केंद्र सरकार पर दबाव बनाना चाहिए. हालांकि खबरों के अनुसार गृह मंत्रालय ने कर्नाटक के लिए अलग झंडे के प्रस्ताव को खारिज कर दिया है. गृह मंत्रालय ने कहा कि फ्लैग कोड के तहत सिर्फ एक झंडे को मंजूरी दी गयी है, एक देश और एक झंडा ही होगा. लेकिन सिद्धारमैया इस मुद्दे को छोड़ते नजर नहीं आ रहे हैं.
दरअसल, कर्नाटक में अभी कांग्रेस सरकार है और भाजपा यहां सत्ता में लौटने की कोशिश कर रही है. यह सब कवायद इसलिए हो रही है कि कुछ ही महीने बाद राज्य में विधानसभा चुनाव होने हैं और मौजूदा मुख्यमंत्री सिद्धारमैया के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार भाजपा के राष्ट्रवाद के मुद्दे को लेकर चिंतित है.
उसको लगता है कि उसकी काट के लिए क्षेत्रीयता के मुद्दे को उछाला जाये. यह देश का दुर्भाग्य है कि अब चुनाव जमीनी मुद्दों पर नहीं लड़े जाते. अब चुनावों में किसानों की समस्याएं, रोजगार, स्वास्थ्य सेवाओं और शिक्षा की स्थिति, राज्य का विकास जैसे विषय मुद्दे नहीं बनते, बल्कि भावनात्मक मुद्दों को उछाला जाता है. चुनाव जीतने की कोशिश के तहत एक और गैर जिम्मेदाराना तरीका निकाला गया है कि राज्य का अपना झंडा और प्रतीक चिह्न होना चाहिए और इस आशय का प्रस्ताव लाया गया. इससे पहले 2012 में भी ऐसी सुगबुगाहट उठी थी, लेकिन उस समय राज्य विधानसभा ने यह मांग सिरे से खारिज कर दी थी.
हमारा राष्ट्रीय ध्वज देश की एकता, अखंडता और संप्रभुता का प्रतीक है. झंडे को लेकर जो संहिता है, वह हमें राज्य के लिए अलग झंडे की इजाजत नहीं देती. लेकिन, फिजूल में झंडे के बहाने एक विवाद खड़ा करने की कोशिश की जा रही है.
राज्य सरकार इसको हवा दे रही है, लेकिन वह यह नहीं समझ रही है कि ऐसे आंदोलन जब फैल जाते हैं तो उन्हें नियंत्रित करना कितना मुश्किल होता है. कुछ समय पहले ऐसी खबरें आयीं थीं कि हिंदी भाषा को भी निशाना बनाया गया और सार्वजनिक स्थलों पर लगे हिंदी के साइन बोर्ड को नुकसान पहुंचाया गया. बंेगलुरु मेट्रो स्टेशनों पर लगे हिंदी के कई बोर्डों पर कालिख पोत दी गयी थी, जबकि ये नाम त्रिभाषा फॉर्मूले के तहत तीन भाषाओं में नाम लिखे गये थे. कर्नाटक में हिंदी भाषी बड़ी संख्या में रहते हैं.
आइटी क्षेत्र में बिहार और झारखंड के बड़ी संख्या में युवा वहां काम करते हैं. चिंता इस बात की है कि क्षेत्रीयता के ऐसे मुद्दे उन्हें भी प्रभावित कर सकते हैं. महाराष्ट्र को लेकर हिंदी भाषियों का अनुभव बहुत खराब रहा है. क्षेत्रीयता के नाम पर शिव सेना वहां हिंदी भाषियों को निशाना बनाती रही है. हालांकि शिव सेना जैसे दल ने भी इस मुद्दे का विरोध किया है. तमिलनाडु में भी अति क्षेत्रीयता से देश वर्षों तक जूझा है. वहां तमिल पार्टियां इसे हवा देती आयीं हैं. वहां हिंदी भाषा को लेकर आज भी तिरस्कार का भाव है.
सबसे चिंता की बात यह है कि इसे और कोई नहीं कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया हवा दे रहे हैं. वह जवाब देने के बजाय सवाल पूछ रहे हैं कि क्या संविधान में कोई ऐसा प्रावधान है जो राज्य को अलग झंडे को अपनाने से रोकता है?
पिछले चार साल में कर्नाटक सरकार ने कभी इस मुद्दे को नहीं उठाया. अब स्थिति यह है कि कर्नाटक सरकार ने झंडा भी तैयार कर लिया है. तीन रंगों वाले झंडे में पीली, सफेद और लाल पट्टियां हैं. मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने मीडिया को बताया कि हमने झंडे के मध्य में एक सफेद पट्टी जोड़ी है जो शांति को दर्शाती है और इसके बीचों-बीच में प्रांतीय प्रतीक गंडाबेरूंडा नामक एक पौराणिक चिड़िया है.
क्षेत्रीयता के हिमायती कन्नड़ संगठन ऐसे ही प्रतीकों वाले झंडे इस्तेमाल करते रहे हैं. 60 के दशक में जब कर्नाटक में क्षेत्रीयता का उफान था, उस दौरान एक सिंदूरी और पीले रंग का का झंडा तैयार किया गया था. इसे लोग एक नवंबर को आयोजित होने वाले कर्नाटक राज्योत्सव के मौक पर फहराते भी हैं. इसको लेकर कोई समस्या नहीं है. समस्या राज्य सरकार के फैसले को लेकर है. विभिन्न राज्यों में अलग-अलग समाज अपने उत्सवों से जुड़े झंडे फहराते हैं. लेकिन राज्य सरकारें ऐसा कोई झंडा नहीं रख सकती हैं.
सिद्धारमैया भाजपा को भी चुनौती दे रहे हैं कि वह सार्वजनिक रूप से कहे कि कन्नड़ लोगों को अलग झंडे की जरूरत नहीं है. क्षेत्रीयता से जुड़े इस मुद्दे को भाजपा जोर-शोर से काट नहीं पा रही है. दिलचस्प तथ्य यह है कि मुख्यमंत्री इससे साफ इनकार करते हैं कि इसका आगामी चुनावों से इसका कोई संबंध है. वह कहते हैं कि इसका सियासत से कोई लेना-देना नहीं है. लेकिन, हम सब जानते हैं कि इसका सिर्फ सियासत से ही लेना-देना है.

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