II अनुराग चतुर्वेदी II
वरिष्ठ पत्रकार
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मुंबई में रविवार को जब नासिक से चलकर चालीस हजार किसान ‘लांग मार्च’ करते हुए चेम्बूर के सुमन नगर पहुंचे, तभी एक सज्जन अपनी कार से मोर्चे के नेता गावित के पास पहुंचे और उन्होंने अपना पर्स निकाला, जिसमें ग्यारह हजार रुपये थे.
उन्होंने कहा, ‘आप लोग इतनी गर्मी में इतनी तकलीफ झेलकर यहां आये हैं, मैं एक हजार रुपये रख बाकी दस हजार रुपये आपको दे रहा हूं.’ जब आदिवासी नेता गावित ने उनके नाम को सार्वजनिक करने की इच्छा जाहिर की, तो उस सज्जन ने विनम्रता से इनकार कर दिया.
सोमवार शाम को जब जुलूस सायन के सोमैय्या मैदान में पहुंचकर आराम कर रहा था, तब एक सेवानिवृत्त पति-पत्नी वहां पहुंचे और कहा कि आप हमारे अन्नदाता हैं, आप तकलीफ में हैं, हम अपनी पेंशन से बचाकर पांच हजार रुपये आपको देना चाहते हैं. इस लांग मार्च का जिस तरह विक्रोली में सिख समुदाय, मुसलिम व मराठीभाषियों ने स्वागत किया, उससे लगता है मुंबई में अभी मानवीय गुण बचे हुए हैं.
महाराष्ट्र में इन दिनों जुलूस और संख्या बल के आधार पर जाति समूह अपनी ताकत का प्रदर्शन करते हैं. मराठा जाति के सदस्यों ने हर शहर में शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर ‘मराठा आरक्षण’ की मांग की.
दलित समुदाय ने चीमा कोरेगांव में हुई हिंसा के खिलाफ ‘ताकत’ और भय दिखानेवाला शक्ति प्रदर्शन किया और समाज में दलितों के स्थान और राजनीति में दलितों के महत्व को रेखांकित किया. पर मार्क्सवादी संगठन अखिल भारतीय किसान सभा के नेतृत्व में निकला यह जुलूस अहिंसात्मक और करुणा से भरा, विपरीत मौसम में कष्टप्रद यात्रा का था.
जुलूस सोमैय्या मैदान पहुंचा था, तभी उसके नेतृत्व से अपील की गयी कि छात्रों को कठिनाई हो सकती है, तो किसान नेताओं ने थोड़े विश्राम के बाद अपने समर्थकों को रात में ही 20 किमी की दूरी तय कर वीटी स्थिति आजाद मैदान चलने को कहा, जिसे थके-मांदे किसानों ने मान लिया. यह होती है करुणा और अहिंसात्मक आंदोलन की आंतरिक शक्ति. इसके मुकाबले अच्छी सैलरी वाले, शिक्षित और शहरी डॉक्टरों की हड़ताल में ज्यादातर डॉक्टर मरीजों को मरने के लिए छोड़ देते हैं.
महाराष्ट्र सरकार ने मुंबई के समाज के अनुसार ही किसानों से सहानुभूति दिखायी, उनकी जायज सभी मांगों को लिखित रूप में मंजूर कर लिया. फिर सवाल उठता है कि उसने ‘लांग मार्च’ के शुरू में ही नासिक में किसान नेताओं से ‘संवाद’ क्यों नहीं ‘साधा’? वे क्यों मुंबई का इंतजार करते रहे? दरअसल, सरकार शुरू में इस आंदोलन को अनदेखा कर रही थी.
सत्तारूढ़ दल की मुंबई उपनगर की सांसद पूनम महाजन ने तो इस आंदोलन को शहरी नक्सलवादियों का आंदोलन करार दिया. ठाणे, नंदूरबार, नासिक के आदिवासियों की जल-जमीन और जंगल की लड़ाई वर्षों से चल रही है. महाराष्ट्र सरकार ने अश्वासन दिया है कि वनभूमि के मालिकाना हक के दावों को अगले छह महीनों में अंतिम फैसला लेकर सुलझा लिया जायेगा. जिन किसानों को कम जमीन मिली है, उन्हें 2006 के कानून में अर्जित जमीन दी जायेगी. वन अधिकार के तहत आदिवासी उस जमीन के मालिकाना हक के लिए हकदार हो गये हैं, जिन पर वे पीढ़ियों से खेती करते आये हैं.
महाराष्ट्र में खेती का संकट विकट है. किसान पिछले कई वर्षों से खेती कर नुकसान उठा रहे हैं. महाराष्ट्र में सड़कों और शहरी सुविधाओं पर तो ध्यान दिया गया है, पर सिंचाई के साधन की अभी बड़ी समस्या है.
महाराष्ट्र के किसान खेती की तकनीक और कृषि अर्थशास्त्र के चक्र में फंस गये हैं. क्या कर्ज माफी किसानों पर आये वर्तमान संकट का निदान है? किसान आत्महत्याएं अब भी रुक नहीं रही हैं. महाराष्ट्र सरकार की कर्ज माफी की घोषणा के बाद भी किसान संतुष्ट नहीं हैं. हालांकि, कांग्रेस-राष्ट्रवादी भी किसानों के सवाल पर ‘यात्रा’ निकाल चुके हैं.
देशभर में जहां-तहां किसान आंदोलन कर रहे हैं. ‘लांग मार्च’ से किसानों की समस्याओं पर सरकार, समाज और मीडिया का नजरिया बदला है.
सरकार ने अब भी समस्या काे सतही रूप से छुआ है. महाराष्ट्र का यह आंदोलन आदिवासियों के जंगल की जमीन पर मालिकाना हक दिलवाने और कर्ज माफी के सवाल पर आ रही समस्याओं से जुड़ा था. सवाल है कि सरकारी अफसरों की समिति यदि किसानों की मांगें समय पर नहीं मानती है, तो क्या फिर से किसान आंदोलन करेंगे?
फिलहाल किसान ‘विशेष ट्रेन’ में बैठकर वापस चले गये हैं. यदि पिछली सरकारों की तरह देवेंद्र फडणवीस की सरकार भी किसानों को ‘धोखा’ देगी, तो आदिवासियों-किसानों का वापस मुंबई आने के सिवाय कोई रास्ता नहीं रहेगा. यह आंदोलन किसानों की गरिमा और उनके प्रति सहानुभूति से जुड़ा आंदोलन था, जो अहिंसात्मक और अनुशासित था.
यही वजह है कि इस अनोखे लांग मार्च को लंबे समय तक याद रखा जायेगा. किसी भी आंदोलन को, विशेषकर किसान आंदोलन को लंबा चलाना कठिन है. किसानी में किसान की खेत पर जरूरत होती है, उसका पशु धन होता है.
यही कारण है कि आंदोलनों में भाग लेनेवाले किसानों को लंबे समय तक इन आंदोलनों का आर्थिक दंश झेलना पड़ता है. यदि इन आंदोलनों पर सरकारी दमन होता है, तो किसान और मुश्किल में पड़ जाता है. यही कारण होगा कि जिससे किसान एक निर्णायक लड़ाई पूरी लड़कर अपने खेतों में लौट गये, और एक गरिमामय आंदोलन के साथ जुड़कर आदिवासी जंगल लौट गये.