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सैन्य तैयारियों के विषम पेच
II मोहन गुरुस्वामी II वरिष्ठ टिप्पणीकार mohanguru@gmail.com सेना की तैयारी के मद्देनजर पिछले दिनों लेफ्टिनेंट जनरल शरथचंद ने सेवानिवृत्त मेजर जनरल बीसी खंडूरी की अध्यक्षता वाली संसद की स्थायी समिति (रक्षा मामले) से कहा था कि हमारे 68 प्रतिशत सैन्य साजो-सामान पुराने पड़ चुके हैं. साल 2018-19 के लिए अनुमानित रक्षा बजट को लेकर समिति […]
II मोहन गुरुस्वामी II
वरिष्ठ टिप्पणीकार
mohanguru@gmail.com
सेना की तैयारी के मद्देनजर पिछले दिनों लेफ्टिनेंट जनरल शरथचंद ने सेवानिवृत्त मेजर जनरल बीसी खंडूरी की अध्यक्षता वाली संसद की स्थायी समिति (रक्षा मामले) से कहा था कि हमारे 68 प्रतिशत सैन्य साजो-सामान पुराने पड़ चुके हैं. साल 2018-19 के लिए अनुमानित रक्षा बजट को लेकर समिति ने अपनी चिंता भी जतायी है. यहीं पर वह महत्वपूर्ण बात सामने आती है कि सरकार बड़े-बड़े हवाई मारक हथियार तो खरीद रही है, लेकिन जमीनी स्तर पर लड़ने के लिए उसके पास सारे पुराने हथियार हैं.
जबकि युद्ध होता है, तो सबसे पहले थलसेना जाती है. इस ऐतबार से, अगर इस वक्त थलसेना के सभी जवानों लिए भी नये राइफल खरीदे जायें, तो इस पर महज 9,940 करोड़ रुपये का ही खर्च आयेगा. जबकि, सरकार लाखों करोड़ के लड़ाकू विमान खरीद रही है. सरकार को सोचना चाहिए कि लड़ाकू विमानों की जरूरत तो तब पड़ती है, जब पानी सिर से ऊपर चला जाता है और कोई दूसरा रास्ता नहीं बचता.
किसी भी सेना का काम युद्ध करना होता है और वह हमेशा युद्धरत ही रहा करती है.
और कोई युद्ध तब शुरू नहीं होता, जब पहली गोलियां चलनी शुरू होती हैं. युद्ध की तैयारी भी युद्ध का ही हिस्सा होती है. जब सेना अपनी तैयारियों का प्रदर्शन करती है, तो दरअसल वह हम पर वास्तविक युद्ध थोप दिये जाने को रोक रही होती है.
हाल ही में जब यह तथ्य सार्वजनिक जानकारी में आया कि हमारी सेनाओं को कम, निम्नतर तथा पुराने साजोसामान से काम चलाना पड़ रहा है. जो कुछ उसके पास मौजूद है, कोई भी देश उसी से लड़ता है.
खतरों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करते हुए भी सैन्य कमांडर किसी आकस्मिक स्थिति का सामना करने को तैयार रहते हैं. पर नीति-निर्माताओं को चाहिए कि वे सैन्य अपेक्षाओं को विवेक एवं संभावनाओं से संतुलित करें. हमारी समस्या यह है कि नीति-निर्माताओं तथा सेना के बीच एक चौड़ी खाई बनी है. हमारे नीति-निर्माता अपनी प्रकृति तथा चाहत से ही कार्यकारी शक्तियां धारण करने तथा नीति-निर्माण का काम नौकरशाही के जिम्मे छोड़ देने को तरजीह देते आये हैं.
इस तरह हमारे पाले दो ऐसी कोटि के लोग आ पड़े हैं, जो वह कर रहे हैं, जिसकी अपेक्षा उनसे नहीं की जाती. यह समस्या तब और भी भीषण हो जाती है, जब अपने द्वारा किये जाते काम के लिए न तो वे प्रशिक्षित हैं और न ही वह उनकी प्रवृत्ति का है.
फिर भारत के लिए कुछ अन्य विशिष्ट जोखिमें भी हैं. परंपरा से ही हमने एक ऐसी व्यवस्था विकसित कर ली है, जिसमें सरकार में सिविल सर्विस को वरीयता हासिल है, क्योंकि 60 वर्षों की उम्र तक उनका जॉब स्थायी है. प्रायः कई सेवानिवृत्त नौकरशाहों के लिए उसके बाद भी शक्ति के द्वार खुले रहते हैं, जिससे केवल मृत्यु ही उन्हें विलग कर सकती है. यह स्थिति उन्हें अच्छे सलाहकारों की बजाय चाटुकार बना देती है, जो अपने स्वामियों से उन्हें सुखद लगती बातें ही किया करते हैं.
हमारा दुर्भाग्य यह है कि यही लोग हमारी नीतियों के परामर्शदाता बन बैठते हैं. ऐसे में उनकी सलाह का उत्स ही संदिग्ध हो जाता है. पर हमारे राजनेता यह फर्क नहीं कर पाते और खुद को ऐसे ही लोगों से घेर लिया करते हैं. वर्ष 1962 में यही दिखा, जब कोई भी हमारे प्रधानमंत्री को एक विभीषिका की ओर बढ़ते जाने से सावधान करने की हिम्मत नहीं जुटा सका.
ऐसी ही परिस्थितियों में राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए बड़ी जोखिमें पैदा हो जाती हैं. हम देखते आये हैं कि किस तरह एक अरसे में हमारी वायु शक्ति घटिया होती गयी. हमारी वायु सेना के कमांडरों ने विश्व की सर्वश्रेष्ठ वायु सेना के साथ होड़ में यह समस्या और भी जटिल कर दी है, जबकि हमें सिर्फ अपने मकसद की सीमा से ही निर्देशित होना था.
पाकिस्तानी तथा चीनी वायुसेना भारतीय वायुसेना से एक अथवा यहां तक कि दो पीढ़ियां पीछे के विमानों से काम चला रही हैं, जबकि हमारी वायुसेना के कमांडरों की इच्छा है कि उन्हें अमेरिकी एफ-35 जैसे विश्व के सबसे महंगे लड़ाकू विमान मिल जायें.
इसी तरह, हमारे सैन्य कमांडर साजो-सामान को देश में ही विकसित करने के कठिन रास्ते चलने की बजाय उनके आयात कराने को अधिक उन्मुख रहते हैं. हमारी सेना में लगभग सौ से भी ज्यादा अर्जुन टैंकों की तैनाती के बाद भी जब-तब कई कमांडरों के हवाले से ऐसी रिपोर्टें आती ही रहती हैं कि कैसे अर्जुन ने उनकी तैयारी बाधित कर रखी है. इसी तरह, हमारी वायुसेना का एक हिस्सा भी हमेशा से यह मानता आया है कि स्वदेश विकसित हल्के लड़ाकू विमान अपनी तथाकथित कमियों की वजह से नाकाफी हैं.
अलबत्ता, पनडुब्बियां किसी भी जलसेना की तीव्र तथा मारक शक्ति की वाहिका होती हैं. पर दूसरी ओर, पनडुब्बियां किसी भी जोखिम अथवा दुर्घटना से तत्काल तथा निर्णायक रूप से प्रभावित भी होती हैं.
ये पानी के अंदर एक ऐसे हवाबंद डब्बे जैसी होती हैं, एक लघु अग्निज्वाला भी जिसका सीमित ऑक्सीजन भंडार चट कर जाने को काफी होती है. इसके अंदर रिसती किसी विषैली गैस को निकल भगाने के द्वार नहीं होते. एक चोटिल पनडुब्बी को मरम्मतस्थल तक पहुंच पाने का अवकाश नहीं मिलता. एक छोटे छिद्र से पानी का हल्का रिसाव भी इसे सागर की तलहटी में बिठा देने को पर्याप्त होता है.
यही कारण है कि पनडुब्बियों के साजोसामान बदलने की मियाद 12 वर्षों की और उसकी कुल जीवनावधि 24 वर्षों की तय की जाती है. इस आलोक में यह यह अत्यंत चिंताजनक है कि हमारे रक्षा मंत्रालयी नौकरशाही की सुस्त और धीमी निर्णय प्रक्रिया से होकर एक अरसे बाद भी पनडुब्बियों की नयी खेप को आने का मार्ग ही नहीं मिल पा रहा.
अपने आर्थिक आकार और खतरनाक पड़ोसियों की मेहरबानी से एक गरीब राष्ट्र होते हुए भी भारत विश्व के प्रमुख देशों की पांत में जा पड़ा है. हमारी भौगोलिक स्थिति ने भी हम पर कई ऐसी जिम्मेदारियां डाल दी हैं, जिनसे हम अपना मुंह नहीं चुरा सकते.
इसलिए हमें सतह पर अपनी शक्तियां प्रदर्शित करते हुए भी गहराई में सुव्यवस्था और सुरक्षा की शर्तें पूरी करनी ही पड़ेंगी. पर रक्षा मंत्रालय में बैठे नौकरशाह तथा संसद में बैठे शासक क्या कभी यह समझ सकेंगे कि एक सेना हमेशा युद्ध की स्थिति में ही रहती है और उसके सामने नहीं लड़ने का विकल्प खुला नहीं होता?
(अनुवाद: विजय नंदन)
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