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तो कैसे बदले कांग्रेस

II नवीन जोशी II वरिष्ठ पत्रकार naveengjoshi@gmail.com बीते रविवार को संपन्न कांग्रेस महाधिवेशन में पार्टी राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी ने कहा कि कांग्रेस को बदलना होगा. सभागार में पीछे बैठे युवाओं की तरफ इशारा करते हुए उन्होंने कहा कि आप में दुनिया को बदलने की ताकत है. लेकिन आपके और हमारे नेताओं के बीच एक […]

II नवीन जोशी II
वरिष्ठ पत्रकार
naveengjoshi@gmail.com
बीते रविवार को संपन्न कांग्रेस महाधिवेशन में पार्टी राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी ने कहा कि कांग्रेस को बदलना होगा. सभागार में पीछे बैठे युवाओं की तरफ इशारा करते हुए उन्होंने कहा कि आप में दुनिया को बदलने की ताकत है. लेकिन आपके और हमारे नेताओं के बीच एक दीवार है.
मेरा पहला काम इस दीवार को गिराना होगा. कांग्रेस महाधिवेशन का मंच इस बार बदला हुआ था. पहले जहां वरिष्ठ नेता बैठा करते थे, वहां इस बार वक्ता के अलावा पूरा मंच खाली था. राहुल ने कहा- मैं इस मंच को युवाओं और प्रतिभाओं से भरना चाहता हूं. परिवर्तन का यह प्रतीक सुंदर है, लेकिन क्या राहुल कांग्रेस को सचमुच नया अवतार दे पायेंगे? वर्ष 1985 के कांग्रेस शताब्दी अधिवेशन में उनके पिता और तत्कालीन प्रधानमंत्री एवं कांग्रेस अध्यक्ष राजीव गांधी ने भी कहा था कि कांग्रेस को कायाकल्प की जरूरत है. कांग्रेस सत्ता के दलालों की पार्टी बन गयी है. मेरा काम कांग्रेस को इन दलालों से मुक्त करके आम जनता से जोड़ना होगा.
राजीव गांधी कांग्रेस का कायाकल्प नहीं कर पाये थे. इंदिरा गांधी की हत्या के बाद कांग्रेस के सर्वेसर्वा बने राजीव को जनता ने अपार बहुमत दिया था. लेकिन 1987 आते-आते राजीव अलोकप्रिय हो गये. कांग्रेस को बदलने की बजाय राजीव खुद वैसे ही कांग्रेसी बन गये, जिसे बदलने का वे वादा कर रहे थे.
क्या राहुल गांधी अपने वादे के अनुसार वह दीवार गिरा पायेंगे, जो वह मान रहे हैं कि समर्पित कांग्रेसी कार्यकर्ता और नेताओं (आज सबसे बड़े नेता वे ही हैं) के बीच खड़ी हो गयी है? क्या वे सचमुच यह दीवार गिराना चाहते हैं?
वर्ष 2018 की कांग्रेस वही नहीं है, जो अपने जन्म के समय थी या स्वतंत्रता के पश्चात जवाहरलाल नेहरू के समय थी. हर संस्था की तरह कांग्रेस भी बदलती रही है. नेहरू की कांग्रेस वही नहीं थी, जो ह्यूम या गोखले की थी और इंदिरा की कांग्रेस भी नेहरू के दौर की कांग्रेस से बहुत भिन्न थी. कांग्रेस के भीतर नेहरू जैसे कद्दावर नेता को भी चुनौतियां मिलती थीं, तो इंदिरा को भी ‘ओल्ड गार्ड’ से भिड़ कर अपने लिये अलग रास्ता बनाना पड़ा था. सोनिया के समय में भी कांग्रेसियों ने उनके खिलाफ बगावत की थी. राजीव ने भी विद्रोह देखा.
कांग्रेस ने बाहरी यानी विपक्षी चुनौतियां भी खूब झेलीं. साल 1967 के गैर-कांग्रेसवाद से लेकर 1977, 1989 और 1996 के विपक्षी-मोर्चों तक. सत्ता से बाहर होने के बाद हर बार कांग्रेस पूरे जोर से वापस लौटी. बदली वह तब भी, लेकिन बड़े बदलावों की जरूरत उसे न पड़ी थी, क्योंकि कांग्रेस के विपक्षी विकल्प क्षण-भंगुर साबित हुए. उनसे खिन्न होकर जनता कांग्रेस को वापस सत्ता में लाती रही.
कांग्रेस का आज का संकट इन सबसे भिन्न और बड़ा है. पहले कभी कांग्रेस के मुकाबले कोई अखिल भारतीय स्वरूप वाली पार्टी नहीं थी. पहले कांग्रेस को परास्त करनेवाले विभिन्न क्षेत्रीय दल थे, जो उसके खिलाफ कुछ समय के लिए एक हो गये थे. वर्ष 2014 के बाद भाजपा ने क्रमश: अखिल भारतीय स्वरूप ले लिया है. केंद्र में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) सत्तारूढ़ जरूर है, लेकिन भाजपा को अकेले लोक सभा में बहुमत प्राप्त है. सहयोगी दलों के साथ वह देश के 21 राज्यों में सत्तारूढ़ है.
कांग्रेस का आंतरिक संकट और भी बड़ा नजर आता है. जमीनी कार्यकर्ताओं की फौज लगातार कमजोर होती गयी है. उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में तो कांग्रेसी कार्यकर्ता ढूंढे नहीं मिलते. कई प्रभावशाली नेता उपेक्षित होने के कारण दूसरे दलों, विशेषकर भाजपा में चले गये. प्रादेशिक स्तर के कांग्रेसी नेताओं का पार्टी नेतृत्व से सीधा संवाद लगभग नहीं है. पहले सोनिया गांधी और अब राहुल गांधी से मिलना भी आसान नहीं रहा है, संगठन के बारे में खुली चर्चा तो दूर की बात है.
आज राहुल कह रहे हैं कि समर्पित कार्यकर्ता और नेताओं के बीच की दीवार गिराना उनका पहला काम होगा. लेकिन कैसे? वर्ष 2011 में यूपी के भट्टा परसौल के किसान आंदोलन में शामिल होने के लिए वे किसी कार्यकर्ता की मोटर साइकिल पर बैठ कर चले गये थे. इसे छोड़कर उनका कोई व्यवहार आम कार्यकर्ता के साथ संघर्ष करने का नहीं दिखायी दिया है.
पहला बदलाव तो यही दिखना चाहिए कि वे विरोधी दल के नेता के रूप में लड़ना शुरू करें. संघर्ष करने के लिए मुद्दों की कमी नहीं है. देश का युवा वर्ग बेरोजगारी के भयावह दौर का सामना कर रहा है. किसानों की हालत खस्ता है. लगभग हर राज्य में वे आंदोलित हैं.
दलित उत्पीड़न जारी है. महंगाई ने मध्य वर्ग की कमर तोड़ रखी है. बैंक घोटाले सुर्खियों में हैं. नोटबंदी की मार से आम मजदूर-छोटा व्यापारी अब तक उबरा नहीं है. जीएसटी के कार्यान्वयन की गड़बड़ियां व्यापारियों को परेशान किये हैं. समाज का धर्मनिरपेक्ष ढांचा चरमरा रहा है. अल्पसंख्यकों में इतनी असुरक्षा कभी नहीं रही. विरोधी दल को सत्ता के खिलाफ बड़ा आंदोलन खड़ा करने के लिए और कैसी स्थितियां चाहिए?
कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में राहुल कर क्या रहे हैं? वे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर तीखे जुबानी हमले कर रहे हैं, उनके जुमलों के जवाब में जुमले गढ़ रहे हैं. भाजपा को सत्ता हथियाने वाले कौरव और कांग्रेस को सत्य के लिए लड़ने वाले पांडव बता रहे हैं. भाजपा के उग्र हिंदुत्व की काट के लिए मंदिर जाने और जनेऊ पहनने का उदार हिंदू चेहरा बना रहे हैं. इससे कांग्रेस बदलेगी?
राहुल को आत्मचिंतन करना चाहिए कि आंदोलित किसानों की अगुवाई कांग्रेस क्यों नहीं कर पा रही? युवाओं की बेचैनी को आवाज वह क्यों नहीं दे पा रही?
इस देश के जिस धर्म-निरपेक्ष स्वरूप की रक्षा के लिए वह जानी जाती रही है, उसके लिए भरोसे के साथ लड़ क्यों नहीं पा रही? वामपंथियों से खाली होती जगह वह क्यों नहीं ले पा रही? कांग्रेस को बदलने की जरूरत आज सबसे ज्यादा है. अपना अस्तित्व बचाने के लिए ही नहीं, भाजपा के खिलाफ एक सशक्त विरोधी पक्ष की उपस्थिति के लिए भी. इसलिए और भी ज्यादा कि संविधान का सम्मान बचा रहे.
प्रख्यात संपादक राजेंद्र माथुर ने 1989 में एक लेख में कामना की थी कि कांग्रेस में इतनी शक्ति आ जाये कि वह राजीव गांधी के अलावा किसी और को अपना नेता चुन सके. क्या आज भी यह कामना की जा सकती है कि कांग्रेस राहुल गांधी के अलावा कोई और नेता चुनने का साहस दिखा सके? बदले, तो कांग्रेस इस तरह बदले.

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