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अस्मिता की राजनीति से परे

II मनींद्र नाथ ठाकुर II एसोसिएट प्रोफेसर, जेएनयू manindrat@gmail.com भारतीय जनतंत्र में अस्मिता की राजनीति का प्रभाव काफी समय से रहा है. पिछले कुछ वर्षों में ऐसा लगने लगा था कि शायद इसका युग अब समाप्त हो जायेगा. लेकिन अब इसके विकृत रूप के उभार की संभावनाएं बढ़ती दिख रही हैं. बिहार-बंगाल में दंगे, राजपूती […]

II मनींद्र नाथ ठाकुर II

एसोसिएट प्रोफेसर, जेएनयू

manindrat@gmail.com

भारतीय जनतंत्र में अस्मिता की राजनीति का प्रभाव काफी समय से रहा है. पिछले कुछ वर्षों में ऐसा लगने लगा था कि शायद इसका युग अब समाप्त हो जायेगा. लेकिन अब इसके विकृत रूप के उभार की संभावनाएं बढ़ती दिख रही हैं.

बिहार-बंगाल में दंगे, राजपूती शान के नाम पर पद्मावत फिल्म के खिलाफ राष्ट्रव्यापी आंदोलन, आरक्षण के लिए विभिन्न जातियों का आंदोलन, दलितों का राष्ट्रव्यापी बंद और राष्ट्रवाद व धर्म के नाम पर चुनाव के लिए गोलबंदी; ये सब प्रमाण हैं कि अस्मिता की राजनीति के नये युग का सूत्रपात हो रहा है.

इस बार की खास बात यह कि कोई भी आंदोलन शांतिपूर्ण नहीं है. समाज की विकृतियां सामने आ रही हैं. अस्मिता पर आधारित राजनीति का स्वरूप बदल रहा है, उसमें भी हिंसा का अंश बढ़ रहा है. यह एक खतरनाक भविष्य की ओर इंगित कर रहा है. हमें सोचना होगा.

ऐसा हो क्यों रहा है? इसका एक कारण तो यह है कि हमने अस्मिताओं की राजनीति को ठीक से समझा नहीं और सोचा कि शायद आधुनिकता की आगोश में अस्मिता खत्म हो जायेगी और हम सब बराबर के नागरिक बन जायेंगे.

हमारे देश में इस काम को आगे बढ़ाने का दायित्व राज्य और सरकार का था. आजादी के शुरुआती दिनों में राज्य ने अपना दायित्व बखूबी निभाया. जब से राज्य ने नयी आर्थिक नीति अपनायी है, इसका स्वरूप बदल गया है. हम समझते रहे कि इस नयी नीति से देश का विकास होगा, नौकरियां बढ़ेंगी, रोजगार बढ़ेगा, लोगों की जिंदगी बेहतर होगी. लेकिन, हुआ ठीक इसके विपरीत. कुछ लोग ज्यादा धनी जरूर हो गये, लेकिन आम लोगों को मिला केवल सपना. इसी बीच नयी नीति से बने आर्थिक संसार में फिर से संकट आ गया और यह संकट और गहरा हो गया.

अब आम आदमी उस टूटे सपने को जोड़ने की कोशिश में कभी इधर, कभी उधर भटक रहा है. कभी एक दल के विकास के सपने को खरीदता है, कभी दूसरे के. उसे हर बार केवल धोखा हाथ लगता है. इसके खिलाफ आंदोलन शुरू होता है, सरकार बदलती है और फिर नया आंदोलन शुरू होता है. दशकों से भारत में यही सिलसिला चल रहा है.

अस्मिता की राजनीति में आया बदलाव इस सिलसिले की अगली कड़ी है. ऐसा लगता है कि सरकारें लोगों की उम्मीदों पर जितनी ही फेल होंगी, अस्मिता का उन्माद उतना ही बढ़ेगा. यह दो कारणों से निश्चित है.

एक तो भारतीय पूंजीपति वर्ग इन पार्टियों को सरकार बनाने में मदद करते हैं और उस मदद के बदले अपने फायदे की नीतियां बनवाते हैं.

चुनाव में पैसे का खेल जितना ही बढ़ता जायेगा, यह संबंध पुख्ता होता जायेगा. आंदोलनों से निकलकर आनेवाले राजनीतिक नेतृत्व भी इस बात को समझ जाते हैं कि यदि लुटियन दिल्ली के क्लब में रहना है, तो जनहित से ज्यादा इस राजनीति के अनैतिक नीतियों को ही अपनाना है. फिर शुरू होता है माफी मांगने की राजनीति, धनबल और जनबल जमा करने का प्रयास. इस प्रयास में साम, दाम, दंड भेद सब नैतिक हो जाता है.

इस राजनीतिक वर्ग में हमारे सपनों को पूरा करने की न तो क्षमता है और न ही मंशा. ऐसे में पूंजी के नये संकट के समाधान के उपायों ने नयी समस्या खड़ी कर दी है. इसके समाधान के लिए पूंजीपतियों को लोक कल्याणकारी राज्य की ओर वापस लौटने की जरूरत नहीं है. आगामी समय में तकनीकी सहायता से वे इससे निबटेंगे. आकलन है कि पचास प्रतिशत से ज्यादा लोग बेरोजगार हो जायेंगे. राज्य लोगों को न्यूनतम आमदनी देकर पिंड छुड़ा लेगा.

पूंजीपति देश अधिकतम पूंजी को रक्षा उद्योग में झोंककर अपना उत्पादन बढ़ायेंगे और उन्हें हमें बेचकर फायदा कमायेंगे. इस तरह वे अपना आर्थिक संकट दूर कर लेंगे. लेकिन हमारा क्या होगा? हमारा राज्य अपनी लोक कल्याणकारी नीतियों से पैसे निकालकर रक्षा सामग्री खरीदेगा. शिक्षा, स्वास्थ्य, रेल, सब बाजार को बेच दिया जायेगा. यह सब आम आदमी की पहुंच से दूर हो जायेगा.

उम्मीद है कि लोग भी चुप नहीं रहेंगे. उनका गुस्सा विभिन्न रूपों में फूटेगा. कभी घरेलू हिंसा में, कभी अस्मिता के हिंसा में और कभी आत्महत्या में. राज्य को इन सबसे कोई फर्क नहीं पड़ेगा. उसकी चिंता केवल एक ही है कि यह गुस्सा कहीं राज्य के खिलाफ न हो जाये.

इसलिए संभव है कि राज्य खुद ही ऐसी हिंसा को बढ़ावा दे. राजनीतिक वर्ग अपने स्वार्थ में लिप्त होगा. नये नेता उभरेंगे. जो अस्मिता की राजनीति करेंगे, उन्हें मीडिया और सरकार पुरस्कृत करेगी और जो व्यवस्था परिवर्तन की बात करेंगे, वे प्रताड़ित किये जायेंगे. यही हमारा भविष्य है. जनतंत्र, चुनाव, संविधान सब कुछ यही रहेगा, लेकिन अंदर से यह बदलाव चलता रहेगा.

क्या इससे बचने का कोई उपाय है? पहली बात तो बचाव के लिए राज्य से हम उम्मीद छोड़ ही दें, क्योंकि यह उसका ही प्रपंच है. इससे बचने के लिए जनता को ही आगे आना पड़ेगा. अस्मिता समूहों में संवाद शामिल करना पड़ेगा.

न्यायपूर्ण तरीके से अपने मतभेदों को दूर कर असली मुद्दों पर ध्यान देना होगा. नव उदारवादी मानसिकता से बाहर निकलकर जीवन के उद्देश्यों को फिर से गढ़ना होगा, नये सपने संजोने होंगे, जिन सपनों को हमें बेचकर इस प्रपंच में धकेला गया है, उसे सिरे से खारिज करना होगा. शिक्षा और स्वास्थ्य के लिए राज्य से इतर नये प्रयोग करने होंगे.

यह कोई नयी बात नहीं है. उपनिवेशवाद के खिलाफ लड़ाई में हम ये सब पहले भी कर चुके हैं. बस इस नयी परिस्थिति को समझकर रचनात्मक तरीके से रास्ता खोजना होगा. जनतंत्र में नये प्रयोग करने होंगे, ताकि भारत को स्वतंत्रता, समानता और भाईचारा के आधार पर आगे बढ़ाया जा सके.

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