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आदिवासियों के धर्म का मुद्दा

II डॉ अनुज लुगुन II सहायक प्रोफेसर, दक्षिण बिहार केंद्रीय विवि, गया anujlugun@cub.ac.in कुछ दिन पहले राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित, पद्मश्री सोनाम त्सरिंग लेपचा से साथियों के साथ कलिंगपोंग में मेरी लंबी मुलाकात हुई थी. वे लेपचा आदिवासी समुदाय के महान लोक संगीतकार हैं. उन्हें एक साथ आदिवासी दार्शनिक, इतिहासकार और पुरातत्ववेत्ता कहा जा सकता […]

II डॉ अनुज लुगुन II
सहायक प्रोफेसर, दक्षिण बिहार केंद्रीय विवि, गया
anujlugun@cub.ac.in
कुछ दिन पहले राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित, पद्मश्री सोनाम त्सरिंग लेपचा से साथियों के साथ कलिंगपोंग में मेरी लंबी मुलाकात हुई थी. वे लेपचा आदिवासी समुदाय के महान लोक संगीतकार हैं. उन्हें एक साथ आदिवासी दार्शनिक, इतिहासकार और पुरातत्ववेत्ता कहा जा सकता है.
वे 93 वर्ष के हैं और संभवतः अखिल भारतीय स्तर पर जीवित अकेले आदिवासी विद्वान हैं. उन्होंने लेपचाओं के बारे में बताते हुए कहा कि वे सिक्किम के मूल आदिवासी हैं और कंचनजंगा पर्वत लेपचाओं के लिए सबसे पवित्र स्थान है. वे उसकी पूजा करते हैं. उनके लोकगीतों में कंचनजंगा से निवेदन, प्रार्थना और आराधना के बहुतायत गीत हैं.
इसी तरह उड़ीसा के नियमगिरि के कोंध आदिवासी ‘नियमराजा’ को अपना देवता मानते हैं. नियमगिरि पर्वत शृंखला है. कोंध आदिवासी मानते हैं कि वह उनके जीवन का आधार है. इसके लिए उन्होंने बहुराष्ट्रीय कंपनी वेदांता के विरुद्ध बड़ी लड़ाई भी लड़ी है.
ऐसे ही झारखंड के आदिवासी ‘बुरु’ (पहाड़) की पूजा करते हैं. बुरु बोंगा, मरंग बुरु आदि ऐसे ही विचार हैं. इस तरह की आध्यत्मिक पद्धतियां दुनियाभर के आदिवासी समुदायों में मिलती हैं.
आदिवासी आध्यात्मिकता प्रकृति से गहरे जुड़ाव पर आधारित है. यहां कंक्रीट के ढांचों में ईश्वर की परिकल्पना नहीं है और न ही पोथियों से उनका संचालन होता है. समाजशास्त्री इसे धर्म की आदिम प्रवृत्ति मानते हैं. वीर भारत तलवार का मानना है कि आदिवासी समाज में धर्म का विकास सामंती संस्थाओं के रूप में नहीं हुआ. इस वजह से उनके वहां नैसर्गिकता है. आदिवासी धर्म की इन्हीं विशेषताओं को एक रूप देने के लिए सबसे पहला प्रयास डॉ रामदयाल मुंडा ने ‘आदि धरम’ के रूप में किया है.
‘आदि धरम’ का विचार विभिन्न आदिवासी समुदायों के एकीकरण का सांस्कृतिक प्रयास है. पहाड़ से लेकर प्लेन तक के आदिवासियों की धार्मिक मान्यताएं इस मायने में समान हैं कि उनका प्रकृति से सहजीवीपन और नैसर्गिकता एक जैसा है. चाहे कंचनजंगा हो, नियमराजा हो, बुरु हो या अन्य.
आदिवासी समुदाय देश के विभिन्न हिस्सों में अलग-अलग स्थितियों में रहते हैं. इससे आम तौर पर यह धारणा बना ली जाती है कि वे एक-दूसरे से बिल्कुल भिन्न हैं.
इससे आदिवासी समुदाय को उचित तरीके से परिभाषित नहीं किया जा सका है. भारत सरकार ने ‘अनुसूचित जनजाति’ को संवैधानिक आधार पर परिभाषित तो किया है, लेकिन ‘आदिवासी’ को नहीं. इन दो महत्वपूर्ण वजहों से बहुसंख्यक व बहुप्रभावी धर्म-समाज के लोग आदिवासियों का इस्तेमाल उपनिवेश की तरह करते हैं.
हमारे देश में एक ओर आदिवासी समाज के बीच ईसाई धर्म की गहरी पैठ है, तो दूसरी ओर हिंदूवादी उन्हें अपने दायरे में रखना चाहते हैं और ऐसे ही अन्य धर्मावलंबी भी. इसके होड़ ने आदिवासियों की मूल पहचान पर प्रश्नचिह्न खड़ा कर दिया है. हर कोई आदिवासी धर्म और आध्यात्मिकता की अपनी व्याख्या प्रस्तुत करना चाहता है.
सवाल है कि आदिवासी धर्म की व्याख्या क्या होगी और कौन करेगा?
सोनाम त्सरिंग लेपचा ने भी ठीक वही बात कही, जो डॉ रामदयाल मुंडा अपनी पुस्तक ‘आदि धरम’ में कहते हैं कि आदिवासियों में स्वर्ग-नरक जैसी पारलौकिक कल्पना नहीं है. आदिवासी परलोक की इच्छा के साथ जीवन नहीं जीते, इसलिए उनके यहां उत्सवधर्मिता एवं जीवनराग अपेक्षाकृत दूसरों से भिन्न और बेहतर है.
लेकिन, बाहरी अतिक्रमण ने आदिवासियों की मूल आध्यात्मिक पहचान को अस्पष्ट और भ्रमित कर दिया है. अब राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं आदिवासी अस्मिता के लिए संकट पैदा कर रही हैं. खासतौर पर यह आदिवासियों के ईसाई और हिंदू धार्मिक रूप को लेकर हो रहा है. ईसाई धर्म पर सबसे ज्यादा आदिवासियों को धर्मांतरित करने का आरोप लगाया जाता है.
इस मुद्दे पर झारखंड में धर्मांतरण अधिनियम भी बना है, लेकिन वास्तविकता का एक कड़वा पक्ष यह भी है कि ‘सरना सनातन’ जैसी योजनाओं के जरिये तेजी से आदिवासियों का हिंदूकरण हो रहा है. यह मौलिक आदिवासी आध्यात्मिकता और आकांक्षाओं का हनन है. अब इस बात की अनुगूंज भी राजनीतिक रूप में सुनायी दे रही है कि ईसाई धर्मांतरित आदिवासियों को आरक्षण का लाभ दिया जाये या नहीं.
ईसाई आदिवासियों को आरक्षण न देने की योजना गहरी सांस्कृतिक राजनीति से प्रेरित है. यह संविधान में निहित मौलिक अधिकार के विरुद्ध है. खासकर झारखंड में आदिवासी समुदाय की दो धार्मिक स्थितियां हैं- एक, सरना आदिवासी समुदाय, जो अपने पुराने पुरखा विधानों को मानते हैं. दूसरे, ईसाई धर्मांतरित आदिवासी समुदाय. दोनों की धार्मिक स्थितियों में सेंध लगाने की राजनीतिक कोशिश होती है.
आमतौर पर ईसाई वोटर भाजपा के विरुद्ध जाते हैं. अब भाजपा सरना आदिवासियों को अपने पक्ष में गोलबंद करना चाहती है. इसके लिए वह सांस्कृतिक आधार तैयार कर रही है. वह 2019 के लोकसभा चुनाव को साधने की दिशा में है.
ईसाई आदिवासी और सरना आदिवासी का झगड़ा बेबुनियाद है. यह झगड़ा राजनीतिक दल खड़ा करते हैं, साथ ही धर्म प्रचारक और पुरोहित भी. शुरुआती दिनों में ईसाई धर्म प्रचारकों ने अपने महिमामंडन में सरना आदिवासियों की आध्यात्मिकता के बारे में यह हेय विचार फैलाया कि वे ‘भूत’ पालते हैं और उसकी पूजा करते हैं. एक बड़ा मुद्दा शादी-विवाह और संस्कार का भी है, जिसे समान धर्म के न होने पर आदिवासी होते हुए भी पुरोहित मान्यता नहीं देते. जबकि ऐसा विभाजन आदिवासी समुदाय नहीं मानते.
उनकी जीवन शैली, दर्शन, व्यवहार और मनोविज्ञान एक जैसा है, चाहे वे किसी भी धर्म के अनुयायी हों. राजनीतिक और धार्मिक प्रचारकों का हित आदिवासी समुदायों के बंटवारे से ही सध सकता है, इस बात को आदिवासियों को समझना होगा. बांटकर ही उन्हें उनकी जमीन से बेदखल किया जा सकता है.
धर्म आज व्यक्ति की सांस्कृतिक पहचान का आधार बन चुका है. ऐसे में आदिवासी समुदायों को धर्मविहीन बनाये रखना उनकी सांस्कृतिक पहचान के विरुद्ध है.
यदि राजनीतिक दलों को आदिवासी अस्मिता की चिंता है, तो क्या वे अखिल भारतीय स्तर पर उन्हें धार्मिक-आध्यात्मिक पहचान दे सकते हैं, जैसा आदिवासी चाहते हैं? सरकार किसी की हो, क्या उन्हें मौलिक धर्म कोड दे सकती है? सवाल कठिन है, क्योंकि सारे दल अपने-अपने वोट बैंक के लिहाज से चलते हैं.

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