प्रो पुष्पेश पंत
अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार
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जब से जम्मू-कश्मीर राज्य का प्रशासनिक ढांचा बदला है और वहां दहशतगर्दों की कमर तोड़ने के लिए भारत ने जबरदस्त अभियान छेड़ा है, तभी से पाकिस्तान बौखलाया हुआ है. राजनयिक मोर्चे पर लगभग हर जगह भारत ने उसे शिकस्त दी है और भारतीय सेना और वायुसेना की जवाबी कार्रवाई का मुकाबला करने में भी पाकिस्तान असमर्थ रहा है.
सिर्फ चीन ही अकेला ऐसा देश है, जिस पर पाकिस्तान का भरोसा बचा है. सऊदी अरब, खाड़ी के अमीरात देश और अमेरिका आदि ने उसे भारत के साथ कश्मीर विवाद को उभयपक्षीय संवाद से लौटाने की सलाह दी है. तब भी भारत के लिए यह सोचना नादानी होगी कि भविष्य में पाकिस्तान उसके लिए कोई जटिल समस्या खड़ी नहीं करेगा.
शुरू में पाकिस्तान ने अपनी लाचार खिसियाहट मिटाने के लिए कुछ ओछी हरकतें की, लेकिन सब नाकाम ही साबित हुईं. समय बीतने के साथ और अभी तक कश्मीर घाटी में स्थिति के पूर्णतः सामान्य न होने के कारण अमेरिका और यूरोपीय समुदाय के कुछ देशों द्वारा इस मुद्दे पर भारत को दिया समर्थन क्रमशः क्षीण होता नजर आ रहा है.
हालांकि, ट्रंप ने यह टिप्पणी करना आरंभ कर दिया है कि कश्मीर में एक मानवीय समस्या है, जिसका समाधान तत्काल होना चाहिए. ब्रिटेन के विपक्षी नेता कॉर्बिन आरंभ से ही पाकिस्तान की हिमायत करते रहे हैं. निश्चय ही भारत इस बारे में सतर्क है, पर यह पाकिस्तान वाली गुत्थी कहीं और उलझती नजर आ रही है.
तुर्की के राष्ट्रपति एर्दोगान ने स्वयं संकटग्रस्त होने के बावजूद पाकिस्तान का साथ देना ठीक समझा. विडंबना यह है कि हाल के वर्षों में एर्दोगान की तानाशाही और इस्लामी कट्टरपंथी को प्रोत्साहन देनेवाली भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी पाक सरकार के साथ रिश्ते और घनिष्ठ करने का प्रयास हुआ है.
हाल के वर्षों में भारत से तुर्की को निर्यात बढ़ा है, और ऐतिहासिक सांस्कृतिक संबंधों के बहाने पर्यटन को भी बढ़ावा देने का प्रयास किया गया है. भारत सरकार ने फिलहाल तुर्की के पाकिस्तान-समर्थन को ध्यान में रखते हुए उसके साथ निर्यात में कटौती की घोषणा की है. यह देखने लायक रहेगा कि सीरिया से अमेरिकी फौजों के हटाये जाने के बाद वहां कुर्दों पर जो वंशनाशक हमले एर्दोगान ने शुरू किये हैं, उनके साथ चलते हुए भारत से सैनिक साजो-सामन के निर्यात पर कटौती उनकी स्थिति को और कितना संकटग्रस्त करेगी?
पाकिस्तान के कारण दक्षिण-पूर्व एशिया के एक और प्रमुख देश मलेशिया के साथ भारत के संबंधों में खटास बढ़ी है. मलेशिया राष्ट्रकुल का सदस्य है और भारत के साथ उसके पारंपरिक संबंध बहुत मैत्रीपूर्ण रहे हैं.
मलेशिया के वर्तमान प्रधानमंत्री महातिर मुहम्मद ने मलय नस्लवादी कट्टरपंथी को अपना अस्त्र बनाया, जिसमें इस्लामी पहचान भी शामिल थी. मलेशिया को ब्रिटेन का पूर्व उपनिवेश होने के कारण पिछले तीन-चार दशकों में भारत उसे अपने जैसा समझने का भ्रम पालता रहा है. हालांकि, उस दौरान मलेशिया का सार्वजनिक जीवन वहाबी इस्लाम के प्रभाव में कट्टरपंथी होता गया है.
एक बात जो विचित्र लगती है, वह यह है कि भारत दुनिया में पाम ऑयल का सबसे बड़ा निर्यातक है और इस तेल का सबसे बड़ा ग्राहक भारत ही है. पाम ऑयल वनस्पति तेल बनाने के काम में लायी जानेवाली प्रमुख सामग्री है.
मलेशिया के रवैये से खिन्न भारत को यह फैसला लेने पर मजबूर होना पड़ा है कि मलेशिया से पाम ऑयल के आयात पर तत्काल रोक लगायी जाये और अपनी जरूरत की पूर्ति के लिए दक्षिण-पूर्व एशिया में ही इंडोनेशिया जैसे विकल्पों की तलाश की जाये. नब्बे वर्ष की दहलीज पार कर चुके मलेशिया के प्रधानमंत्री महातिर जिद्दी स्वभाव के हैं और उन्होंने बड़े अहंकार के साथ यह ऐलान किया है कि मलेशिया अपनी कही बात से मुकरता नहीं. दूसरे शब्दों में, उन्होंने भारत को यह जतला दिया है कि वह उसके साथ उभयपक्षीय आर्थिक संबंधों को महत्वूर्ण नहीं समझते.
भारत के लिए यह बात समझना बेहद महत्वपूर्ण है कि यह चुनौती मलेशिया तक ही सीमित नहीं. इंडोनेशिया में दुनिया के मुसलमानों की सबसे बड़ी आबादी है और भले ही वहां अभी मलेशिया जैसी इस्लामी कट्टरपंथी का प्रसार नहीं हुआ है, पर वहां भी जेहादी जहर पहुंच चुका है. इंडोनेशिया की कोई भी सरकार बहुसंख्यक मतदाता को नाराज करने का खतरा नहीं उठा सकती.
भले ही हम मलेशिया को सबक सिखाने के लिए इंडोनेशिया से पाम ऑयल आयात कर सकते हैं, पर हमें यह मानकर नहीं चलना चाहिए कि दक्षिण-पूर्व एशिया में मुसलमान बहुल आबादी वाले देश देर-सवेर पाकिस्तान के प्रति प्रत्यक्ष या परोक्ष समर्थन नहीं करेंगे. हमारी सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि हमारा राजनय सांप्रदायिक स्वर मुखर नहीं कर सकता. पाकिस्तान इसी कमजोरी का लाभ उठाने की कोशिश करता रहेगा. चीन के साथ हमारे संबंधों में आनेवाले उतार-चढ़ाव को संतुलित करने के लिए अब तक हम दक्षिण एशियाई मित्रों को सामरिक प्रमुखता देते रहे हैं.
मलेशिया के अनुभव के बाद हमें इस बारे में दूरदर्शिता के साथ पुनर्विचार की जरूरत है. हमें यह बात समझ नहीं आती कि क्यों और कैसे आकार और क्षमता में भारत की तुलना में नगण्य मलेशिया हमें तरेर कर आंखे दिखाने का दुस्साहस करता है. हमारी कोई विवशता मलेशिया के तुष्टिकरण की नहीं.