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जम्मू-कश्मीर की बदलती राजनीति

जम्मू-कश्मीर में अगले वर्ष जनवरी तक नयी विधानसभा का गठन होना है, लेकिन अब इसकी संभावना नहीं लग रही है. भारत में एक अपवाद के रूप में और चूंकि इसका अलग संविधान है, राज्य में पांच वर्ष के बजाय छह वर्षों में चुनाव होता है. यहां पिछला चुनाव 2008 में हुआ था और अगला चुनाव […]

जम्मू-कश्मीर में अगले वर्ष जनवरी तक नयी विधानसभा का गठन होना है, लेकिन अब इसकी संभावना नहीं लग रही है. भारत में एक अपवाद के रूप में और चूंकि इसका अलग संविधान है, राज्य में पांच वर्ष के बजाय छह वर्षों में चुनाव होता है. यहां पिछला चुनाव 2008 में हुआ था और अगला चुनाव आगामी कुछ महीनों में होना चाहिए. परंतु, इस सप्ताह राज्य की तैयारियों का जायजा लेने जा रही निर्वाचन आयोग की टीम ने अपनी यात्रा रद्द कर दी है.

राज्य में आयी भीषण बाढ़ और बचाव कार्य की कठिनाइयों के कारण प्रशासन कई सप्ताह तक आपदा राहत में व्यस्त रहेगा. उसके बाद ठंड का मौसम आ जायेगा, जिसके कारण वहां काम कर पाना और राज्य के कई हिस्सों में पहुंच पाना थोड़ा मुश्किल हो जायेगा. ऐसे में सबसे अधिक संभावना यह है कि जम्मू-कश्मीर में कुछ महीनों के लिए राज्यपाल के हाथ में प्रशासन रहेगा और 2015 में वसंत या गर्मी के शुरू में चुनाव होंगे.

तकरीबन 20 वर्षों से कश्मीर में नियमित रूप से चुनाव हो रहे हैं. इस अवधि के प्रारंभिक वर्षों में सेना द्वारा लोगों से जबरदस्ती मतदान कराये जाने की ढेरों शिकायतें मिली थीं और भारतीय मीडिया का इनके प्रति रुख आम तौर पर सहानुभूतिपूर्ण था. पिछले कुछ वर्षों से ऐसी शिकायतें आनी बंद हो गयी हैं.

विधानसभा चुनाव में मतदान करनेवाले कश्मीरियों की संख्या 1996 में 54 फीसदी, 2002 में 43 फीसदी और 2008 में 61 फीसदी थी. आम तौर पर कहा जा सकता है कि कश्मीरी मतदाताओं ने लोकतांत्रिक प्रक्रिया की वैधानिकता को स्वीकार कर लिया है. हालांकि, घाटी में ऐसे हिस्से हैं, जिनके निवासी खिन्न हैं और वे चुनावों को अवैध ठहराने की पुरजोर कोशिश करते हैं, लेकिन ये यत्र-तत्र बिखरे पडे़ हैं और लगातार सिकुड़ते जा रहे हैं.

घाटी में लोकतंत्र का विस्तार आतंकी गतिविधियों में कमी के साथ हुआ, विशेष रूप से 2002 के बाद जब भारतीय संसद पर हमले के बाद पाकिस्तान के राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफने लश्कर-ए-तैयबा और जैश-ए-मुहम्मद को प्रतिबंधित कर दिया था. 2002 के चुनाव में मतदान में आयी कमी का कारण यह तथ्य हो सकता है कि 2001 कश्मीर के इतिहास का सबसे हिंसक वर्ष था. उस वर्ष कुल 4,507 लोग मारे गये थे, जिनमें लगभग 600 सैनिक भी थे. इसका मतलब यह है कि तब सेना और आतंकियों में खूब मुठभेड़ें हुई थीं. 2002 में मृतकों की संख्या 3,022 हो गयी थी और तब से इसमें लगातार गिरावट हो रही है.

अलगाववादी हिंसा के लिए समर्थन कमोबेश खत्म हो चुका है और कश्मीर में 2011 के बाद से किसी भी वर्ष 200 से अधिक मौतें नहीं हुई हैं. इसके पहले दो दशकों में यह संख्या प्रति वर्ष हजारों में होती थी. कुछ वर्ष पहले विधान परिषद् (इसके लिए अप्रत्यक्ष चुनाव होता है) के चुनाव में बहिष्कार की घोषणा के बावजूद 90 फीसदी प्रतिनिधि सामने आये थे. यह अब मान लिया जाना चाहिए कि चुनाव बहिष्कार के जरिये आजादी हासिल करने की हुर्रियत कॉन्फ्रेंस की रणनीति प्रभावी नहीं है. इस संगठन को चुनावों में हिस्सेदारी के बारे में विचार करना चाहिए, क्योंकि यह निश्चित है कि घाटी में इसका प्रदर्शन बहुत अच्छा रहेगा.

राज्य में किसी पार्टी का वर्चस्व नहीं है और आंकडे़ इस बात की पुष्टि करते हैं. 2008 में 64 लाख मतदाताओं में से 40 लाख लोगों ने मतदान किया था. नेशनल कॉन्फ्रेंस ने 23 फीसदी मतों के साथ 28 सीटों पर और पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी ने 15 फीसदी मतों के साथ 21 सीटों पर जीत दर्ज की थी. राष्ट्रीय पार्टियों में कांग्रेस ने 17 फीसदी मत के साथ 17 सीटें और भारतीय जनता पार्टी ने 12 फीसदी मत के साथ 11 सीटें हासिल की थीं. अगर हुर्रियत मैदान में उतरती है, तो वह आजादी के नारे पर अच्छी-खासी सीटें जीत सकती है. इसका कारण यह है कि वहां भले ही मतदान में बढ़ोतरी हुई है, पर इसका मतलब यह नहीं है कि घाटी के कश्मीरी अचानक भारत से प्रेम करने लगे हैं.

2013 में श्रीनगर यात्रा के दौरान मैंने पाया कि शहर में लगभग दो दर्जन उर्दू अखबार निकलते हैं. मैंने अन्यत्र इतने संस्करण प्रकाशित होते नहीं देखा है. मुंबई मिरर के संवाददाता अनिल रैना, जो खुद कश्मीरी हैं और प्रशासन में उनके बहुत संपर्क हैं, से इतने दैनिक समाचार-पत्रों के प्रकाशन का कारण पूछा. रैना ने बताया कि ये सारे अखबार गृह मंत्रालय से प्रायोजित हैं. उनका मतलब दिल्ली स्थित केंद्रीय गृह मंत्रालय से था, जो खबरों को अपने पक्ष में रखने की कोशिश करता है.

आमतौर पर यह एक असफल प्रयास है. उस दौरान भारत ने एक मैच में पाकिस्तान को हराया था और मैंने देखा कि ज्यादातर अखबारों ने क्रिकेट की खबर का शीर्षक पाकिस्तान को शिकस्त लगाया था, न कि भारत की जीत. अखबारों में पाकिस्तान के प्रति खूब दिलचस्पी दिख रही थी. निदा-ए-मशरिक नामक अखबार के खेल पन्ने पर शाहिद अफरीदी पर दो खबरें, पाकिस्तान क्रिकेट बोर्ड पर एक लेख, पाक गेंदबाज मोहम्मद आसिफ की जीवनी पर आधारित एक लेख और पाकिस्तान की विजेता हॉकी टीम पर एक रपट छापी थी. इसमें भारत से संबंधित कोई खबर नहीं थी.

भारतीय जनता पार्टी का मानना है कि इस बार राज्य में सरकार बनाने या सरकार गठन में सहयोग करने का अच्छा मौका है. उसे कांग्रेस की कीमत पर जम्मू की अधिकतर सीटें जीतने की पूरी उम्मीद है और संभवत: उसकी यह उम्मीद पूरी भी हो सकती है. कुछ दिन पहले अंगरेजी दैनिक डीएनए ने लिखा था कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की योजना बाढ़ के इस संकट को पार्टी के लिए एक अवसर में बदल देने की है और उन्हें गुजरात में आये 2002 के भूकंप के बाद पुनर्वास कार्य करने का अनुभव भी है.

प्रधानमंत्री कार्यालय में पीके मिश्रा अतिरिक्त प्रधान सचिव के रूप में उनके पास एक अधिकारी हैं, जो आपदा प्रबंधन में विशेषज्ञ हैं. उन्होंने भाजपा की कश्मीर इकाई के एक प्रतिनिधिमंडल को बताया कि वे स्मार्ट गांव व कस्बे बनाने तथा विलुप्त हो गये जल-स्रोतों की पुनर्सज्जा पर विचार कर रहे हैं. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को ऐसी चीजों से संबंधित दशकों का अनुभव है और यह देखना दिलचस्प होगा कि भाजपा इसे किस हद तक अपने पक्ष में भुना पाने में सफल होती है. यह देखना भी दिलचस्प होगा कि हुर्रियत या उसका कोई धड़ा क्या अंतत: अपने आंदोलन को लोकतांत्रिक मंच पर लेकर आयेगा!

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