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सरकार की अस्थिर विदेश नीति

कहने की बात नहीं है कि राष्ट्रीय सुरक्षा के मामले में समूचे देश को एक होकर हमारी सशस्त्र सेना को पूरा समर्थन देना चाहिए. लेकिन, जब यह कहा जा रहा है, तब नरेंद्र मोदी को कुछ मसलों पर गंभीरता से विचार करना चाहिए.क्या वे पहले व्यक्ति नहीं थे, जिन्होंने विदेश नीति का राजनीतीकरण किया था, […]

कहने की बात नहीं है कि राष्ट्रीय सुरक्षा के मामले में समूचे देश को एक होकर हमारी सशस्त्र सेना को पूरा समर्थन देना चाहिए. लेकिन, जब यह कहा जा रहा है, तब नरेंद्र मोदी को कुछ मसलों पर गंभीरता से विचार करना चाहिए.क्या वे पहले व्यक्ति नहीं थे, जिन्होंने विदेश नीति का राजनीतीकरण किया था, जब पाकिस्तान हमारे सैनिकों के सिर काट रहा था? अगर वे तब सरकार की आलोचना कर सकते थे, तो अब वे आलोचना से परे कैसे हो सकते हैं?
पाकिस्तान से लगी हमारी सीमा पर अघोषित युद्ध की स्थिति है. पाकिस्तान द्वारा युद्ध विराम के गंभीर उल्लंघन की पहले कभी-कभार की जानेवाली घटनाएं पिछले तीन महीनों से सघन हो गयी हैं और ज्यादा इलाकों में फैल गयी हैं.
न सिर्फ रात के अंधेरे में, बल्कि दिनदहाड़े भी बस्तियों पर गोलाबारी हो रही है, जिसमें जान-माल की भारी क्षति हो रही है. ऐसे में अहम सवाल यह है कि हमारे प्रधानमंत्री के शपथ-ग्रहण समारोह में शामिल होने के लिए पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को आमंत्रित करने से शुरू हुआ सौहार्दपूर्ण संबंध थोड़े समय में ही इस कदर बिगड़ कैसे गया?
काफी हद तक इस सवाल का जवाब दोनों देशों की आंतरिक परिस्थितियों में निहित है. भारत में नीतियों को लेकर ऊहापोह की स्थिति है, जिससे पाकिस्तान के कट्टरवादी तत्वों को हौसला मिला है. पहले हमने ऐसे मौकों के लिए जरूरी रणनीतिक तैयारी के बिना नवाज शरीफ को बुलाया, फिर हमने नवाज शरीफ के यहां रहते उनकी कश्मीर-नीति की आलोचना की, जबकि उन्होंने नयी सरकार के कार्यभार संभालने के विशेष अवसर का सम्मान करते हुए इस मसले पर कोई बात तक नहीं की थी.
हमारे इस रवैये ने पाकिस्तान के हर राजनीतिक खेमे को उन पर ‘भारत के आगे समर्पण करने’ का आरोप लगाने का मौका दे दिया और नवाज अलग-थलग पड़ गये, जिससे कट्टरपंथियों को ताकत मिली.
इसके परिणामस्वरूप और हमारी सरकार की ओर से ‘सौहार्द’ दिखाये जाने के बावजूद जब पाकिस्तान द्वारा युद्ध-विराम का उल्लंघन हुआ और यह और भी गहन होता गया, तब हमने अपेक्षित दृढ़ता से उसका जवाब नहीं दिया. हमारी तरफ से 13 जून को एक बयान जारी हुआ कि सीमा पर शांति कायम होना संबंधों के सामान्यीकरण के लिए वार्ता की पूर्व शर्त है.
लेकिन, पाकिस्तान द्वारा इस बात को अनसुना कर दिये जाने के बावजूद हमने विदेश सचिव स्तर की बातचीत की बहाली की घोषणा कर दी, जबकि यह बातचीत युद्ध-विराम के उल्लंघन के कारण ही 2013 में रोक दी गयी थी. गलत समय पर अनपेक्षित मैत्रीपूर्ण पहल से उत्साहित होकर और बिना सोचे-विचारे दिल्ली में पाकिस्तानी उच्चायुक्त ने हुर्रियत नेताओं को बातचीत के लिए बुला लिया.
हमने पहले ऐसी बातचीत की अनुमति दी थी, जो कि मेरे विचार से सही निर्णय नहीं था, लेकिन वे तभी हुई थीं, जब द्विपक्षीय वार्ता या तो विदेश मंत्री स्तर की थी या जब शिखर सम्मेलन होनेवाला था. इस तरह की बातचीत को रोकने के लिए हमारा हस्तक्षेप इस बार देर से हुआ, लेकिन कम-से-कम हम ऐसे माहौल में असमय और गैर-समझदारीपूर्ण सचिव-स्तर की बातचीत को स्थगित करने में सफल रहे.
पाकिस्तान के प्रति इस ऊहापोह-भरी नीति का आखिर परिणाम क्या हुआ? लोकसभा चुनाव के प्रचार के दौरान यूपीए सरकार की पाकिस्तान के प्रति ‘नरम’ नीति पर नरेंद्र मोदी द्वारा निंदात्मक हमला और सत्ता में आने के बाद ऐसे दुश्मनों को पाठ पढ़ाने की धमकी ने पाकिस्तान के कट्टरपंथी तत्वों को पहले ही काफी ताकत दे दिया था.
चुनावी जीत के बाद किसी रणनीतिक योजना और समुचित निरंतरता के अभाव में उनकी अबूझ पलटी और नवाज शरीफ की ओर बढ़े दोस्ती के उनके हाथ से कट्टरपंथियों को और मजबूती मिली.
इस परिस्थिति में पाकिस्तान के आंतरिक घटनाक्रम ने भी बड़ी भूमिका निभायी. वहां के सत्ता-तंत्र में नवाज की कमजोर स्थिति इमरान खान और कादिरी की इस्लामाबाद की सभाओं ने और भी कमजोर कर दी. यह कोई छुपी हुई बात नहीं थी और हमारी सरकार को इस पहलू पर ध्यान देना चाहिए था.
नवाज के कमजोर होने से पाकिस्तानी सेना और गुप्तचर संस्था आइएसआइ भी मजबूत हुई. क्या हम पाकिस्तान के अंदर चल रहे घटनाक्रम के रणनीतिक महत्व पर आंख मूंदे हुए थे? नवाज के प्रभाव के कम होने की हालत में उनके प्रति बांहें फैलाने से हमें क्या हासिल हुआ? दोस्ती का हाथ बढ़ाने के बावजूद युद्ध-विराम के उल्लंघन की बढ़ती घटनाओं पर क्या हमने गंभीरता से विचार किया?
अगर हां, तो उसका हमने मजबूती से सैन्य-प्रतिरोध क्यों नहीं किया, जिससे उनको ठोस सबक मिलता? कहीं हमने उन्हें जरूरत से अधिक छूट तो नहीं दी? कहीं हमारी चेतावनियां छिटपुट, कमजोर और महज प्रतिक्रियात्मक भर तो नहीं थीं? खुले रूप से भड़काऊ हरकतें करने के बाद भी बातचीत की बहाली के हमारे प्रस्ताव को कहीं पाकिस्तान ने हमारी कमजोरी तो नहीं समझ लिया?
इस वर्तमान संकट का एक आयाम और भी है. इस आयाम का मुख्य केंद्र अफगानिस्तान है, जहां राजनीतिक स्थिति राष्ट्रपति चुनाव के समस्याग्रस्त परिणाम और अमेरिकी व नाटो सेनाओं की होनेवाली वापसी की पृष्ठभूमि में पूरी तरह डांवाडोल है.
इस राजनीतिक और सैन्य खालीपन में पाकिस्तान तालिबान के मुल्ला उमर के नेतृत्ववाले धड़े तथा अन्य आतंकी-अतिवादी गिरोहों को जमा कर इस क्षेत्र में अपना राजनीतिक प्रभाव बढ़ाने की उम्मीद में है. इस लक्ष्य के साथ उसे भारत के साथ लगती पश्चिमी सीमा पर ‘नरम’ मौजूदगी के रूप में नहीं देखा जा सकता है, क्योंकि कश्मीर की स्थिति और उसकी ‘आजादी’ में पाकिस्तान की भूमिका तालिबान और आइएसआइ द्वारा प्रशिक्षित उग्रवादी जेहादियों समेत हर तरह के इसलामिक कट्टरपंथियों के लिए आस्था की बात है.
पाकिस्तान-समर्थित तालिबान के एक धड़े के पुन: उभार से प्रेरित ये जेहादी बिना किसी उकसावे के सीमा पार से हो रही गोलीबारी की आड़ में कश्मीर घाटी में घुसपैठ की फिराक में हैं.
कहने की बात नहीं है कि राष्ट्रीय सुरक्षा के मामले में समूचे देश को एक होकर हमारी सशस्त्र सेना को पूरा समर्थन देना चाहिए. लेकिन, जब यह कहा जा रहा है, तब नरेंद्र मोदी को कुछ मसलों पर गंभीरता से विचार करना चाहिए. क्या वे पहले व्यक्ति नहीं थे, जिन्होंने विदेश नीति का राजनीतीकरण किया था, जब पाकिस्तान हमारे सैनिकों के सिर काट रहा था?
अगर वे तब सरकार की आलोचना कर सकते थे, तो अब वे आलोचना से परे कैसे हो सकते हैं? दूसरा, परिस्थितियों के अनुरूप हमें राजनीतिक मतभेदों को किनारे रख देना चाहिए, लेकिन क्या उन्हें भी ऐसा नहीं करना चाहिए था, जब वे महाराष्ट्र में चुनाव-प्रचार के दौरान राजनीति से प्रेरित होकर देशभक्ति का आह्वान कर रहे थे, ताकि विदेश नीति पर उनके रवैये की रचनात्मक आलोचना को कुंद कर सकें?
अगर उन्हें इस पर कोई भ्रम है, तो उन्हें 1962 के चीन युद्ध पर संसद में अटल बिहारी वाजपेयी के शानदार भाषण को पढ़ना चाहिए. उन्हें आश्चर्य होगा कि नेहरू ने उस आलोचना को रचनात्मक रूप से लिया था.
पवन के वर्मा
सांसद एवं पूर्व प्रशासक

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