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पुण्य प्रसून वाजपेयी वरिष्ठ पत्रकार ’जब राष्ट्रपति के पास वक्त नहीं, मुख्यमंत्री के पास वक्त नहीं, तो अब गुहार कहां लगाऊं?पहली बार प्रधानमंत्री मोदी को पत्र लिखा. यह सोच कर लिखा कि मेरा गांव सीतामढ़ी में है, तो कम-से-कम सीता की जन्मभूमि को याद कर ही प्रधानमंत्री मेरे गांव की तरफ देख लें’. संसद सदस्य […]

पुण्य प्रसून वाजपेयी
वरिष्ठ पत्रकार
’जब राष्ट्रपति के पास वक्त नहीं, मुख्यमंत्री के पास वक्त नहीं, तो अब गुहार कहां लगाऊं?पहली बार प्रधानमंत्री मोदी को पत्र लिखा. यह सोच कर लिखा कि मेरा गांव सीतामढ़ी में है, तो कम-से-कम सीता की जन्मभूमि को याद कर ही प्रधानमंत्री मेरे गांव की तरफ देख लें’.
संसद सदस्य बनने के बाद राष्ट्रकवि दिनकर ने लिखा था, ‘हो गया एक नेता मैं भी! तो बंधु सुनो/मैं भारत के रेशमी नगर में रहता हूं/जनता तो चट्टानों का बोझ सहा करती है/मैं चांदनियों का बोझ किस विधि सहता हूं/दिल्ली में तो है खूब ज्योति की चहल पहल/पर, भटक रहा है, सारा देश अंधेरे में..’ तो क्या वाकई कोई भी दिल्ली आकर बेदिल हो जाता है? यह सवाल किसी को भी अंदर तक झकझोर सकता है, जब उसे पता चले कि अंधेरे में रहनेवाले भारत के दर्द की टीस मौत मांग रही है.
सीएम ने सुनी नहीं. पीएम मनमोहन सिंह से कोई आस जगी नहीं और बीते दस बरस से देश में दो राष्ट्रपति बदल गये, लेकिन कभी किसी ने दो घड़ी मिलने का वक्त वैसे युवाओं के लिए नहीं निकाला, जिन्होंने शादी इसलिए नहीं की, क्योंकि गांव के मरघट की आवाज वह कभी ना कभी दिल्ली को सुना सकें. और 31 अक्तूबर, 2014 को जो पहला जवाब राष्ट्रपति भवन से पहुंचा. उसमें लिखा गया है कि, ‘आपका पत्र मिला. लेकिन राष्ट्रपति बहुत व्यस्त हैं और उनके पास आपसे मिलने के लिए कोई वक्त नहीं है और न ही वह आपकी समस्या सुन सकते हैं.’ राष्ट्रपति का यह जवाब दिलीप और अरुण को मिला है. दोनों भाई पढ़े-लिखे हैं और रिटायर्ड टीचर के बेटे हैं. इन दस बरस में किताब ‘अंधेरे हिंदुस्तान की दास्तान’ लिख डाली. प्रतिष्ठित प्रकाशक वाणी प्रकाशन ने किताब छापी. लेकिन सुनवायी जीरो.
इस हाल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को गांव आने का निमंत्रण देता पत्र पहली बार 9 जून, 2014 को लिखा गया. पत्र दर्द की इंतेहा है. जैसे ही मेरे मेल पर इसकी कॉपी पहुंची, वैसे ही फोन लगा कर मैंने परिचय देते हुए बात करनी चाही, तो दिलीप रोने लगा. उसे भरोसा नहीं हुआ कि उसकी आवाज दिल्ली में सुनी जा सकती है. रोते हुए सिर्फ इतना ही कहा, ‘मनमोहन सिंह को कभी मैंने पत्र नहीं लिखा. नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने तो 9 जून, 2014 को मैंने पत्र लिख कर अपने गांव की नरक जैसी हालत का जिक्र कर आग्रह किया कि हो सके, तो एक बार मेरे गांव को भी देख लें. यहां कोई जीना नहीं चाहता है, क्योंकि जिंदगी यहां मौत से भी बदतर हो चुकी है.
लेकिन बीते 110 दिनों में कोई जवाब नहीं आया. मई, 2004 में राष्ट्रपति से मिलने मैं दिल्ली गया था. मुझसे वक्त लेने को कहा गया. मैंने मिलने का वक्त मांगा और 71 दिनों तक इंतजार किया. लेकिन मुलाकात फिर भी न हो सकी. उसके बाद मैंने 6 दिसंबर, 2004 से पत्र सत्याग्रह शुरू किया. हर दिन राष्ट्रपति के नाम पत्र लिख कर गुहार लगाता हूं कि कालाजार से मरते अपने गांव को हर क्षण हर कोई देख रहा है, लेकिन कोई कुछ करता क्यों नहीं. अभी तक राष्ट्रपति को साढ़े तीन हजार से ज्यादा पत्र लिख चुका हूं. लेकिन 31 अक्तूबर, 2014 को जो पहला पत्र आया, उसमें राष्ट्रपति ने वक्त ना होने का जिक्र किया. अब सोचता हूं कि जब राष्ट्रपति के पास वक्त नहीं. मुख्यमंत्री के पास वक्त नहीं, तो अब गुहार कहां लगाऊं?
पहली बार प्रधानमंत्री मोदी को पत्र लिखा. यह सोच कर लिखा कि मेरा गांव सीतामढ़ी में है, तो कम-से-कम सीता की जन्मभूमि को याद कर ही प्रधानमंत्री मेरे गांव की तरफ देख लें. इस पत्र में लिखा है..
प्रणाम! मैं दिलीप और अरुण दोनों भाई आपको अपने गांव-तेमहुआ, पोस्ट- हरिहरपुर, थाना- पुपरी, जिला- सीतामढ़ी, बिहार, आने का निमंत्रण देते हैं. मैं आपको वहां ले जाना चाहता हूं, जहां की फिजा में 48 दलित मुसहर भाई-बहन की अकाल मृत्यु की सांसों से मेरा दम घुटता है. मैं आपको उन्हें दिखाना चाहता हूं, जो मरना तो चाहते हैं, मगर अपने बच्चे, अपने परिवार की खातिर किसी तरह जी रहे हैं. मैं आपको उनसे मिलाना चाहता हूं, जो जिंदा रहना नहीं चाहते, मगर जीवित रहने के लिए मजबूर हैं. मैं आपको उस वादी में ले जाना चाहता हूं, जहां के लोग या तो भूखे हैं या फिर भोजन के नाम पर जो खा रहे हैं, उसका शुमार इंसानी भोजन में नहीं किया जा सकता है!
मैं आपको उन कब्रों तक ले जाना चाहता हूं, जिसमें दफन हुए इंसानों की भटकती रूहें इस मुल्क की सरकार से यह गुजारिश कर रही हैं, कि कृपया हमारे बच्चों के जिंदा रहने का कोई उपाय किया जाये. मैं आपको हकीकत की उस दहलीज पर ले जाना चाहता हूं, जहां से खड़ा होकर जब आप सामने के परिदृश्य को देखेंगे, तो आपकी आंखों के सामने नजारा उभर कर यह आयेगा कि आजाद भारत में आज भी इंसान और कुत्ते एक साथ एक ही जूठे पत्तल पर अनाज के चंद दाने खाकर पेट की आग बुझाने को मजबूर हैं. मैं आपको उस बस्ती से रू-ब-रू कराना चाहता हूं, जो बस्ती हर पल हर क्षण हर घड़ी भारत के राष्ट्रपति से यह सवाल पूछ रही है कि बताइए, हमारे बच्चे कालाजार से क्यों मर गये?
मैं आपको यहां इसलिए बुलाना चाहता हूं, क्योंकि पिछले 10 वर्षो में 3,600 से अधिक पत्रों द्वारा की गयी हमारी फरियाद उस पत्थर दिल्ली के आगे शीशे की तरह टूट कर चूर-चूर हो जाती है. मैं आपको यह सब इसलिए कह रहा हूं, क्योंकि बचपन से लेकर आज तक मैं ऐसे लोगों से घिरा हुआ हूं, जो अपनी जिंदगी की परछाइयों में मौत की तसवीर और कब्रों के निशान देखते हैं. जो भोजन के आभाव में और काम की अधिकता के कारण मर रहे हैं! जिनका जन्म ही अभाव में जीने और फिर मर जाने के लिए हुआ है. ये लोग इस सवाल का जवाब खोज रहे हैं कि हम अपनी जिंदगी की अंधेर नगरी से निकल कर उजालों की नगरी की चौखट पर अपने कदम कब रखेंगे? लिहाजा ऐसी निर्णायक घड़ी में आप हमारे आमंत्रण को ठुकराइए नहीं, क्योंकि यह केवल हमारे चिंतित होने या न होने का प्रश्न नहीं है.
यह केवल हमारे मिलने या न मिलने का प्रश्न नहीं है, बल्कि यह हमारे गांव में कालाजार से असमय मरनेवाले नागरिक के जीवन-मूल्यों का प्रश्न है. यह उन मरे हुए लोगों के अनाथ मासूमों का प्रश्न है. यह विधवाओं एवं विधुरों का प्रश्न है. यह दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में सरकार की संवैधानिक जिम्मेवारी का प्रश्न है! यह हमारे द्वारा भेजे गये उन हजारों चिठ्ठियों का प्रश्न है, जिनमें हमने अपने गांव के गरीबों की जान बचाने की खातिर मुल्क के राष्ट्रपति से दया की भीख मांगी थी. इसलिए देश और मानवता के हित में कृपया हमारा आमंत्रण स्वीकार करें. धन्यवाद!
अब दिल्ली सुने या ना सुने, लेकिन दिनकर की कविता, ‘भारत का यह रेशमी नगर’ की दो पंक्तियां दिल्ली को सावधान और सचेत तो जरूर करेंगी- ..तो होश करो, दिल्ली के देवों, होश करो, सब दिन को यह मोहिनी न चलनेवाली है/ होती जाती है गर्म दिशाओं की सांसें, मिट्टी फिर कोई आग उगलनेवाली है..

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