तरुण विजय
राज्यसभा सांसद, भाजपा
..पर अक्षरधाम के विरोध में वे तमाम सेक्युलर खड़े हो गये जो इमाम के खोखले शाहीपन की जूतियां संभालते हैं. देश के मूर्धन्य तथाकथित ‘ओपीनियन मेकर’ अंगरेजी दैनिक दे दनादन अक्षरधाम के बनने के खिलाफ यों अड़े कि तालिबान लज्जित हो उठे.
सिर्फ शोर और अपने कर्त्तव्य का अंधकार. कान बंद करें या आंखें, फिर भी कोलाहल भीतर तक समा जाता है. अभी कल ही दिल्ली के अक्षरधाम में केनोपनिषद् पर आधारित जलमय सृष्टि का अद्भुत, अविश्वास, चमत्कारिक प्रदर्शन देखा. संतगण समर्पण की अद्भुत मिसाल बन अपने जीवन की संपूर्ण योग्यता, क्षमता, स्वप्न और आकांक्षाएं कैसे केंद्रीभूत कर सब कुछ दूसरों के लिए दे देते हैं- प्रमुख स्वामी नब्बे के हो रहे हैं.
लेकिन परार्थ सेवाभावी युवा संतों का ऐसा संसार बुन गये कि नोबेल और भारत रत्न भी उनके सामने बौने दिखते हैं. उनके संसार में दिल्ली का वह शोर कर्त्तव्य का अहंकार, मैं और सिर्फ मैं का कोलाहल सिर्फ ‘तू’ और तुझमें विलीन हो जाता है.
दुख तो सबको भिगोता है. दुख और बढ़ जाता है, जब कोई सुननेवाला न हो. दुनिया का सबसे कठोर दंड अकेला होना है. न कोई सुननेवाला हो, न कोई आंसू पोंछनेवाला, तो प्राणांत ही ज्यादा अच्छा लगने लगता है. क्यों जियें? क्योंकि कुछ सांसें शेष हैं, सिर्फ इसलिए? क्योंकि स्वयं अपने प्राण लेने से परलोक बिगड़ जायेगा? किसने देखा है परलोक? परलोक की दुकान लगा-लगा कर कितनों ने कितनों को ठगा? इहलोक सुधरता नहीं-चिंता परलोक की! यहां के दुखों का अंत होता नहीं, वहां के दुखों की चिंता से यहां के दुख हम बढ़ाते ही रहते हैं.
कोई तो हो सुननेवाला. इन सुनानेवालों की भीड़ में ये सब सुनानेवाले सिर्फ अपनी कहना चाहते हैं. उन्हें सुनो. रैली बनो. ताली बजाओ. मनुष्य को ताली, भीड़, समर्थक और फॉलोअर में बदलती है दिल्ली. आपका सिर्फ आप होना पर्याप्त नहीं है. पर्याप्त सिर्फ वहीं होता ैहै, जितना आप ‘उनके’ होते हैं.
ऐसे में बहुत दुख हो, वेदना हो, मन सीला-सा हो, तो रोने की इच्छा होते हुए भी रुकना पड़ता है. लोग कहेंगे कि यह भी एक दिखावा है, ड्रामा है. रोया तब जाता है, जब कोई अपना मिले, कोई अपना देखे. परायों के बीच तो मुए आंसू भी पत्थर हो जाते हैं.
इसलिए मन प्रार्थना करता है- प्रभु या कोई भी वह परमसत्ता- जो अंतिम नियंत्रक है, कृपया दुख दे, लेकिन वह कंधा भी दे, जिसके सहारे माथा टेक कुछ जी हल्का कर सकें. रो सकें. प्रभु दुख दे, पर वह कंधा भी ना दे, जिसे कुछ भिगो सकें, तो उससे अच्छा तो यह जीवन ही ले ले.
अक्षरवत्सल स्वामी से मैं पहले कब मिला, कुछ याद नहीं. लेकिन अनायास जब भी मन उदास हुआ, उनकी याद आयी. जब भी कोई आघात लगा, सोचा उनसे बात करूंगा. जब भी कुछ दिखने न लगा, सोचा उनको बताऊंगा. कभी भी मन में यह नहीं रहा कि वे कुछ करेंगे और फिर सब ठीक होगा. पर इतना ही मन आश्वस्त रहा कि वे सुनेंगे.
उनमें वह कंधा दिखा, जो रुलाई रोकेगा नहीं. जी हल्का हो लेने देगा. सहजानंद वाटर शो, स्वामीनारायण पंथ के उस रूप के एक पहलू को अभिव्यक्त करता है, जो रूप इस अद्भुत संप्रदाय को हिंदू धर्म का श्रेष्ठतम चेहरा बनाया गया है. भद्रता, भारत-भक्ति, बौद्धिक क्षमता और कल्पनाशीलता के शिखर पर विनय की पराकाष्ठा. जिस फ्रांसीसी डिजाइनर जीपा ने बीजिंग ओलिंपिक के उद्घाटन और समापन का जादुई करिश्मा बुना, लाखों डॉलर लिये, वहीं इन युवा संतों की निपुणता और भक्ति में बह कर बिना कुछ लिये, दिल्ली में अहंकार-निमरूलन का आकाशीय चमत्कार सृजित कर गया. क्यों?
शायद उसे भी इन संतों में वह कंधा दिखा होगा, जो किसी के हताश माथे को सहारा दे, उसे रोने दे, जी हल्का कर लेने दे, खुद भीगता रहे.
जल और लेजर की किरनों से शून्य में औपनिषदिक कथाओं का अवाक और मंत्रमुग्ध करनेवाला सृजन रचनाधर्मिता के किसी शिखर का परिचय देता ही है.
जो कोई और ना कर सका, वह उन्होंने, बीतरागी, संतों ने कैसे कर दिखाया? इसका उत्तर एक ही है- उनके पास भीगनेवाले कंधे हैं. इन कंधों पर टिका मानस अहंकार रोकता है. जल, वायु, अगिA, सूर्य इन सबके अहंकार की भला कोई सीमा है! प्रलय कर दें, चक्रवात में सर्वनाश कर दें, जला दें, भष्म कर दें, जीवन रहे या ना रहे, इनका निर्णय दे दें. पर जिस एक बिंदु पर निबरेध, निदरेष, निर्मल हृदय बालकों के फूल को नष्ट ना कर पाने के मोड़ पर, वे पस्त हो गये, हार गये.भीगता-सा हुआ कंधा बड़े से बड़े शूरवीर, पराक्रमी, निर्भय, शक्ति को भी काई-सा शांत बना देता है.
अक्षरवत्सल स्वामी आंसुओं का खारापन सोख, हंसती हुई नींद देने का रास्ता भी देते हैं. प्रमुख स्वामी, जिन्होंने निरहंकारिता को जीते हुए दुनिया में साढ़े सात सौ से ज्यादा अतुलनीय, अविश्वसनीय शिल्प के प्रतीक मंदिर बनवाये, सैकड़ों युवा संतों को, जिसमें बैरिस्टर, इंजीनियर, सीए, डॉक्टर, वैज्ञानिक, कला मर्मज्ञ भी हैं, जीवन के आनंद को बढ़ाने की ललक में काषाय पहन जन-सेवा की ओर मोड़ा, बोला, समाज को सुधारा, वही देश सेवा है. जंगलों में, गिरि क्षेत्रों में जनजातीयों के बीच भेजा, वह अपार संत-संपदा के एकच्छत्र वीतरागी सम्राट हंसते हुए शयन को जाते हैं- चिंतायुक्त हुए नहीं.
हंसते हुए, जो हुआ सो ठीक था, जो ईश्वर ने दिया, वह तो बहुत ही है, यह सोचते हुए शयन को जाना बड़ा ही दुष्कर कार्य है. इसके लिए वह कंधा रखना पड़ता है, जो दूसरों के दुख को सहारा दे सके, आत्मीय वंदन का बड़ा ही कठिन पथ छाले पड़े पांवों से पार कर सके. तब वह मंदस्मिथ मिलती है, जो चेहरे को खिला सके, दुखी मन को अवकाश दे सके कि आंखें नम हो जायें. आंसू छलक उठे, जी हल्का हो जाये.
दस साल हो गये दिल्ली में अक्षरधाम स्थापित हुए. एक संत हुए- योगी जी महाराज. बस सोचा कि यमुना तट पर हिंदू सभ्यता के उत्कर्ष का एक केंद्र बनना चाहिए-सदियों से हमलावर दिल्ली में मंदिर ही नहीं बनने देते थे. तब दुखी हो गांधी ने घनश्यामदास बिड़ला से कह कर लक्ष्मीनारायण मंदिर बनवाया. वरना कोने-किनारे के मंदिरों में सिमटे थे हमारे देव. इंदिरा गांधी की सहायता से छतरपुर में आद्या कात्यायनी मंदिर बना. पर अक्षरधाम के विरोध में वे तमाम सेक्युलर खड़े हो गये जो इमाम के खोखले शाहीपन की जूतियां संभालते हैं. देश के मूर्धन्य तथाकथित ‘ओपीनियन मेकर’ अंगरेजी दैनिक दे दनादन अक्षरधाम के बनने के खिलाफ यों अड़े कि तालिबान लज्जित हो उठे.
यह सिर्फ मंदिर ही नहीं, भारतीय सभ्यता के उत्कर्ष परिचय-पत्र है, जो सिर्फ देवार्चन नहीं, भारत-आराधना की ओर प्रवृत्त करता है. यह राष्ट्र की उस कालीन प्रगति का आश्चर्यजनक परिचय देता है, जिसे विस्मृत करा देने का आक्रामक हमलावरों और उनकी मानस-संततियों ने भरसक प्रयास किया.