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पाकिस्तान पर ‘हार्ड’ रुख अव्यावहारिक

वर्तमान परिदृश्य में भारत के पास पाकिस्तान पर दबाव बनाने की क्षमता नहीं है, क्योंकि भाजपा ने इस महाद्वीप को परमाणु युद्ध-क्षेत्र बना दिया है. लेकिन , यह स्थिति बदलेगी और भारत तथा ‘हार्ड’ सोच रखनेवालों को झुकना पड़ेगा. भारतीय मीडिया में लिखने-बोलनेवाले पाकिस्तान मामलों के विशेषज्ञों को आम तौर पर दो समूहों में बांटा […]

वर्तमान परिदृश्य में भारत के पास पाकिस्तान पर दबाव बनाने की क्षमता नहीं है, क्योंकि भाजपा ने इस महाद्वीप को परमाणु युद्ध-क्षेत्र बना दिया है. लेकिन , यह स्थिति बदलेगी और भारत तथा ‘हार्ड’ सोच रखनेवालों को झुकना पड़ेगा.

भारतीय मीडिया में लिखने-बोलनेवाले पाकिस्तान मामलों के विशेषज्ञों को आम तौर पर दो समूहों में बांटा जा सकता है. पहले समूह में वे हैं, जिन्हें सीमा के दूसरी तरफ ‘सॉफ्ट’ यानी नरम माना जाता है. ये लोग पाकिस्तानी सरकार से किसी भी स्थिति में बातचीत करते रहने के हिमायती हैं. इनका मानना है कि पाकिस्तान में सेना और राजनीति के बीच टकराव एक हकीकत है और इस टकराव का नकारात्मक असर भारत पर पड़ता है. इस समूह के अनुसार, पाकिस्तानी नेताओं को शांति और प्रगति के खेमे में बनाये रखना भारत के हित में है. इसका तात्पर्य यह है कि राजनीतिक पक्ष के साथ वार्ता की संभावना कायम रहनी चाहिए, तब भी जब पाकिस्तानी उच्चायुक्त कश्मीरी नेताओं और गुटों से मिलने जैसी चिढ़ानेवाली हरकतें करें. इसका अर्थ यह भी है कि मुंबई में लश्कर-ए-तैयबा के हमले जैसी क्रोध पैदा करनेवाली स्थितियों में भी बातचीत की गुंजाइश बनी रहनी चाहिए.

विशेषज्ञों का दूसरा समूह वह है, जिसे सीमा के उस पार ‘हार्ड’ यानी कठोर माना जाता है. इसमें वे लोग शामिल हैं, जो पाकिस्तान की राजनीति को एक ही इकाई के रूप में देखते हैं. उनका मानना है कि भारत के प्रति पाकिस्तान की सेना की सोच और नीतियां ही हमेशा प्रभावशाली बनी रहेंगी. इस नजरिये के मुताबिक, पाकिस्तानी राजनेता या तो सेना के रवैये में सम्मिलित हैं या फिर उनकी कोई अहमियत ही नहीं है, तथा पाकिस्तान भारत के प्रति हमेशा आक्रामक बना रहेगा. ऐसे में, जहां कर सकते हैं, हमें पाकिस्तान को नजरअंदाज करना चाहिए; जहां संभव हो, उसे सबक सिखाना चाहिए; और बातचीत तो कभी नहीं करनी चाहिए, क्योंकि इससे कोई फायदा ही नहीं है. इस रुख के लिए भारत की प्रशंसा करनेवाले का समर्थन करनेवाले मीडिया में बहुत लोग हैं.

पिछले दो दशकों से यह दूसरा समूह भारतीय नेतृत्व की सोच पर हावी है, और कुछ अपवादों, आइ के गुजराल और मनमोहन सिंह जैसे पंजाबियों को छोड़ दें, तो ‘सॉफ्ट’ तरीके से सोचनेवाला कोई नेता इस दौरान भारत को नहीं मिला है. मनमोहन सिंह नरम थे और उनकी सोच थी कि बातचीत के जरिये पाकिस्तान को उसके संकट से निकालने से भारत को फायदा होगा. उन्होंने इस प्रक्रिया की शुरुआत करते हुए 2012 में बातचीत को बहाल किया, जिसे ‘सॉफ्ट’ सोच रखनेवाले भारत-पाक संबंधों की दिशा में सबसे अच्छी कार्य-योजना मानते हैं. वे यह भी मानते हैं कि अगर मनमोहन सिंह सत्ता में होते, तो पाकिस्तान और कश्मीर के मसलों पर भारत सकारात्मक दिशा में आगे बढ़ा होता. चूंकि ये सोच रखनेवालों की पिछले आम चुनाव में कमोबेश हार हुई है, भारत को दुनिया से अपने संबंधों को बढ़ाने से पहले पाकिस्तान को संभालने के बारे में निश्चित समझ बना लेनी चाहिए. अगर भारत ऐसा नहीं करता है, जैसा कि मोदी ने किया है, तो उसे हमेशा सार्क सम्मेलन जैसे मंचों पर पाकिस्तान और उसके नेतृत्व का सामना करना पड़ेगा.

भाजपा पाकिस्तान के प्रति अपने रुख को लेकर हमेशा कठोर रही है, लेकिन इससे कोई सकारात्मक परिणाम नहीं निकला है. यह कहा जा सकता है कि कुछ अर्थो में भाजपा की नीतियों ने भारत के हितों को नुकसान ही पहुंचाया है. कारगिल में धोखा खाने से पहले अटल बिहारी वाजपेयी को पाकिस्तान के प्रति नरम माना जाता था. लेकिन सच यह है कि भारत ने वाजपेयी शासन के दौरान ही अपने परमाणु कार्यक्रम को हथियारबंद किया था, क्योंकि उनकी सोच कठोर रवैयेवाली समझ से संबद्ध थी. यह बात भी मानी जानी चाहिए कि वाजपेयी के नेतृत्व में हुए पोखरण विस्फोटों ने भारत को कोई लाभ नहीं दिया. हकीकत यह है कि पोखरण विस्फोटों ने पाकिस्तान को भी तुरंत परमाणु विस्फोट के लिए मजबूर कर दिया, जिसकी वजह से पारंपरिक तौर पर मिली बढ़त को भारत ने खो दिया. राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ द्वारा लगाम लगाने तक इस परमाणु छतरी के नीचे आतंकवादी गतिविधियां चलती रहीं.

आंकड़े इस बात को पुष्ट करते हैं. कश्मीर में हिंसा से होनेवाली मौतों की संख्या 2001 में 4,507 थी, जो 2012 में घट कर मात्र 117 रह गयी थी, जिसमें 84 आतंकवादी थे. पिछले वर्ष 181 लोग मारे गये थे, जबकि इस वर्ष अभी तक यह संख्या 147 है. हिंसा में होनेवाली मौतों की 1990 के बाद ये सबसे कम संख्याएं हैं. इसका अर्थ है कि कश्मीर में आतंकी हिंसा लगभग खत्म हो चुकी है. नरेंद्र मोदी ने आतंक को समर्थन देनेवालों की कड़े शब्दों में निंदा की है, लेकिन सच यह है कि भारत के विरुद्ध पाकिस्तान-समर्थित हिंसा कमोबेश थम चुकी है. यदि हम कश्मीर में होनेवाली हर हिंसा को पाकस्तान से जोड़ कर न देखें, तो हमें यह स्वीकार करना होगा कि हिंसा का वर्तमान स्तर तब तक जारी रहेगा, जब तक समस्या का कोई राजनीतिक समाधान नहीं हो जाता.

मेरी राय में नरेंद्र मोदी, जो ‘हार्ड’ विचारधारा के नेता हैं, ने बिना सोच-विचार के पाकिस्तान से बातचीत तोड़ने का निर्णय लिया है. उन्होंने पाकिस्तान के बारे में कठोर शब्द कहे, लेकिन बातचीत नहीं करने का फैसला लेने के बावजूद पिछले सप्ताह उन्हें लज्जजनक रूप से नवाज शरीफ जैसे ‘दुश्मन’ से हाथ मिलाना पड़ा. उन्हें ऐसा करने के लिए मजबूर क्यों होना पड़ा? ऐसा होना ही था, जैसा कि कुछ लोगों ने संभावना जाहिर की थी, क्योंकि नरेंद्र मोदी की नीति न इधर की है, न उधर की. यह सब महज दिखावा ही था. वे तब कठोर रवैया अपना रहे थे, जब न तो यह आवश्यक था और न ही व्यावहारिक. उनकी नाराजगी से भारतीयों को आखिर क्या फायदा हुआ?

कोई भाजपाई या मीडिया में पार्टी के‘हार्ड’ रवैये का कोई समर्थक इसका विश्लेषण नहीं कर सकता है. पूर्व रक्षा मंत्री अरुण जेटली ने दावा किया था कि उन्होंने पाकिस्तान की गोलाबारी में मारे गये भारतीय नागरिकों से अधिक पाकिस्तानी नागरिकों को मार कर उसे सबक सिखा दिया है. मान लें कि यह एक सबक है, हालांकि बहुत-से भारतीय इससे सहमत नहीं होंगे, तो क्या अब पाकिस्तान की ओर से गोलाबारी नहीं होने की गारंटी है. अगर वे ऐसा नहीं कह सकते, तो फिर वार्ता बंद करने और संबंध सामान्य करने की कोशिश नहीं करने का क्या मतलब है?

‘हार्ड’ रुख रखनेवालों के पास देने के लिए कुछ भी खास नहीं है और यह गत 20 वर्षो में साफ हो गया है. भारत के पास पाकिस्तान पर दबाव बनाने की क्षमता नहीं है, क्योंकि भाजपा ने इस महाद्वीप को परमाणु युद्ध-क्षेत्र बना दिया है. लेकिन, यह स्थिति बदलेगी और भारत तथा ‘हार्ड’ सोच रखनेवालों को झुकना पड़ेगा.

आकार पटेल

वरिष्ठ पत्रकार

aakar.patel@me.com

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