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छह राजनीतिक दलों की एकता का सवाल

रविभूषण वरिष्ठ साहित्यकार राजनीतिक दलों की एकता का असली उद्देश्य भारतीय जनता से असली, ईमानदार रूप से जुड़ने का है, उसका अपना बनने का है. भारत की जनता वैसे दलों को कंधे पर बिठा लेगी, और जो कंधों पर बैठने की कोशिशों में लगे हैं, उन्हें उतार फेंकेगी. पचास के दशक के आरंभ से समाजवादियों […]

रविभूषण
वरिष्ठ साहित्यकार
राजनीतिक दलों की एकता का असली उद्देश्य भारतीय जनता से असली, ईमानदार रूप से जुड़ने का है, उसका अपना बनने का है. भारत की जनता वैसे दलों को कंधे पर बिठा लेगी, और जो कंधों पर बैठने की कोशिशों में लगे हैं, उन्हें उतार फेंकेगी.
पचास के दशक के आरंभ से समाजवादियों में आपसी बिलगाव की जो प्रक्रिया शुरू हुई, वह बाद के वर्षो में भी नहीं थमी. भाजपा को छोड़ कर प्राय: सभी प्रमुख राजनीतिक दल टूटे.
16 मई, 2014 के बाद भारत का राजनीतिक परिदृश्य बदला हुआ है. कांग्रेस किंकर्तव्यविमूढ़ है, मार्क्‍सवादी दल सन्न हैं. चंद अपवादों को छोड़ कर शेष सभी क्षेत्रीय दल हाशिये पर हैं. बिहार और उत्तर प्रदेश का राजनीतिक महत्व उसके कुल 120 लोकसभा सांसदों के कारण है. पिछले लोकसभा चुनाव में इनमें से सौ से अधिक सांसद भाजपा के हैं. सीधा गणित है कि इन सांसदों के कारण ही भाजपा केंद्र में सत्तासीन हुई.
केंद्र के बाद राज्यों में भी मोदी का ‘जादू’ चल रहा है. दिक्कत यह है कि अन्य सभी राजनीतिक दलों को मिला कर भी कहीं कोई ऐसा ‘करिश्माई’ नेता नहीं है. बिहार में अगले वर्ष चुनाव है. फिर उत्तर प्रदेश में भी चुनाव होगा. नीतीश कुमार और मुलायम सिंह यादव का अपने प्रदेश के बारे में सोचना लाजिमी है. अभी जिन छह दलों ने आपस में मिल कर जो विलय-वार्ता की है, वे सब समाजवादी और जनता दल से निकले-बिखरे हैं.
1977 में जयप्रकाश नारायण और मोरारजी देसाई का जनता मोरचा, चरण सिंह का भारतीय लोकदल और भारतीय जनसंघ एक साथ हुए थे. इसके तीन वर्ष पहले 1974 में चरण सिंह ने भारतीय लोकदल का गठन किया था, जिसमें सात दलों का विलय हुआ था. इन दलों में समाजवादी दल भी था, जिसके नेता जॉर्ज फर्नाडीज और राजनारायण थे. इंदिरा गांधी के निरंकुश शासन और आपातकाल के विरोध में अनेक नेताओं ने मिल कर जनता पार्टी का गठन किया था. मई, 1977 में कांग्रेस से टूट कर जगजीवन राम ने जिस कांग्रेस फॉर डेमोक्रेसी का गठन किया था, उसमें उनके साथ हेमवती नंदन बहुगुणा और नंदिनी सत्पथी भी थीं. यह पार्टी भी जनता पार्टी में विलीन हुई.
1977 के चुनाव में जनता पार्टी की जीत हुई और केंद्र में उसकी सरकार बनी. दो वर्ष बाद ही 1979 में चरण सिंह ने जनता पार्टी से अलग होकर जनता सेकुलर पार्टी का गठन किया, जो बाद में लोकदल बना. भारतीय जनसंघ भी अलग हुआ और 1980 में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) का निर्माण किया. अचानक ‘भारतीय’, ‘जनता’, ‘समाजवाद’, ‘लोक’ शब्द राजनीतिक दलों के नामकरण में प्रमुख हो उठे.
अस्सी के दशक के अंत (1988) में वीपी सिंह ने कांग्रेस से अलग होकर ‘जनमोर्चा’ बनाया. लोकदल जनता दल में विलीन हुआ. जनता दल के भीतर दो वर्ष में ही टूट आरंभ हो गयी. चंद्रशेखर और देवीलाल ने अलग होकर 1990 में समाजवादी जनता पार्टी (राष्ट्रीय) बनायी. दो-दो वर्ष बाद टूट होती गयी. 1992 में मुलायम सिंह ने अलग होकर समाजवादी पार्टी (सपा) गठित की. फिर दो वर्ष बाद 1994 में जनता दल से अलग होकर जॉर्ज फर्नाडीज और नीतीश कुमार ने समता पार्टी स्थापित की.
दो वर्ष बाद 1996 में लोकदल पुन: टूटा और अजित सिंह का राष्ट्रीय लोकदल बना. एक वर्ष बाद 1997 में लालू प्रसाद ने जनता दल से अलग होकर राष्ट्रीय जनता दल (राजद) का गठन किया. जनता दल से रामकृष्ण हेगड़े निष्कासित हुए और लोकशक्ति पार्टी गठित हुई. नवीन पटनायक भी जनता दल से अलग हुए और उन्होंने बीजू जनता दल (बीजद) को जन्म दिया. देवीलाल के सुपुत्र ओमप्रकाश चौटाला ने 1998 में भारतीय राष्ट्रीय लोक दल (भारालोद) का गठन किया. 1999 में कर्नाटक में एचडी देवगौड़ा ने जनता दल सेकुलर की स्थापना की. एक वर्ष बाद रामविलास पासवान ने अलग होकर लोक जनशक्ति पार्टी कायम की. 2003 में समता पार्टी जदयू में विलीन हुई.
जनता पार्टी की अस्सी के दशक में शुरू हुई विभक्तीकरण की धीमी प्रक्रिया नब्बे के दशक में अधिक तीव्र हुई. यह वह दौर था, जब भारत एक ‘नये’ मार्ग की ओर उन्मुख हो रहा था. नवउदारवादी अर्थव्यवस्था के उस दौर के व्यक्तिवाद ने राजनीतिक दलों में एक नयी ‘व्यक्ति-चेतना’ विकसित की, जिसका सामाजिक चेतना (दलीय चेतना) से कोई संबंध नहीं था.
औंधे मुंह सबको गिरना था. दक्षिणपंथी शक्तियों को हावी होना था. राज्य-कॉरपोरेट गंठबंधन को उस मुकाम तक पहुंचना था, जहां पर पहुंचने के बाद कुछ भी महत्वपूर्ण नहीं रह जाता-न चुनाव-प्रचार, न दल, न तौर-तरीके. राजनीति में परिवारवाद, वंशवाद, जातिवाद को किनारे होना था. धर्म का स्थान भी दूसरा था. पहले स्थान पर था ‘विकास’ और ‘गुड गवर्नेस.’ इसे कांग्रेस नहीं समझ सकी. आडवाणी और जोशी भी समझने-पहचानने में असफल रहे. आज उपभोक्ता बाजार, विज्ञापन, चमकीले नारों-मुहावरों का महत्व है, आकर्षण है, जादू है. मोदी के आकर्षण और ‘जादू’ के पीछे यही सब है.
सपा के मुलायम सिंह, जदयू के नीतीश कुमार और शरद यादव, राजद के लालू यादव, जनता दल सेकुलर के एचडी देवगौड़ा, भारालोद के दुष्यंत चौटाला और समाजवादी जनता पार्टी के कमल मोरारका में उन्हें और दुष्यंत चौटाला को छोड़ कर शेष नेताओं की राष्ट्रीय छवि है (थी). पर, इनकी राजनीतिक समझ और दृष्टि अतीत की है, मोदी की वर्तमान और भविष्य की. 1989-90 में जिस तीन ‘एम’ (मंदिर, मंडल, मार्केट) की थोड़ी चर्चा हुई थी, उस समय राजनीति में मंदिर-मंडल का मुद्दा प्रमुख था.
बाजार पीछे था. अब बाजार हावी है. मोदी बाजार, कॉरपोरेट और विकास के नेता हैं. अब वे ‘हिंदू हृदय-सम्राट’ से कहीं अधिक बाजार और कॉरपोरेट हृदय-सम्राट हैं. वे विकास और ‘गुड गवर्नेस’ की बात करेंगे और संघ परिवार हिंदू धर्म की बात करेगा. भारत जैसे देश में विकास की राजनीति धार्मिक राजनीति को नहीं छोड़ सकती.
छह राजनीतिक दलों के नेताओं को आज की यह राजनीति समझनी होगी. लालू, मुलायम और देवगौड़ा की छवि पाक-साफ नहीं है. नीतीश-शरद की छवि अपेक्षया साफ है. ये सभी दल ‘समाजवाद’ से अपने को जोड़ते हैं. मुलायम, लालू, देवगौड़ा व दुष्यंत का परिवारवाद आड़े आयेगा. विलय के बाद नयी संभावित पार्टी ‘समाजवादी जनता दल’ को राष्ट्रीय पार्टी का दरजा मिल सकता है.
मोदी की एकमात्र काट यह है कि उनका ‘विकास-दर्शन’ कॉरपोरेट के लिए है, उनके संगी-साथियों के लिए है, मध्यवर्ग और उपभोक्ता वर्ग के लिए है. अस्सी-नब्बे करोड़ भारत की जनता का अपना सही राजनीतिक दल कौन है, कौन होगा- यही सवाल अहम है. राजनीतिक दलों की एकता का असली उद्देश्य भारतीय जनता से असली, ईमानदार रूप से जुड़ने का है, उसका अपना बनने का है. भारत की जनता वैसे दलों को कंधे पर बिठा लेगी, और जो कंधों पर बैठने की कोशिशों में लगे हैं, उन्हें उतार फेंकेगी.

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