आज जब हम नये वर्ष 2015 का इंतजार कर रहे हैं, हम हमेशा की तरह ही भविष्य को लेकर आशंकित हैं. हम इस सोच में पड़े हैं कि क्या सद्भाव की आकांक्षा करना और शांति के लिए प्रार्थना करना संभावना से कहीं आगे की चीजें हैं. शायद हमें एक बच्चे की तरह सिर्फ संभव चीजों पर ही केंद्रित रहना चाहिए.
हम ईश्वर में आस्था सिर्फ इसलिए नहीं रखते कि मनुष्य उसकी शानदार रचना है. नैतिक रूप से द्विध्रुवीय प्रजाति की उपलब्धियों से सीखने के लिए बहुत कुछ बाकी नहीं बचा है. किसी जमाने में गजनी के लुटेरे सुल्तान के आने के बाद शांति दूत सूफी ख्वाजा मुईनुददीन चिश्ती भारत आये, और कुछ समय पहले विनाशक तालिबानियों से पहले गांधीवादी खान अब्दुल गफ्फार खान हुए. यह तुलना एक छद्म समकक्षता का आभास करा सकती है कि अच्छाई और बुराई अपनी धुरी पर गेंदनुमा घूमती इस धरती पर समान रूप से मौजूद हैं. हमारा अधिकांश समय हिंसा और उसके अन्य बर्बर प्रतिरूपों से बचने और जूझने में ही बीत जाता है. जीवन में जिन चीजों की कमी हम महसूस करते हैं, ईश्वर उन सबका एक स्थायी आदर्श रूप है- प्रेम, सुरक्षा और न्याय, उस दुनिया में जहां दर्द जीवन का समानार्थी बन चुका है. न्याय की हमारी आवश्यकता इतनी बेचैन है कि हम नर्क के रूपक खोजने में अपनी कल्पनाशीलता को अत्यंत विषाक्त बना देते हैं.
हर धर्म वर्ष में कुछ दिन धरती के समयानुरूप एक अस्थायी स्वर्ग जैसा रचने के लिए नियत रखता है, जब देवदूतों का एक समूह अवचेतन में मधुर गीत गाता है. इन दिनों को आधिकारिक तौर पर शांति और उदारता का मौसम घोषित किया जाता है. ‘दान’ एक संकीर्ण शब्द है, जिसमें दंभ घुले होने का भास होता है. इसलामिक विचारधारा में इसका एक समाधान है : दान गुमनाम होना चाहिए, ताकि अहंकार न पैदा हो सके. लेकिन अगर देने के उचित तरीके हैं, तो बच्चे की आंखों व दिल के जरिये उसे पाने का बेहतरीन तरीका भी है. बच्चा इच्छा प्रकट करता है, पर उसे धन से मतलब नहीं होता. वह आनंद से मूल्य का निर्धारण करता है, खर्च से नहीं. आम बोध के विपरीत, बच्चा यथार्थवादी भी होता है. जहां गुब्बारे से भी काम चल जाये, वहां एक वयस्क लालच या आकांक्षा या आगे बढ़ने की भावना या अवसाद से वशीभूत होकर अंतरिक्षयान की मांग कर सकता है, लेकिन एक बच्चा गुब्बारे पाकर ही खुश हो जाता है और उसे ही अंतरिक्षयान में परिवर्तित कर देता है. बच्चे के लिए सबसे अच्छा उपहार न तो पेड़ से लटकाया जा सकता है और न ही सजे हुए डिब्बे में दिया जा सकता है. यह उपहार है समय का उपहार.
जबकि ईसाई स्तुतियों व गीतों में प्रभु के चरणों में सोना, अगरबत्तियां और लोबान अर्पित करनेवाले राजाओं की प्रशंसा की जाती है, जीसस क्राइस्ट और नैटिविटी कथाओं के जन्म दिन के रूप में मनाये जानेवाले क्रिसमस के बारे में एक मुख्य प्रश्न शायद ही कभी पूछा जाता है. उनकी माता मैरी ने बच्चे को क्या दिया था? समय, पालने से लेकर सलीब तक.
निश्चित रूप से तीन विशिष्ट व्यक्तियों या राजाओं या भविष्यवक्ताओं के उपहार सांस्कृतिक अपूर्वता के सर्वाधिक विख्यात उपहार हैं, जो एक धर्म विशेष की परिधि से बहुत पहले ही व्यापक हो चुके हैं. जैसा कि हर स्मृति में होता है, इस कथा के भी कई संस्करण हैं. संत मैथ्यू का टेस्टामेंट कहता है कि ये राजा एक सितारे के अनुसरण करते हुए अपने गंतव्य बेथलेहम पहुंचे थे. आस्था को विशिष्ट रूप देने के लिए सदैव प्रयासरत विद्वानों का मानना है कि भविष्यवक्ता पारसी थे, और पवित्र ज्योति के संरक्षक एवं खगोल शास्त्र, ज्योतिष और चिकित्सा पद्धति के विशेषज्ञ थे. वे सिल्क रूट के जरिये, जो वर्तमान में साम्यवादी और ईश्वरहीन चीन की धुन है, ईरान या भारत से गये हुए हो सकते हैं. लेकिन, इस बात से सभी सहमत हैं कि वे पूर्व से आये थे.
ईसाइयत ऐसा व्यापक पाश्चात्य तथ्य बन चुका है कि हम उसके एशियाई उद्भव को भूल जाते हैं. प्रारंभिक चचरें की चित्र-परंपरा में धर्म के पहले परिवार को धूसर रंगों में अभिव्यक्त किया गया, न कि सफेद के भिन्न रूपों में, जैसा कि पुनर्जागरण के बाद के चित्रों में हुआ है. मैरी के सिर पर पहले भी और अब भी एक साधारण चादर रहता है, जो उस समय की परंपरा थी. यह भी आसानी से भुला दिया गया कि कुरान में मैरी पर एक अध्याय है और मुसलिम समुदाय जीसस (जिन्हें ईसा कहा जाता है) को अपने महान पैगंबरों में शुमार करते हैं. कुरान ईसा को रूहाल्लाह यानी अल्लाह की आत्मा के रूप में अभिनंदित करता है. मुसलमान नहीं मानते हैं कि ईसा को सलीब पर चढ़ाया गया था, बल्कि उन्हें बचा कर ईलाज किया गया और वे रोमन साम्राज्य की सीमाओं से बाहर निकल कर पूरब की ओर उपदेश देने के लिए चले गये थे.
हालांकि क्रिसमस विवादों के बारे में नहीं है. आनंद मनाएं कि तुर्की अपने एक प्रसिद्ध पूर्वज सांता क्लॉज को लेकर गौरवान्वित हो रहा है. दरअसल, क्रिसमस के उपहार लानेवाले का दिव्य चेहरा स्लेज पर चढ़ कर आनेवाले एक उत्तर यूरोपीय नस्ल के बूढ़े का नहीं है. संत निकोलस का जन्म तुर्की के दक्षिणी इलाके में वर्ष 270 में हुआ था. उस जमाने में वहां ईसाई बहुसंख्यक थे. संत निकोलस माइरा के बिशप बने. आज इस शहर को देम्रे के नाम से जाना जाता है. स्थानीय लोग अपने इस नायक को ‘नोएल बाबा’ के संबोधन से सम्मान देते हैं और उनका चर्च पर्यटकों के लिए बड़ा आकर्षण है. बिशप को उनकी मृत्यु के बाद ही संत की पदवी दी गयी थी, क्योंकि उन्होंने पिता द्वारा मारे गये तीन पुत्रों को जीवित कर दिया था. उनके बारे में एक दारुण कथा यह भी है कि उन्होंने दहेज के अभाव में गुलामी के लिए बेची जानेवाली बेटियों की भी रक्षा की थी. वे उनके घर पर बोरे में भर कर सोना लाये और फिर सब कुछ अच्छा हो गया. जिन्हें मजेदार बातों में दिलचस्पी है, उनके लिए जानकारी यह है कि संत निकोलस ने कभी भी लाल रंग का पोशाक नहीं पहना था. सांता क्लॉज की यह पोशाक कोका कोला कंपनी के मार्केटिंक विभाग का पॉप संस्कृति को दिया गया योगदान है.
आज जब हम नये वर्ष 2015 का इंतजार कर रहे हैं, हम हमेशा की तरह ही भविष्य को लेकर आशंकित हैं. हम इस सोच में पड़े हैं कि क्या सद्भाव की आकांक्षा करना और शांति के लिए प्रार्थना करना संभावना से कहीं आगे की चीजें हैं. शायद हमें एक बच्चे की तरह सिर्फ संभव चीजों पर ही केंद्रित रहना चाहिए. प्रार्थना करें कि अगले 51 सप्ताहों तक भारत में शांति रहे, और भारतीयों में परस्पर सद्भावना हो. इस अवधि के बाद आनेवाला 52वां सप्ताह अपनी चिंता आप ही कर लेगा.
एमजे अकबर
प्रवक्ता, भाजपा
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