नरेश गुप्त
जनमने के लगभग 15 वर्षो बाद, झारखंड में सरकार होने की आहट (धमक) मिल रही है. स्टेट पावर की मौजूदगी यानी सरकार के इकबाल-प्रताप और उसके होने का एहसास. इसके पहले कैसी छवि या पहचान रही है, झारखंड की?
पूरे देश में झारखंड, अराजक, भ्रष्ट, कानून का राज न होना, कोलैप्स्ड स्टेट (ध्वस्त या खंडहर राज्य) के रूप में. झारखंड, नाम (संज्ञा) न रहकर, विशेषण (अराजकता-अशासन) बन गया था. झारखंड के अंदर रहनेवाले, हर सांस में इसके कुशासित होने और इसके कुराज का एहसास करते थे.
रघुवर दास (महज 20 दिनों पुरानी सरकार) के शुरुआती संकेत साफ हैं कि कानून का राज, संविधान का राज, झारखंड जनमने के बाद पहली बार कायम हो रहा है. प्रीमैच्योर बेबी (समय से पहले जन्मा बच्च) को इक्वेवेटर (कृत्रिम जीवन संचालक यंत्र) में डालने की प्रथा रही है. फिर प्रकृति भरोसे जीवन. उसी तरह पैदा होने के बाद से ही झारखंड इक्वेवेटर में ही रहा है.
न कानून का राज, न स्वस्थ राजनीतिक परंपरा का जन्म. अनियंत्रित भ्रष्टाचार. झारखंड की धमनियों में बीमार राजनीतिक संस्कृति, बेशर्म सार्वजनिक आचरण और ध्वस्त राज व्यवस्था का गंदा खून जमने लगा था. इसी दौर में रघुवर दास ने चुनावों के बाद बनी सरकार की रहनुमाई शुरू की. पुरानी कहावत है, पूत के पांव पालने में यानी शुरूआत के ही संकेत, भविष्य की झलक दिखाते हैं.
इस तौर पर इस सरकार के शुरुआती संदेश (महज 20 दिनों पुरानी सरकार) पस्त झारखंडियों के लिए हौसला बढ़ानेवाले हैं. क्यों और कैसे? जनवरी 07, 2015 की खबर थी, आठ आइएएस अधिकारियों का तबादला. इसके अंदर की सूचना थी कि मुख्यमंत्री ने अच्छे अधिकारियों से पूछा कि उन्हें कहां पोस्टिंग चाहिए? हमें आपका बेस्ट परफॉरमेंश चाहिए. यह झारखंड के लिए एक नयी परंपरा है.
दिल्ली या देश के अन्य बेहतर राज्यों में यह स्थापित परंपरा रही है, बेहतर और ईमानदार लोगों की टीम ही चीजों को आगे ले जाती है. झारखंड में यह हालात बन गये थे कि ईमानदार होना, इफीशिएंट होना, अवगुण घोषित हो गये थे. अच्छे अफसरों से पूछ कर उन्हें अच्छी जगहों पर बैठाना तो असंभव बात थी. 15 वर्षो के दौरान अच्छे अफसरों की प्रताड़ना का ब्योरा एकत्र किया जाये, तो इतिहास बन जायेगा. अच्छे अफसर राज्य छोड़ कर भागने लगे थे.
उस दौर में अच्छे अफसरों से पूछ कर उन्हें विभाग देना, एक सुखद परंपरा का संकेत है. स्वास्थ्य विभाग में जिस सचिव ने अच्छी शुरुआत की थी, उन्हें बदल दिया गया था. इसी तरह कृषि विभाग में, जिसने ईमानदार पहल की, उसे बदला गया. इन दोनों अफसरों की उन्हीं पदों पर वापसी, यह संकेत है कि यह परंपरा आगे चली, तो राज्य की भ्रष्ट कार्यसंस्कृति बदलेगी. ईमानदारी और कर्मठता को पुरस्कार मिलेगा.पर इससे भी महत्वपूर्ण बात.
12 जनवरी, 2015 को इस सरकार ने एक ऐसे उपसचिव को हटाने का आदेश दिया, जो एक व्यक्ति नहीं, अपने कामों से विशेषण बन गये. गुजरे 15 वर्षो में लगभग हर सरकार में (थोड़ा-बहुत अपवाद के साथ) उनकी तूती रही. वह हर सरकार के आभूषण थे. वह चमत्कारी पुरुष मान लिये गये. अलग-अलग विचारधाराओं के विरोधी नेता भी उनके गुणों के कायल रहे. अंदरखाने की सूचना तो यह थी कि वह मुख्य सचिव, सचिव जैसे लोगों की नियति तय कर रहे थे. उपायुक्त वगैरह तो उनके लिए मामूली पद थे. बड़े ठेके निपटाने के काम भी वह जिस कुशलता से करते थे, वह पूरे राज्य में चर्चा का विषय रहा है.
झारखंड में सरकार का मतलब धनस्नेत है, यह ऐसे अफसरों ने अपने कामकाज से साबित कर दिया था. 15 वर्षो में वह हर सरकार में छाये रहे. क्योंकि वह व्यक्ति नहीं रह गये थे, बल्कि अपनी कार्यसंस्कृति, बुद्धि और कौशल से एक संस्कृति बन गये थे. वह संस्कृति जिसमें न रंग लगे न फिटकिरी की शैली में, बिना कागज पर कुछ किये सारा खेल कर लेने में माहिर. इसलिए उनकी पूछ हर दरबार में थी. एक-दूसरे के विरोधी, जानलेवा राजनीतिक शत्रुओं के बीच समान रूप में थी. वह तरह-तरह की विरोधी ताकतों को एक साथ, साध और संभाल सकते थे. झारखंड में होड़ शुरू हो गयी कि इस खास अफसर के पदचिह्न् पर चल कर, उसके गुणों को अपना कर कैसे अपना कद अफसर बढ़ा लें. यही बीमार संस्कृति झारखंड को तबाह और नाश करने के मूल में भी थी. इस अफसर ने कितना अच्छा इंतजाम किया था.
खुद का प्रमोशन हो, इसलिए अपने रैंक के 135 अफसरों की एकसाथ प्रोन्नति की योजना बना दी. यह शायद ही देश के किसी अन्य राज्य के इतिहास में हुआ हो. दूर-दृष्टि इतनी कि पिछली सरकार की अपनी ‘ख्याति’ से सहमें, अपने भविष्य का भी जुगाड़ कर लिया. वह एक बार ऐसा पहले भी कर चुके थे. पर इस बार हाथ लंबा था. देश के एक सर्वोच्च संस्थान में अपना दाखिला कराया. यह दाखिला कैसे हुआ, इसकी लंबी कहानी है. पर यह विषयांतर होगा. उन्हें जून 2015 से दो वर्ष के लिए सवैतनिक अवकाश मिला. यह भी शासन की परंपरा में अनहोनी चीज थी.
पर कहावत है का डर जब सइंया भये कोतवाल. कोई नियम-कानून, परंपरा नहीं, अगर आप सामथ्र्यवान हैं. यही तो झारखंड की पहचान बनी. ऐसे अफसर के खिलाफ कार्रवाई कर, एक मैसेज (संदेश) देने का बड़ा काम हुआ है, झारखंड में. अगर झारखंड में कानून के राज का प्रताप लौटना है, राजसत्ता का इकबाल स्थापित होना है, तो इस परंपरा को बहुत दूर तक आगे ले जाना होगा. मुख्यमंत्री के तौर पर रघुवर दास ने उल्लेखनीय काम किया, राज्य में चुनावी माहौल से उपजी धुंध को छांटने और साफ करने का. उन्होंने साफ -साफ कहा कि सीएनटी और एसपीटी एक्ट में बदलाव नहीं होगा. जो लोग सीएनटी-एसपीटी और भितरी-बाहरी नारों की पूंजी के बल राजनीति करते रहे हैं, यह उनके लिए मुसीबत है.
कारण, अब जनता नारों की दुकान से उब गयी है. वह परफॉरमेंश चाहती है. रिजल्ट चाहती है. एक बेहतर और बदला हुआ झारखंड देखना चाहती है. एक जनवरी को खरसावां में जाकर उन्होंने गोलीकांड के शहीदों के परिजनों को एक-एक लाख देने की घोषणा की. मुख्यमंत्री की यह पहल, सिर्फ नारों के बल राजनीति करनेवालों के लिए सदमा जैसी है. साथ ही विधानसभा में, दुमका में हाइकोर्ट का सर्किट बैंच बनाने का प्रस्ताव पारित किया. जो लोग सिर्फ आदिवासियों के हित की पूंजी के आधार पर राजनीति (या ठेकेदारी) करते रहे हैं, उन लोगों से यह पूछा जायेगा कि ये सारे कदम आपने तब क्यों नहीं उठाये, जब आप सत्ता या गद्दी में थे. वैसे भी अब यह बात साफ हो गयी है कि किसी भी कौम, समाज या इंसान के लिए, कुछ करने के लिए उस संबंधित जाति या वर्ग का होना जरूरी नहीं. इसके उदाहरण भरे पड़े हैं.
राजा राममोहन राय औरत नहीं थे, पर औरतों की सती प्रथा के प्रति उन्होंने सबसे अधिक, शिद्दत से पीड़ा महसूस की. गांधी, दलित नहीं थे, पर गांधी का दौर याद करिए. वह कट्टर समाज और उनके बीच गांधी का जाति, छुआ-छूत और भेदभाव के खिलाफ आंदोलन. या बैरियर एल्विन, जो जन्मजात विदेशी थे, पर आदिवासियों के लिए अपना जीवन खपा देनेवाले. ऐसे अनेक उदाहरण हैं. रघुवर दास ने मूल आदिवासी सवालों पर रुख साफ कर यह संकेत दिया है कि वह आदिवासियों के हित की कीमत पर कुछ नहीं होने देंगे.
मुख्यमंत्री ने टाटा स्टील के नोवामुंडी लौह अयस्क खदान के लीज नवीनीकरण का फैसला कर उम्मीद भरा संकेत दिया है. कोयला, लौह अयस्क वगैरह मामले में झारखंड को सिर्फ दागदार ख्याति ही अब तक मिली है. माना जाता रहा है कि इस तरह के हर फैसले के पीछे गणित है. संभव है, कुछेक फैसले सही और ईमानदार तरीके से लिये गये हो. पर मैसेज यही गया कि मोलभाव के बगैर झारखंड में कुछ होता ही नहीं. देश के औद्योगिक घरानों के बीच आज भी टाटा की अलग पहचान है.
अपनी कार्यसंस्कृति के कारण, जल्द मोलभाव या तिजारत में शामिल न होने के कारण. वैसे भी झारखंड में टाटा घराने की अलग पहचान है. इस घराने का लीज नवीनीकरण का मामला पुराना पेंडिंग था. बिना किसी सोर्स-पैरवी के, मेरिट के आधार पर यह फैसला, झारखंड के औद्योगिक घरानों के लिए एक सुखद संदेश है. ऐसे और भी घराने झारखंड में हैं, जिन्होंने कई दशकों से झारखंड में सही तरीके से औद्योगिक माहौल बनाने में सार्थक भूमिका निभायी है. जो लोग, झारखंड में सही तरीके से बेहतर औद्योगिक माहौल बनाना चाहते हैं, यह उन सबके लिए शुभ संकेत है. जैनुइन (वैध) तरीके से मेरिट के आधार पर काम होना.
इसके साथ ही रघुवर दास ने अनेक ऐसी घोषणाएं की हैं, जिनसे विश्वास पैदा होता है कि एक स्वच्छ, साफ-सुथरा झारखंड बन सकता है. मसलन,
1. कोई अधिकारी या कर्मचारी, बिना बुलाये मुख्यमंत्री आवास पर नहीं आये – बड़े से बड़े अधिकारी या कर्मचारी बिना मुख्यमंत्री के बुलाये या बिना किसी अति आवश्यक काम के न आये.
2. अगर कोई बिचौलिया, सरकार में तबादला, ठेका या गलत काम कराने का प्रलोभन दे. या कहे कि मुख्यमंत्री, मंत्री या बड़े अफसर को वह जानता है, और काम करा सकता है, तो मुख्यमंत्री की इच्छा है कि इसकी सूचना निगरानी ब्यूरो या मुख्यमंत्री सचिवालय में दी जाये – झारखंड की बीमार कार्यसंस्कृति के लिए यह फैसला या ऐसे अन्य फैसले संजीवनी या ऑक्सीजन की तरह है. लोगों का कहना है कि झारखंड में जो उद्योग सबसे अधिक फैला-फूला, वह तबादला उद्योग है, पैरवी उद्योग है या बिचौलियों की बड़ी जमात का उदय होना है. बिना श्रम-परिश्रम के, महज दलाली से अरबपति बननेवालों का राज होना. इस राज्य में मुख्यमंत्री के ऐसे फैसले, उम्मीद पैदा करते हैं.
3. सीएम ने अपनी सुरक्षा कम करने का आदेश दिया. हूटर बजाने से मना किया – झारखंड के नेता अपनी सुरक्षा में लगे सुरक्षाकर्मियों से आम जनता को डराने, हूटर बजाने और धमकाने का ही काम कराते थे. वहां इस राज्य में यह पहल कायम रहे, तो हालात बदलेंगे.
4. मुख्यमंत्री ने अपने बेटे ललित दास की सुरक्षा वापस करायी.
5. मुख्यमंत्री ने पार्टी फोरम से यह भी संदेश दिया है कि अगर कोई आदमी, उनका सगा-संबंधी होने के नाम पर पैरवी करेगा, तो उसके खिलाफ भी कार्रवाई होगी. उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि मुख्यमंत्री हो या मंत्री या विधायक, वे सरकारी कामकाज में हस्तक्षेप न करें. दखल न दें. इस बात को पढ़ते हुए ध्यान रखिए कि यह वही राज्य है, जहां मंत्री, अफसरों को पीटते थे. गाली देते थे. बदसलूकी करते थे. आइएएस अफसरों के साथ बदसलूकी करते थे.
6. उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि थानेदार अब पोस्टिंग के लिए घूम-घूम कर पैरवी करते नजर आयेंगे, तो वे दंड के भागीदार होंगे. झारखंड के लिए ऐसी चीजें, ‘लाइफ सेविंग ड्रग्स’ (जीवन रक्षक दवाएं) की तरह हैं. ऐसी बुनियादी चीजें न हों, तो झारखंड जिस तरह अशासित-अराजक हो गया था, कानून संविधान के परे चला गया था, उसके पुनर्जीवन की संभावना कम थी. झारखंड संविधान और कानून से परे एक राज्य के रूप में विकसित हो रहा था. आज झारखंड के लिए गुड गवर्नेंश या आदर्श राजनीतिक परंपराएं आक्सीजन की तरह जरूरी हैं. इसके खून को नया करने के लिए. इसके कायाकल्प के लिए. इसके पुनर्जन्म के लिए.
बाबूलाल मरांडी (दोनों चुनाव क्षेत्रों से हारे), हेमंत सोरेन (दो में से एक विधानसभा क्षेत्र में हारे), अजरुन मुंडा, मधु कोड़ा और सुदेश महतो की पराजय का संकेत समझना होगा. ये सब झारखंड के ताकतवर राजनेता रहे हैं. जनता अब नारों पर नहीं, काम पर यकीन कर रही है. यह जनता की बेचैनी का संकेत है. वह बदलाव चाहती है. बेहतर शासन चाहती है. रघुवर दास के लिए इतिहास बनाने का मौका है. इतिहास में इस बात का अर्थ नहीं होता कि किसने कितने दिनों तक शासन किया? शेरशाह, अपने कामकाज के लिए आज भी इतिहास के यादगार अंग हैं.
हालांकि शासन की बागडोर कुछ ही दिनों तक उनके हाथ में रही. लंबे समय तक शासन करनेवाले अनेक स्वनाम धन्य शासक, अतीत में गुम हो गये. सवाल यह नहीं कि आपकी उम्र कितनी लंबी है? प्रश्न यह है कि आप अपनी उम्र के सबसे जीवंत वर्षो में कितना कुछ कर पाते हैं?
रघुवर दास के कामों से लगता है, उन्होंने आधार रखने की शुरुआत की है. पर मंजिल लंबी है. झारखंड को वह क्षण भी चाहिए, जब भ्रष्टाचार करनेवाले अफसर (इनमें से दो के खिलाफ उन्होंने महत्वपूर्ण कदम उठाये हैं, जैसे अफसर) व्यवस्था के सुख न पाये. महज उनके तबादले न हों. वे अपने पापों का दंड भोगे और जेल की सलाखों के पीछे जायें. उम्मीद बनती है कि रघुवर दास ने जो शुरुआत की है, उसका मुकाम यहां तक पहुंचेगा. यह झारखंड के जीवित रहने, बने रहने, फलने-फूलने के लिए जरूरी है.