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मनोरंजन के प्रति सहिष्णु बने सेंसर बोर्ड

आकार पटेल वरिष्ठ पत्रकार मंटो बॉलीवुड के अभिप्राय को समझ सके थे तथा उन्होंने रेखांकित किया था कि इसकी कलात्मक गुणवत्ता की तुलना में इसका खुलापन और सहिष्णुता इसकी सबसे बड़ी विशिष्टताएं हैं. कुछ साल पहले प्रसिद्ध पाकिस्तानी लेखिका मोनी मोहसिन अपनी पुस्तक ‘टेंडर हुक्स’ के विमोचन के सिलसिले में भारत आयी थीं. यह पुस्तक […]

आकार पटेल
वरिष्ठ पत्रकार
मंटो बॉलीवुड के अभिप्राय को समझ सके थे तथा उन्होंने रेखांकित किया था कि इसकी कलात्मक गुणवत्ता की तुलना में इसका खुलापन और सहिष्णुता इसकी सबसे बड़ी विशिष्टताएं हैं.
कुछ साल पहले प्रसिद्ध पाकिस्तानी लेखिका मोनी मोहसिन अपनी पुस्तक ‘टेंडर हुक्स’ के विमोचन के सिलसिले में भारत आयी थीं. यह पुस्तक ‘द फ्राइडे टाइम्स’ समाचार-पत्र में छपे उनके लेखों का संग्रह था. सामाजिक व्यंग्य के रूप में उल्लिखित इस पुस्तक के मुंबई में हुए विमोचन कार्यक्रम में मैं शामिल हुआ था. मेरे साथ उपन्यासकार मित्र नील मुखर्जी भी थे, जिन्हें कुछ महीने पहले बुकर प्राइज के लिए नामांकित किया गया है.
मोहसिन ने पाकिस्तानी समाज और खास लेखन-शैली के चयन के बारे में बहुत बढ़िया तरीके से अपनी बात रखी थी. उनके लेख लाहौर की एक धनी गृहिणी की डायरी के रूप में लिखे गये थे. अपने संबोधन के क्रम में पाकिस्तान और भारत के बीच तुलना करते हुए उन्होंने बॉलीवुड पर एक जुमला उछाल दिया. उन्होंने कहा कि यहां बन रही फिल्मों की गुणवत्ता खराब है और इनकी कोई जरूरत नहीं है.
मोहसिन ने यह भी कह दिया कि इन फिल्मों के बिना भी जीया जा सकता है तथा ईरानी फिल्में इनसे बहुत बेहतर हैं.मैं उनकी बात को ही उद्धृत कर रहा हूं, लेकिन मुङो लगता है कि मैंने उनके बयान का मतलब समझा है. ईरानी फिल्मों के संदर्भ में उनकी बात के बारे में मैं कुछ निश्चित नहीं कह सकता हूं. मैंने कुछ बहुत ही बेकार और उबाऊ ईरानी फिल्में देखी हैं, जिनमें दिसंबर में बेंगलुरु फिल्म फेस्टिवल में प्रदर्शित नासिर जमीरी की ‘विद अदर्स’ भीशामिल है. लेकिन, मेरी अधिक दिलचस्पी बॉलीवुड के बारे में मोहसिन द्वारा कही गयी बात में है.
बरसों पहले इसी तरह की बात सआदत हसन मंटो ने भी कही थी. मंटो के गैर-कहानी लेखों के मेरे द्वारा किये गये अनुवाद संकलन में बॉलीवुड के पहले 25 वर्षो के बारे में एक लेख संकलित है. लेख का मूल शीर्षक ‘हिंदुस्तानी सनत-ए-फिल्मसाजी पर एक नजर’ था.
इसमें मंटो ने बॉलीवुड के शिल्प के बारे में चर्चा की है. उन्होंने लिखा है- ‘हम अच्छी फिल्मों की चाहत रखते हैं. हम महान फिल्में चाहते हैं, जिन्हें हम अन्य देशों की फिल्मों के बरक्स रख सकें. हम भारत के हर पहलू को चमकता हुआ देखना चाहते हैं.. लेकिन पिछले 25 वर्षो में, जिनमें कुल 9,125 दिन होते हैं, हमारे पास दिखाने के लिए क्या है? क्या हम अपने निर्देशकों को सामने प्रस्तुत कर सकते हैं? हमारे लेखकों के बारे में क्या कहा जाये, जो दूसरों का लिखा हुआ उड़ा कर काम चला रहे हैं? क्या हम दूसरों को अपनी फिल्में दिखा सकते हैं, जो अमेरिकी फिल्मों की नकल भर हैं? नहीं.’
मेरी राय में भारत और दुनिया के अन्य हिस्सों में बॉलीवुड का महत्व उसकी कलात्मक गुणवत्ता के चलते नहीं, बल्कि अन्य कारणों से है, जिनके बारे में आगे बात करेंगे. मुङो इस विषय का विचार तब आया, जब मैंने पढ़ा कि सरकार ने निर्माता-निर्देशक पंकज निहलानी को सेंसर बोर्ड के नये प्रमुख के रूप में नियुक्त किया है.
गोविंदा के साथ ‘आंखें’ और अक्षय कुमार के साथ ‘तलाश’ बनानेवाले निहलानी ने इस नियुक्ति के बाद बयान दिया कि वे भारतीय जनता पार्टी के व्यक्ति हैं और प्रधानमंत्री उनके ‘एक्शन हीरो’ हैं. इसमें कोई गलत बात नहीं है, क्योंकि आखिरकार यह एक राजनीतिक नियुक्ति ही है. लेकिन, निहलानी ने यह भी कहा कि टेलीविजन पर बहुत नग्नता है और इसे नियंत्रित किया जाना चाहिए. मुङो तो टेलीविजन पर नग्नता नहीं दिखती है, शायद मैं गलत चैनल देखता हूं. मेरे विचार से निहलानी के कहने का तात्पर्य अश्लीलता से होगा. और इसी बात से मैं बॉलीवुड की गुणवत्ता पर की गयी पहले उल्लिखित टिप्पणियों को जोड़ना चाहता था.
सच्चाई यह है कि ईरान में कुछ अच्छी और गंभीर फिल्में इसलिए बनती हैं, क्योंकि वहां फिल्मकारों को लोकप्रिय मनोरंजक फिल्में बनाने की अनुमति नहीं है. भले ही उन पर ऐसा करने से रोकने के लिए स्पष्ट प्रतिबंध नहीं हो, लेकिन लोकप्रिय मनोरंजन अश्लीलता के पुट के बगैर बनाना संभव नहीं है. ईरान और पकिस्तान के अश्लीलता संबंधी कानून और समाज व संस्कृति की स्थिति फिल्मकारों को स्त्री-पुरुष संबंधों के खुले चित्रण या आम रोमांस को दिखाने की मंजूरी नहीं देंगे.
देश के सबसे उदार शहर मुंबई में अन्य शहरों तथा भारत में उसके पड़ोसी देशों की तुलना में फूहड़ता को लेकर सहिष्णुता के उच्च स्तर के कारण ही बॉलीवुड दक्षिण एशिया में मनोरंजन का केंद्र है. एक दौर था, जब बॉलीवुड में लाहौर और अन्य क्षेत्रों, जिसे आज पाकिस्तान कहा जाता है, के लोगों का वर्चस्व था. लेकिन, प्रतिभा की मौजूदगी, जो मेरे अनुमान से अब भी होगी, के बावजूद लाहौर बॉलीवुड के स्तर का फिल्म उद्योग नहीं खड़ा कर सका, क्योंकि प्रतिभाओं को लोकप्रिय मनोरंजन तैयार करने की अनुमति नहीं दी गयी.
भारत की खुशनसीबी रही है कि सेंसर बोर्ड में खुले विचारों के लोग रहे हैं और यह उनकी सक्रियता (या मुङो उनकी निष्क्रियता कहना चाहिए) है, जिसके कारण फिल्म उद्योग फलता-फूलता रहा है. नग्नता और अश्लीलता से चिंतित और सक्रिय सेंसर बोर्ड बॉलीवुड को ऐसी फिल्मों के बनने की जगह बना देगा, जैसी ईरान या लाहौर में बनती हैं. वे नैतिक फिल्में हो सकती हैं, और उनमें से कुछ कला के लिहाज से बहुत अच्छी भी हो सकती हैं, लेकिन वे मनोरंजक नहीं होंगी. यही कारण है कि बॉलीवुड और हॉलीवुड दो ऐसी जगहें हैं, जहां अश्लीलता और मनोरंजन दोनों ही पैदा होते हैं.
मंटो अपने लेख में कहते हैं : ‘देश को शिक्षित करने के कई तरीके हैं, लेकिन इस पर आम राय है कि फिल्म एक महत्वपूर्ण माध्यम है. फिल्मों के द्वारा जटिल संदेशों को भी पहुंचाना आसान और प्रभावशाली है. व्यक्ति के लिए पढ़ना और बच्चों के लिए स्कूल कठिन काम होता है. कॉलेज में भी स्थिति इससे अलग नहीं होती. पढ़ाई के जरिये किसी बात को ठीक से समझने में महीनों लग सकते हैं, लेकिन फिल्मों से इसे तुरंत संचारित किया जा सकता है.
भारत को ऐसी मनोरंजक फिल्में चाहिए, जो शिक्षित करें, मस्तिष्क को सक्रिय करें तथा हमें नये विचारों और समझ से परिचित करायें.’ मंटो ने यह 1938 में लिखा था, जब वे मात्र 26 वर्ष के थे और फिल्मी कैरियर के शुरुआती दौर में थे.
हालांकि बाद में इस विषय पर उन्होंने नहीं लिखा, पर अश्लीलता के प्रति समाज की सहिष्णुता पर उनके विचार उनकी कहानियों के जरिये सर्वविदित हैं. मंटो बॉलीवुड के अभिप्राय को समझ सके थे तथा उन्होंने रेखांकित किया था कि इसकी कलात्मक गुणवत्ता की तुलना में इसका खुलापन और सहिष्णुता इसकी सबसे बड़ी विशिष्टताएं हैं.

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