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विशेष आलेख : अलवर, मेरठ और गोधरा के ‘गोडसे’

उर्मिलेश वरिष्ठ पत्रकार पुल पर गोडसे के नाम की पट्टिका लगाने या गोडसे का मंदिर बनाने का प्रयास करनेवाले नहीं जानते कि वे क्या कर रहे हैं? अब तक तो वे गोपाल गोडसे की तरह किसी मनहूस अंधेरे में पड़े थे. बाहर निकल कर अपने जहरीले करतब दिखाने का दुस्साहस उनमें कहां से आया? बीते […]

उर्मिलेश
वरिष्ठ पत्रकार
पुल पर गोडसे के नाम की पट्टिका लगाने या गोडसे का मंदिर बनाने का प्रयास करनेवाले नहीं जानते कि वे क्या कर रहे हैं? अब तक तो वे गोपाल गोडसे की तरह किसी मनहूस अंधेरे में पड़े थे. बाहर निकल कर अपने जहरीले करतब दिखाने का दुस्साहस उनमें कहां से आया?
बीते सोमवार को अलवर में 750 मीटर लंबे फ्लाइओवर पर रात के अंधेरे में आये ‘कुछ लोगों’ ने नाम-पट्टिका लगी दी- ‘राष्ट्रवादी नाथूराम गोडसे पुल.’ यह पुल हाल में तैयार हुआ है. इसका विधिवत उद्घाटन व नामकरण बाकी था. कुछ दिनों पहले मेरठ के पास कुछ ‘हिंदुत्ववादी राष्ट्रवादियों’ ने गोडसे की प्रतिमा के साथ मंदिर बनाने की कोशिश की, जिसे यूपी शासन ने विफल कर दिया.
इससे पहले एक भाजपा सांसद ने भी गोडसे का महिमामंडन किया था, जिन्हें चौतरफा विरोध के बाद बयान वापस लेना पड़ा. संघ परिवार के एक संगठन ने भारत को ‘हिंदू राष्ट्र’ बनाने की मांग पूरी होने में हो रहे ‘विलंब’ के मद्देनजर फिलहाल हिमाचल को ‘हिंदू राज्य’ बनाने की मांग की है. कुछ दिन पहले केंद्र सरकार के एक विज्ञापन में भारतीय संविधान की उद्देश्यिका से ‘सेक्युलर’ और ‘समाजवादी’ शब्द को गायब पाया गया. इतना सब अनायास नहीं हो सकता.
मैंने भाजपा के एक वरिष्ठ नेता से पूछा, ‘आप लोगों के केंद्र की सत्ता में आने के बाद यह सब क्या हो रहा है, गोडसे जैसे हत्यारे और देशद्रोही का ऐसा महिमामंडन क्यों?’ संजीदा किस्म के उक्त नेता ने फरमाया कि ये सब वे लोग हैं, जो भाजपा या आरएसएस की विचारधारा में परिपक्व नहीं हैं. ऐसे तत्वों का भाजपा-संघ से कोई रिश्ता नहीं! मैंने पूछा, ‘वह सांसद तो आपकी ही पार्टी के हैं, जिन्होंने गोडसे में एक महान देशभक्त देखा था.’ उनका जवाब था, ‘सांसद को बयान वापस लेना पड़ा.’
अब तक ऐसा क्यों नहीं हो रहा था? आखिर ऐसा क्या बदला कि इस ‘कुछेक लोग’ अचानक गांधी के हत्यारे में ‘एक महान देशभक्त और राष्ट्रवादी’ देखने लगे? गोडसे को नफरत के साथ देखनेवाले देश में ‘कुछेक लोगों’ को अपने जहरीले विचार रखने का दुस्साहस कहां से मिला? अतीत की कांग्रेस-नेतृत्व वाली सरकारें हों, राष्ट्रीय या संयुक्त मोर्चा की सरकारें हों या यहां तक कि वाजपेयी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार हो, ऐसा तो पहले कभी देखा या सुना नहीं गया!
पहले से आज क्या अलग है, जो ऐसे तत्वों को ताकत दे रहा है? बहुत खोज-पड़ताल के बाद सिर्फ एक ही बात दिखाई देती है- केंद्र की नयी सरकार में भाजपा को पूर्ण बहुमत. मैं जानता हूं, भाजपा के संजीदा और वरिष्ठ नेता इस तथ्यान्वेषण को सिरे से खारिज करेंगे. लेकिन, मेरी जिज्ञासा का क्या उनके पास कोई उत्तर है कि ऐसे खुराफाती तत्वों के खिलाफ सरकार ने अब तक कौन से निर्णायक कदम उठाये हैं? संघ, शिवसेना और भाजपा के कई नेताओं को ‘ऑन रिकार्ड’ गांधीजी की नृशंस हत्या को ‘गांधी-वध’ कहते सुना गया है.
इस तरह की शब्दावली क्या बताती है? अच्छी बात है, सत्तारूढ़ पार्टी के वरिष्ठ केंद्रीय नेता आज बयानों में पहले के मुकाबले ज्यादा संजीदा और संयत दिखते हैं, लेकिन मौके-बेमौके उनके ‘मन की बात’ सामने आ ही जाती है. ऐसे में यह तो पूछा ही जाना चाहिए कि समाज में उभरती इस खतरनाक मानसिकता और सत्ता की नयी संस्कृति के बीच आखिर क्या रिश्ता है?
गांधीजी के हत्यारे नाथूराम गोडसे को मैंने नहीं देखा है. तब पैदा भी नहीं हुआ था. लेकिन उसके भाई और गांधी-हत्या के सह-अभियुक्त गोपाल गोडसे को न केवल देखा था, अपितु अक्तूबर, 2004 में उसका इंटरव्यू भी किया था. तब मैं एक प्रमुख हिंदी दैनिक के विशेष संवाददाता के रूप में महाराष्ट्र कवर करने गया था. बहुत खोज-पड़ताल करते पुणो में 754, सदाशिव पेठ स्थित गोपाल गोडसे के फ्लैट में पहुंचा. वह फड़तरे चौक के पास कुम्टेकर रोड पर था.
लंबी बातचीत के दरम्यान गोपाल गोडसे ने बहुत सी बातें बतायीं. इंटरव्यू का बड़ा हिस्सा अखबार में छपा भी. जो बातें आज बहुत प्रासंगिक हैं, उन्हें बताना यहां जरूरी समझता हूं. अपने हस्ताक्षरित बयान (जिसके एक अहम हिस्से की प्रति मेरे पास आज भी सुरक्षित है) में गोपाल गोडसे ने माना कि नाथूराम का सिर्फ हिंदू महासभा से ही नहीं, आरएसएस से भी गहरा संबंध था.
वह सावरकर से बहुत प्रभावित था. गोपाल गोडसे भी 1931 से 39 के बीच आरएसएस के साथ रहा. सांगली, पुणो और कुछ अन्य जगहों पर काम किया. दोनों भाइयों को बाद के दिनों में आरएसएस से कुछ नाराजगी भी हुई, कि यह संगठन पहले की तरह अपनी हिंदुत्ववादी कट्टरता में कुछ कमी क्यों कर रहा है? गोपाल ने यह भी बताया कि 1940 में वह सेना में भर्ती हो गया और पर्शिया-इराक मोर्चे पर लड़ा.
बाद में सेना से अलग होकर एक अन्य सरकारी संगठन में काम करने लगा. 30 जनवरी, 1948 को महात्मा गांधी की हत्या के बाद 5 फरवरी, 1948 को उसे पुणो के करकी नामक स्थान से गिरफ्तार किया गया. गांधी हत्या के मामले में नाथूराम और नारायण आप्टे को फांसी हुई, पर सह-अभियुक्त गोपाल गोडसे को 18 साल की सजा हुई.
बाद में वह जेल से रिहा होकर पुणो में रहने लगा. गोपाल गोडसे से मेरी जितनी देर बात हुई, उससे कहीं भी ऐसा नहीं लगा कि 84-85 साल की उम्र में भी नाथूराम के भाई को उसके कुकर्म या उसमें अपनी संलिप्तता पर किसी तरह का अफसोस है! बुढ़ापे में भी वह एक कट्टर-हिंदुत्वादी और सांप्रदायिक-उग्रवादी नजर आया.
दरअसल, उसके सोच, समझ और विचारों पर मुङो तरस आ रहा था. वह बेहद अज्ञानी और कुंद नजर आया. उसे मालूम ही नहीं था कि दुनिया ने आज जो तरक्की की है, उसमें सहिष्णुता, उदारता और वैज्ञानिकता का कितना बड़ा योगदान है!
सच पूछिये, सदाशिव पेठ के उस फ्लैट से मैं गुस्से में नहीं, बहुत उदास और दुखी होकर बाहर आया. धर्म और संप्रदाय की उग्रता-कट्टरता कितनी नशीली, कितनी खतरनाक और कितनी अमानवीय है! गोपाल गोडसे जिंदगी के इतने लंबे सफर में भी अपने को बदल नहीं सका. 2004 में भी उसकी दुनिया ‘1846-48, संघ-हिंदू महासभा-सावरकर’ तक सीमित थी. वह आजीवन ‘अज्ञान के ऐसे आनंदलोक’ का वासी रहा, जिसमें सूचना, सच, समझ और संवेदना की रोशनी का पहुंचना असंभव होता है.
उसके घर में पड़े अखबार और पत्रिकाएं तक एक खास संगठन या विचारों वाली थीं. घर का पूरा वातावरण बहुत मनहूस और दमघोंटू था. इंटरव्यू के कुछ महीने बाद एक दिन अखबारों में खबर देखी- ‘गोपाल गोडसे का निधन.’
अलवर के पुल पर गोडसे के नाम की पट्टिका लगाने या मेरठ के पास गोडसे का मंदिर बनाने का प्रयास करनेवाले नहीं जानते कि वे क्या कर रहे हैं? अब तक तो वे गोपाल गोडसे की तरह किसी मनहूस अंधेरे में पड़े थे. बाहर निकल कर सड़कों, पुलों, बस अड्डों, रेलवे स्टेशनों और यहां तक कि टीवी चैनलों पर भी अपने जहरीले करतब दिखाने का दुस्साहस उनमें कहां से आया?
वे अलवर, मेरठ या गोधरा, कहीं भी हो सकते हैं. कभी ‘लव जिहाद’ तो कभी ‘घर-वापसी’ के प्रलाप के साथ वे गांधी के देश में लोकतांत्रिक मूल्यों की हत्या पर आमादा हैं.

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