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भेड़ों की भीड़ नहीं, जागरूक जनता

प्रमोद जोशी वरिष्ठ पत्रकार यूरोप के दूसरे देशों में भी कमोबेश ऐसे आंदोलन खड़े हैं, जो नयी राजनीतिक परिभाषा देना चाहते हैं. वह समाज हमारे मुकाबले ज्यादा जागरूक है. ऐसे में निकट भविष्य में यदि भारत में हम राजनीति का कोई नया मुहावरा खोज पाये, तो यह बड़ी बात होगी. दिल्ली की नयी विधानसभा में […]

प्रमोद जोशी
वरिष्ठ पत्रकार
यूरोप के दूसरे देशों में भी कमोबेश ऐसे आंदोलन खड़े हैं, जो नयी राजनीतिक परिभाषा देना चाहते हैं. वह समाज हमारे मुकाबले ज्यादा जागरूक है. ऐसे में निकट भविष्य में यदि भारत में हम राजनीति का कोई नया मुहावरा खोज पाये, तो यह बड़ी बात होगी.
दिल्ली की नयी विधानसभा में 28 विधायकों की उम्र 40 साल या उससे कम है. औसत उम्र 40 साल है. दूसरे राज्यों की तुलना में 7-15 साल कम. चुने गये 26 विधायक पोस्ट ग्रेजुएट हैं.
20 विधायक ग्रेजुएट और 14 बारहवीं पास हैं. बीजेपी के तीन विधायकों को अलग कर दें, तो आम आदमी पार्टी के ज्यादातर विधायकों के पास राजनीति का अनुभव शून्य है. वे आम लोग हैं. उनके परिवारों का राजनीति से कोई रिश्ता नहीं है. उनका दूर-दूर तक राजनीति से कोई वास्ता नहीं है. यानी दिल्ली के वोटर ने परंपरागत राजनीति को दूध की मक्खी की तरह निकाल कर फेंक दिया है. यह नयी राजनीति किस दिशा में जायेगी, इसका पता अगले कुछ महीनों में लगेगा. अगर यह पायलट प्रोजेक्ट सफल हुआ, तो एक बड़ी उपलब्धि होगी.
राज-व्यवस्था के संचालक बड़ी बातें करते हैं, पर छोटी समस्याओं के समाधान नहीं खोजते. सामान्य नागरिक को छोटी बातें परेशान करती हैं. दिल्ली में आम आदमी पार्टी ने केवल जनता के साथ अपना संपर्क बढ़ाया. इतनी सी बात ने बड़ा बदलाव कर दिया. हर आदमी की जुबान पर एक बात है ‘49 दिन की सरकार बनने पर हफ्ता वसूली और सरकारी दफ्तरों में दलाली बंद हो गयी थी.’ सामान्य व्यक्ति को पुलिस की हफ्ता वसूली, असुरक्षा, बिजली, पानी, परिवहन, सड़क, सफाई और रोशनी वगैरह से जुड़ी बातें परेशान करती हैं. इन बातों को जब कोई नहीं सुनता, तब उसका गुस्सा बढ़ जाता है. रोजगार, स्वास्थ्य, आवास और भोजन जैसे मामले भी हैं. इनके समाधान इतने मुश्किल नहीं, जितने लगते हैं. इन्हें सुनिश्चित करनेवाली व्यवस्था अकुशल, सुस्त और अविचारित है. लेकिन, हमारी राजनीति बजाय इनका समाधान करने के, विचारधाराओं के भारी-भारी जुमले परोसती है.
1947 में जब देश आजाद हुआ था, तब भी हमारी राजनीति नयी थी. जनता को उससे अपेक्षाएं थीं. उस समय जितने भी राजनीतिक दल थे, उनमें से ज्यादातर दल आम आदमी पार्टी जैसे थे. पर 1967 आते-आते वह राजनीति असहनीय हो गयी और जनता ने सात-आठ राज्यों में कांग्रेस को अपदस्थ कर दिया. तब फिर आम आदमी पार्टी जैसी नयी ताकतें सामने आयीं.
1971 में इंदिरा गांधी नयी उम्मीदें लेकर आयीं. उन्होंने सबसे बड़ा वादा किया- गरीबी हटाने का. अपेक्षाएं इतनी बड़ी थीं कि जनता ने उन्हें समर्थन देने में देर नहीं की. पांच साल के भीतर इंदिरा सरकार अलोकप्रियता के गड्ढे में जा गिरी. 1977 में उन्हें भारी शिकस्त ही नहीं मिली, एक नये राजनीतिक जमावड़े का ऐतिहासिक स्वागत हुआ. साल भर के भीतर इस जमावड़े के अंतर्विरोध सामने आने लगे.
1984 में जब राजीव गांधी जीते, तब वे ईमानदार और भविष्य की ओर देखनेवाले राजनेता के रूप में सामने आये थे. उन दिनों अरुण शौरी इसी तरह की ‘ईमानदार राजनीति’ की बात कर रहे थे, जैसे आज अरविंद केजरीवाल कर रहे हैं. देश की जनता ने मौका आने पर हर बार बदलाव किया है. हर बार कोई न कोई नया अनुभव हुआ है. बदलाव केवल राजनीतिक नहीं होता, संस्थागत भी होता है. एक समय तक हमारी समझ थी कि वोट देने के बाद जनता की भूमिका खत्म हो जाती है. वह धारणा गलत थी. जैसे-जैसे वोटर की भूमिका बदल रही है, राजनीति भी बदल रही है. ये बदलाव भीतर से ही नहीं, बल्कि बाहर से भी हुए हैं.
चुनाव सुधार का ज्यादातर काम चुनाव आयोग और सुप्रीम कोर्ट के दबाव से हुआ है. राजनीतिक दलों ने ज्यादातर इन सुधारों का विरोध किया. इसी कारण जनता के मन में राजनीति के प्रति वितृष्णा पैदा हुई है. दिल्ली के इस चुनाव में सबसे ज्यादा आलोचना ‘अहंकार’ की हुई है. जनता को सत्ता के अहंकार से नफरत है.
हमारे देश में अब तक हम राजनीति का मतलब पार्टियों के गंठबंधन, सरकार बनाने के दावों और आरोपों-प्रत्यारोपों तक सीमित मानते थे. राजनीति के मायने चालबाजी, जोड़तोड़ और जालसाजी हो गये. दिसंबर, 2013 में इस परिभाषा में कुछ नयी बातें जुड़ीं. इसके पीछे कारण ‘आप’ नहीं, बल्कि वह वोटर था, जिसने ‘आप’ को ताकत दी. आप की जीत वोटर की जीत थी. पर ‘आप’ ने भी उस संदेश को नहीं समझा. देश के दूसरे क्षेत्रों में जाने के पहले उसे अपने लक्ष्य निर्धारित करने चाहिए थे. तब पार्टी जल्दी में थी. उसने राजनीतिक जुमलों का भी सोचे-समङो बगैर इस्तेमाल शुरू कर दिया, जिसका उसे नुकसान उठाना पड़ा. पर उसने जल्द अपनी गलती को समझ लिया.
इस नयी राजनीति की अपील छोटे शहरों और गांवों तक जा पहुंची है. दिल्ली की प्रयोगशाला छोटी है. यहां इसका पायलट प्रोजेक्ट ही तैयार हुआ है. इसका व्यावहारिक रूप अगले कुछ महीनों में देखने को मिलेगा. देश का मध्य वर्ग, स्त्रियां और प्रोफेशनल युवा ज्यादा सक्रियता के साथ राजनीति में प्रवेश कर रहे हैं. लंबे समय तक ‘आम आदमी’ या ‘मैंगो मैन’ मजाक का विषय बना रहा. अब यह मजाक नहीं है. टोपी पहने मैंगो मैन राजनीतिक बदलाव का प्रतीक बन कर सामने आया है.
जनता परंपरागत राजनीति का ढर्रा तोड़ना चाहती है. नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में लगातार जीतनेवाली भाजपा दिल्ली में हार गयी. भाजपा ने बदलाव का वादा किया था. वोटर ने उसका साथ दिया. लेकिन, वोटर की अपेक्षाएं ज्यादा हैं. दिल्ली में अचानक बीजेपी परंपरागत, दकियानूस और साख-विहीन नजर आने लगी. वोटर उस तरीके से चीजों को नहीं देखता है, जैसे पार्टियां देखती हैं. नयी राजनीति अंदेशों की जगह उम्मीदों, अतीत की जगह भविष्य और डर की जगह निर्भीकता की जीत चाहती है.
वह विचारधारा के आडंबरों से भी मुक्त है. परंपरागत राजनीति के प्रणोताओं को इसकी प्रवृत्तियों को समझना चाहिए, व्यक्तियों को नहीं. यह सावधानी आम आदमी पार्टी को भी बरतनी होगी.
बदलाव केवल भारत में ही नहीं है. ‘आप’ आंदोलन के पीछे ‘अरब-स्प्रिंग’ से लेकर ‘ऑक्यूपाइ वॉल स्ट्रीट’ तक के तार थे. हाल में ग्रीस के चुनाव में वोटर ने परंपरागत पार्टियों को नकार कर वामपंथी पार्टी सिरिजा को जिताया है. सिरिजा कोई क्रांतिकारी कम्युनिस्ट पार्टी नहीं है, यह कई तरह के रुझानों वाला गंठबंधन है.
उसका रुझान वामपंथी है, पर पूंजीवाद और साम्राज्यवाद जैसे जुमलों का इस्तेमाल वह नहीं करता, बल्कि पूंजीपति वर्ग के एक हिस्से को भी उसने सहमत कराने का प्रयास किया है. यूरोप के दूसरे देशों में भी कमोबेश ऐसे आंदोलन खड़े हैं, जो नयी राजनीतिक परिभाषा देना चाहते हैं. वह समाज हमारे मुकाबले ज्यादा जागरूक है. ऐसे में निकट भविष्य में यदि भारत में हम राजनीति का कोई नया मुहावरा खोज पाये, तो यह बड़ी बात होगी.

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