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फागुन के दिन बौराने लगे

डॉ बुद्धिनाथ मिश्र वरिष्ठ साहित्यकार पहले के समय में हजारों लोकगीत वसंत के अनुराग को शब्द और स्वर देने के लिए हाथ जोड़े खड़े रहते थे. ढोलक और मंजीरे पर गाये हुए फाग के वे लोकगीत न जाने कहां गुम हो गये और उनकी जगह सर्वभक्षी फिल्मी गीतों ने ले ली है. फागुनी हवा ने […]

डॉ बुद्धिनाथ मिश्र
वरिष्ठ साहित्यकार
पहले के समय में हजारों लोकगीत वसंत के अनुराग को शब्द और स्वर देने के लिए हाथ जोड़े खड़े रहते थे. ढोलक और मंजीरे पर गाये हुए फाग के वे लोकगीत न जाने कहां गुम हो गये और उनकी जगह सर्वभक्षी फिल्मी गीतों ने ले ली है.
फागुनी हवा ने जरा-सा छू क्या लिया, मन के सीढ़ीदार खेतों में दूर तक सरसों के फूल खिल गये. ‘खेत के सरसों हमारे नाम भेजें, रोज पीली चिट्ठियां अनगिन.’ पलाश और अशोक तो रागविद्ध होते ही हैं, वे छोटे-छोटे पौधे भी सिर पर फूलों की टोकरी लेकर ऋतुराज वसंत की अगवानी में सड़कों की दोनों ओर खड़े हैं, जिनका कोई नाम नहीं है, जात नहीं है. ऋतुओं का जो वैभव भारतीय उपमहाद्वीप में है, वह यूरोप में या अरब देशों में कहां! इसीलिए दुनिया के सभी धर्म भी बर्फीले यूरोप और रेतीले अरब देशों से चल कर इसी उपमहाद्वीप में डेरा डाल बैठे हैं.
यहां छह ऋतुएं हैं और सबका अपना-अपना व्यक्तित्व है. हर ऋतु में प्रकृति नव परिधान पहन कर उत्सव मनाती है. ये नहीं कि जाड़े में ओवरकोट पहना, तो साल भर उतारा ही नहीं. हर ऋतु का अपना आधार कार्ड है, अपनी पहचान है, जिसे आंख मूंद कर भी स्वर-गंध-स्पर्श से महसूस किया जा सकता है. वसंत ऋतुराज है, जिसके सान्निध्य में सभी चीजें सुंदर से सुंदरतर हो जाती हैं.
इसीलिए अन्य पांच ऋतुओं ने अपने-अपने हिस्से के आठ दिन इसे उपहार-स्वरूप भेंट कर दिये, जिससे यह ऋतु अन्य ऋतुओं की तुलना में चालीस दिन अधिक यानी पूरे सौ दिनों तक हमारी धरती पर राज करती है. यह चैत्र मास के कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा के बजाय माघ मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी को ही सज-संवर कर आ जाती है. और जब वसंत ऋतु जैसी रूपसी फूलों के रंगों, कोयल की कूकों और आम्र-मंजरी की गंधों से सज कर गांव के सिवाने पर आ जाये, तो उसकी अगवानी कौन नहीं करना चाहेगा? बल्कि लोग तो चाहेंगे कि पूरे साल वसंत ऋतु ही रहे- सदा आनंदा रहे ओहि द्वारे/ मोहन खेले होरी है..
वसंत उन भूलों और गुनाहों का मौसम है, जिनसे जीवन सात रंगों में रंगता है, सात सुरों से सजता है और मृत्यु की बफीर्ली रातों से निकल कर तेजोदीप्त अमृत को वरण करता है. सारे ऋषि-मुनि संहिताओं के बड़े-बड़े पोथे लेकर युवा पीढ़ी के पीछे दौड़ते फिरते हैं, मगर युवा-युवतियां पीछे न देख कर सिर्फ आगे भागते हैं. उस दिशा में, जहां यौवन का उल्लास है, रंगों का मेला है, उन्मुक्त नृत्य है, जीवंत संगीत है:
एक बौराया हुआ मन, चंद भूलें/ और गदराया हुआ यौवन।
घेरकर इन मोह की विज्ञप्तियों से/ वारते हम मृत्यु को जीवन।।
चाहे सर्वप्रिय ऋतुराज वसंत हो या जीवन के पूर्वाह्न् में आनेवाला यौवन- दोनों समस्त प्राणियों को मृत्युंजय का बोध करानेवाली मोहक विज्ञप्तियां ही तो हैं. जिंदगी गर मिल भी जाये, नौजवानी फिर कहां! जब मन सुमन हो, तभी वसंत की अनुभूति होती है. वसंत भी वहीं आकर अपना डेरा डालता है, जहां सहजता है, सरसता है.
जहां मन असहज है, चिंताग्रस्त है, आतंकित है, वहां आम की मंजरियों की जगह झरबेर की झाड़ियां ही फूलती-फलती हैं. वसंत प्रदूषित स्थानों पर टिक नहीं सकता. भौतिक विकास में बदहवास मानव वन-प्रांतर से लेकर खेतों-गौचरों तक से प्रकृति को भगाने पर तुला है.
गांव अब या तो अत्यंत पिछड़े हुए हैं या शहर की नकल में अपना चेहरा बिगाड़ चुके हैं. आंगन, दालान, चौपाल, रामचबूतरा, वयस्क पेड़ अब वहां भी नहीं दिखते. गांव में एक भी आम-महुआ का संयुक्त पेड़ नहीं मिलता कि कन्या-वर के विवाह से पहले आम-महुए का विवाह कराया जाये.
वसंत जीवन रूपी यज्ञ का घृत है. घृत यानी आयुष्य. काम उस वसंत का सखा है, जो अनंग है. उसकी झलक पलाशवनों में, अशोक वाटिकाओं के राग-रंजित फूलों में दिख जाती है.
उस घृत से वसंतश्री की आग प्रज्वलित होती है. योगीश्वर शिव के तृतीय नेत्र का अनल सशरीर काम को भस्म कर मनसिज बना देता है. इसके बाद ही स्कंद की सृष्टि होती है, जिससे आसुरी प्रवृत्तियों का विनाश होता है. ऋषि-मुनियों के इस देश में काम को जीवन के चार पुरुषार्थो में महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है यानी धर्म, अर्थ और मोक्ष के समकक्ष! उसे पृथ्वी को धारण करनेवाले अग्रणी देवता की भूमिका में रखा गया है.
वसंत मूलत: राग, आग और फाग का महोत्सव है, जिसे हमारे पूर्वज ‘मदन महोत्सव’ के रूप में पूरे उल्लास से मनाते थे. जब अमराइयों में वृक्षराज आम बौराता है, भृंगवृंद प्रणयगीत गुनगुनाते हैं, कोकिल की मधुर तान उसकी मानिनी प्रिया को प्रणयोत्सुक बना देती है, अशोक वृक्ष आपादमस्तक फूलों से लद जाता है, तब किस प्राणी का जी प्रकृति के सुर में सुर मिलाने को नहीं करता है.
मन का उछाह सारी सामाजिक वर्जनाओं को तोड़ कर हुड़दंग पर उतर आता है, कबीरा के बहाने वे बातें भी मजाक में कह दी जाती हैं, जो अन्य दिनों में नहीं कही जा सकतीं. एक से एक फाग के गीत वसंत पंचमी से ही हर शाम चौपालों पर मुखर हो जाता था. हजारों लोकगीत वसंत के अनुराग को शब्द और स्वर देने के लिए हाथ जोड़े खड़े रहते थे.
ढोलक और मंजीरे पर गाये हुए फाग के वे लोकगीत न जाने कहां गुम हो गये और उनकी जगह सर्वभक्षी फिल्मी गीतों ने ले ली है. होली के साहित्यिक कार्यक्रमों में सामिष लतीफे परोसनेवाले ‘महाकवियों’ की बहार है. सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भी आरकेस्ट्रा पार्टियां फूहड़ फिल्मी गाने गा-चिल्ला कर हिरण्यकशिपु को ही बुलाती हैं, बेचारा प्रह्लाद किसी अर्धभग्न उपेक्षित मंदिर में दुबका पड़ा रहता है. सार्वभौम उल्लास का जो सामूहिक स्वर उत्सवों में उभरता था, वह लापता क्यों हो गया है!
नामुराद हिरण्यकशिपु मरने के बाद स्वर्ग पाने के लिए इतना उतावला हो गया है कि नन्हीं सुकुमार बच्चियों की छाती में ही बम बांध कर उन्हें नयी होलिका की आत्मघाती भूमिका में जोत रहा है. प्रह्लाद की उम्र के सैकड़ों स्कूली बच्चे नृशंसतापूर्वक मार दिये जाते हैं. स्त्रियां पशुओं की तरह नीलाम की जा रही हैं. सत्य का सिर कलम कर दिया जाता है. ‘गुलामान’ के ऐसे दानवी दौर में वसंत और उसके सखा कामदेव क्या करें? यदि कोई अहमक दैत्य वसंत पंचमी के दिन सरस्वती की विश्ववीणा पर कुल्हाड़ी चलाने के लिए उतारू हो जाये, तो ललित कलाकार क्या करें? हिरण्य का अर्थ सोना होता है और कशिपु का अर्थ बिछौना; यानी जो सोने के बिछौने पर सोना चाहे, वह है हिरण्यकशिपु. भौतिक वैभव के पीछे भागते हुए हमारे समय के हिरण्यकशिपुओं से पृथ्वी को सनातन जीवन-मूल्यों वाले प्रह्लाद ही बचा पायेंगे.
फिलहाल, देश की राजधानी दिल्ली में आम आदमी की तरह फागुन भी बौरा गया-सा लगता है-
फागुन के दिन बौराने लगे,
दबे पांव आकर सिरहाने/ हवा लगी बांसुरी बजाने
दुखता सिर सहलाने लगे..

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