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केदारनाथ त्रासदी पर पढें डॉ भरत झुनझुनवाला का लेख
डॉ भरत झुनझुनवाला,अर्थशास्त्री वर्षो पहले हमने ग्रीन ट्रिब्यूनल में याचिका दायर करके मंदाकिनी में मलबे के निस्तारण पर रोक लगाने की गुजारिश की थी, परंतु ट्रिब्यूनल ने याचिका सुनने से इनकार कर दिया, क्योंकि उसी तरह की याचिका उत्तराखंड हाइकोर्ट में लंबित थी. उत्तराखंड त्रसदी को दो साल हो गये. परंतु पहाड़ों का क्रोध अभी […]
डॉ भरत झुनझुनवाला,अर्थशास्त्री
वर्षो पहले हमने ग्रीन ट्रिब्यूनल में याचिका दायर करके मंदाकिनी में मलबे के निस्तारण पर रोक लगाने की गुजारिश की थी, परंतु ट्रिब्यूनल ने याचिका सुनने से इनकार कर दिया, क्योंकि उसी तरह की याचिका उत्तराखंड हाइकोर्ट में लंबित थी.
उत्तराखंड त्रसदी को दो साल हो गये. परंतु पहाड़ों का क्रोध अभी कम नहीं हुआ है. आये दिन पहाड़ दरक रहे हैं. गत वर्ष चार धाम यात्रा शून्यप्राय रही थी. इस वर्ष कुछ सुधार हुआ है, परंतु अभी भी परिस्थितियां सामान्य नहीं हुई हैं. दो वर्ष पूर्व जिन कारणों से आपदा आयी थी वे यथावत् आज भी खड़े हैं.
2013 की आपदा प्राकृतिक नहीं थी. केदारनाथ क्षेत्र में वर्षा सामान्य से अधिक थी, परंतु असामान्य नहीं थी. वर्षा कभी भी औसत के अनुसार नहीं बरसती है. वर्षा सामान्य से कुछ ऊपर कुछ नीचे सदा होती रहती है. 2013 में आसपास के इलाकों की तुलना में यहां वर्षा कम हुई थी. दूसरे जिलों में इससे बहुत ज्यादा वर्षा हुई थी. केदारनाथ में वर्षा सामान्य थी.
आपदा से राहत दिलाने में टिहरी डैम की अहम् भूमिका बतायी जा रही है. बात जून 2013 की है. उस समय टिहरी झील का अधिकतर पानी सिंचाई के लिए छोड़ा जा चुका था. झीलों को मानसून के पहले खाली कर दिया जाता है, ताकि मानसून के पानी को संग्रह किया जा सके. ऐसे में भागीरथी और भिलंगना नदी का जल टिहरी में समा गया. सही है कि यदि टिहरी झील खाली न होती, तो ऋषिकेश और हरिद्वार में पानी का स्तर ऊंचा होता. परंतु इससे खतरा उत्पन्न होता यह जरूरी नहीं, क्योंकि इस स्तर की वर्षा इस क्षेत्र में होती ही रहती है और हरिद्वार ऐसी वर्षा में पूर्व में सुरक्षित रहा है.
हरिद्वार में गंगा का पाट चौड़ा है, इसलिए पानी फैल जाता है और जल स्तर ज्यादा नहीं बढ़ता है. तमाम रपटों में इसका उल्लेख है कि नदी के तट पर गैरकानूनी ढंग से बने मकानों को ही ज्यादा नुकसान हुआ है. ऐसे में हरिद्वार के गैरकानूनी मकानों को बाढ़ से बचाने का श्रेय टिहरी झील को अवश्य दिया जा सकता है. परंतु हरिद्वार शहर को बचाने का श्रेय टिहरी झील को देना गलत होगा.
आपदा का मूल कारण था कि हमारी सरकारों ने असंवेदनशील तरीकों से सड़क और हाइड्रोपावर योजनाएं बनायी हैं. भूगर्भ वैज्ञानिक केएस वाल्दिया के अनुसार, इस क्षेत्र की चट्टानें नरम हैं. नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ डिजास्टर मैनेजमेंट के अनुसार, पूर्व के भूकंपों ने इस क्षेत्र के पहाड़ों को हिला दिया था, जिससे सामान्य वर्षा से ही ये दरकने लगे.
उत्तराखंड के डिजास्टर मिटिगेशन एंड मैनेजमेंट सेंटर के अनुसार, सड़क निर्माण के लिए प्रयोग हो रहे विस्फोटकों के कारण पहाड़ ज्यादा गिरे हैं. सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर स्थापित एक्सपर्ट बॉडी ने कहा है कि ज्यादा नुकसान अलकनंदा एवं मंदाकिनी पर बन रही जल विद्युत परियोजनाओं के ऊपर और नीचे हुआ है.
मंदाकिनी पर बन रही दो परियोजनाओं में 15 से 20 किमी की सुरंगें निर्माणाधीन थीं. ये परियोजनाएं केदारनाथ के नजदीक हैं. इन सुरंगों को बनाने के लिए भारी मात्र में विस्फोटों का प्रयोग किया गया था, जिससे पहाड़ हिल गये और सामान्यप्राय वर्षा में ये दरकने लगे. बड़े पत्थर और पेड़ों के लट्ठे मंदाकिनी में गिरने लगे. परंतु नदी का वेग कम होने से ये पत्थर और लट्ठे नदी के पाट में जमा होने लगे. नदी का जलस्तर ऊंचा होने लगा. फाटा के पीछे मंदाकिनी पर बना पुल डूब गया. लोग नदी को पार नहीं कर पाये और दूसरी तरफ वीरगति को प्राप्त हुए.
सड़क निर्माताओं तथा हाइड्रोपावर प्रोजक्टों के द्वारा भारी मात्र में मलबे को नदी में डाला जा रहा था. पर्यावरण मंत्रलय द्वारा इन्हें स्वीकृति इसी शर्त पर दी जाती है कि मलबे को नदी के किनारे डालने से पहले पत्थर की पुख्ता दीवार बनायी जायेगी, जिसे तार और जाली से कसा जायेगा.
परंतु इन शर्तो को लागू कराने में मंत्रलय की जरा भी रुचि नहीं है. इस कारण नदी के किनारे भारी मात्र में पड़ा मलबा नदी में बहने लगा. मलबे को लेकर नदी ऊंचे बहने लगी. श्रीनगर के नीचे सैकड़ों घरों में मलबा घुस गया. पाया गया कि इस मलबे में 23 से 46 प्रतिशत मलबा श्रीनगर जलविद्युत परियोजना द्वारा डाला गया था. यदि पर्यावरण मंत्रलय और उत्तराखंड सरकार ने मलबे के निस्तारण की सुध ली होती, तो निरीह जनता को इसका खामियाजा न भुगतना पड़ता.
हादसे में न्यायपालिका का भी योगदान है. वर्षो पहले हमने ग्रीन ट्रिब्यूनल में याचिका दायर करके मंदाकिनी में मलबे के निस्तारण पर रोक लगाने की गुजारिश की थी, परंतु ट्रिब्यूनल ने याचिका सुनने से इनकार कर दिया, क्योंकि उसी तरह की याचिका उत्तराखंड हाइकोर्ट में लंबित थी.
बाद में हाइकोर्ट ने उस याचिका को ग्रीन ट्रिब्यूनल को भेज दिया. इस प्रक्रिया में तीन वर्ष लगे. तब तक आपदा आ गयी.
इसी प्रकार श्रीनगर परियोजना द्वारा मलबे के निस्तारण हेतु हमने ग्रीन ट्रिब्यूनल में याचिका डाली थी. सुप्रीम कोर्ट ने इसे अपने पास स्थानांतरित कर लिया. फिर एक कमेटी बनाने का निर्देश दिया और उसकी फर्जी रिपोर्ट के आधार पर श्रीनगर परियोजना के विरुद्ध कोई कार्रवाई नहीं की. यही मलबा आपदा में हजारों की जान ले गया.
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