27.1 C
Ranchi

BREAKING NEWS

Advertisement

Birth Anniversary Of Abul Kalam Azad : समावेशी संस्कृति के सशक्त पैरोकार अबुल कलाम आजाद

मौलाना आजाद की पसंदीदा पोशाक शेरवानी और ऊंची टोपी को देखकर कुछ लोग सतही तौर पर उनके पुरातनपंथी या रूढ़िवादी होने का भ्रम पाल सकते हैं, लेकिन उनकी वैचारिकी और कृतित्व से अवगत होते ही यह धारणा ध्वस्त हो जाती है एवं उनके दूरदर्शी, आधुनिक और उदार व्यक्तित्व की छवि उभरने लगती है.

Abul Kalam Azad : धर्मनिरपेक्ष और समावेशी संस्कृति के सशक्त पैरोकार मौलाना आजाद जैसी बेमिसाल शख्सियतें समय की चुनौतियों से टकराने का मुकम्मल रास्ता सुझाती हैं. बहुतों के लिए यह जानना हैरतअंगेज हो सकता है कि 11 नवंबर, 1888 को मक्का की पवित्र धरती पर जन्म लेने वाले मुहियुद्दीन अहमद दो साल की उम्र में हिंदुस्तान आये और अपनी हरफनमौला काबिलियत के दम पर जमाने भर में न केवल मौलाना अबुल कलाम आजाद के रूप में मकबूल हुए, बल्कि तमाम उम्र ‘हिंदुस्तानियत’ के रंग को सुर्खरू करने में लगा दी. विद्वता से भरे उनके अतुलनीय व्यक्तित्व को उजागर करते हुए राष्ट्रकवि दिनकर ने ठीक ही लिखा, ‘उनकी मेधा ऐसी विलक्षण और संकल्प इतना मजबूत था कि वे मध्य युग में जन्मे होते, तो अनायास अपने लिए कोई बड़ा राज्य हासिल कर लेते अथवा यदि वे धर्म की ओर जाते, तो एक नवीन धर्म चलाकर विश्व के धर्म-प्रवर्तकों की सूची में अपना नाम अंकित कर सकते थे, किंतु इस सारी शक्ति का उपयोग उन्होंने देश की गुलामी को हराने और देश को बनाने में किया.’


मौलाना आजाद की पसंदीदा पोशाक शेरवानी और ऊंची टोपी को देखकर कुछ लोग सतही तौर पर उनके पुरातनपंथी या रूढ़िवादी होने का भ्रम पाल सकते हैं, लेकिन उनकी वैचारिकी और कृतित्व से अवगत होते ही यह धारणा ध्वस्त हो जाती है एवं उनके दूरदर्शी, आधुनिक और उदार व्यक्तित्व की छवि उभरने लगती है. मौलाना आजाद का मानना था कि मनुष्य के मानसिक विकास के मार्ग में अंधविश्वास बड़ी रुकावट है. अंधविश्वास की रूढ़ि को मिटाने के क्रम में ही उन्होंने स्वयं के लिए ‘आजाद’ तखल्लुस (उपनाम) चुना था. आत्मकथा ‘इंडिया विंस फ्रीडम’ में उन्होंने लिखा, ‘मैं सभी पारंपरिक रास्तों से मुक्ति का आकांक्षी था और एक नये रास्ते की तलाश में था. तभी मैंने ‘आजाद’ तखल्लुस को अपनाने का फैसला किया. यह इस बात का सूचक था कि मैं किसी पूर्व निश्चित ज्ञानधारा का अंध समर्थक नहीं हूं.’


समकालीन परिस्थितियों में मौलाना आजाद का मूल्यांकन उस ऐतिहासिक भाषण के बगैर पूरा नहीं हो सकता, जो उन्होंने कांग्रेस के रामगढ़ अधिवेशन (1940 ) में बतौर अध्यक्ष दिया था. उस भाषण में उन्होंने अपनी धार्मिक मान्यताओं और राष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं से संबंधित मुद्दों पर जिस विद्वता और साफगोई से प्रकाश डाला, वह उनके अध्येता और प्रगतिशील व्यक्तित्व का परिचायक था. उस भाषण में उन्होंने अपने तर्कों और विश्लेषणों के माध्यम से व्यक्ति की निजी धार्मिक मान्यताओं के महत्व को रेखांकित करते हुए एक सचेतन भारतीय नागरिक की जिम्मेदारियों का बोध तो कराया ही, साथ ही साथ ‘द्विराष्ट्र सिद्धांत’ को खारिज भी किया. उसी भाषण में मुसलमानों की वतन परस्ती की शिनाख्त बहुत ही तसल्लीबख्श तरीके से करते हुए उन्होंने कहा था, ‘मैं अभिमान के साथ अनुभव करता हूं कि मैं हिंदुस्तानी हूं. मैं हिंदुस्तान की अविभाजित संयुक्त राष्ट्रीयता (नाकाबिले तकसीम मुत्ताहिदा कौमियत) का ऐसा महत्वपूर्ण अंश हूं, उसका ऐसा टुकड़ा हूं, जिसके बिना उसका महत्व अधूरा रह जाता. मैं इसकी बनावट का एक जरूरी हिस्सा हूं.’


मौलाना आजाद धार्मिक आधार पर देश विभाजन के न केवल धुर विरोधी थे, बल्कि वह मानते थे कि अगर देश का विभाजन धार्मिक आधार पर होगा, तो इससे नुकसान सिर्फ आम जनता के भविष्य का होगा. यह मौलाना आजाद के अथक परिश्रम और अदम्य जीवट का ही प्रतिफल था कि लाखों मुसलमानों ने, जिन्होंने धार्मिक आधार पर बने नये देश पाकिस्तान में जाने की सारी तैयारियां पूरी कर ली थीं, आखिरी समय में अपना इरादा बदल दिया. बंटवारे की त्रासदी के दिनों में मुसलमानों के अंदर घर कर चुके भय और संत्रास की भावना पर चोट करते हुए उन्होंने 23 अक्टूबर, 1948 को जामा मस्जिद के प्राचीर से मुसलमानों को संबोधित करते हुए उन्हें उनके पूर्वजों की बहादुराना कार्रवाइयों और वतन के लिए सब कुछ कुर्बान कर देनेवाले योद्धाओं की याद दिलायी और मुस्लिम लीग एवं जिन्ना की साजिशों को भी बेनकाब किया. मौलाना आजाद की बुलंद और दानिशमंदी से भरी उस तकरीर के व्यापक प्रभाव ने उन्हें ‘स्टेट्समैन’ और ‘इमाम-ए-इंसानियत’ के रूप में स्थापित कर दिया.


भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सबसे कम उम्र के और सबसे ज्यादा दिन तक अध्यक्ष रहने का गौरव प्राप्त मौलाना आजाद ने देशसेवा पत्रकारिता के जरिये शुरू की थी. उनके द्वारा निकाले गए ‘अल हिलाल’ और ‘अल बलाग’ जैसे उर्दू अखबार भारतीय पत्रकारिता के इतिहास में मील के पत्थर थे. उन अखबारों के जरिये मौलाना आजाद ने तत्कालीन वैश्विक और राष्ट्रीय प्रश्नों पर अपने सुचिंतित विचारों से जनता को अवगत कराकर ब्रिटिश उपनिवेशवाद के खिलाफ विशाल जनमत तैयार किया. उनके लेखों और टिप्पणियों का महत्व इस बात से समझा जा सकता है कि ब्रिटिश हुकूमत ने कानून में संशोधन करके उन अखबारों को जब्त कर लिया और भारी जुर्माना लगाया. तब (1912-13) ‘अल हिलाल’ की प्रसार संख्या प्रति सप्ताह 26,000 पहुंच गयी थी, जो एक कीर्तिमान था.

नव स्वतंत्र राष्ट्र के प्रथम शिक्षा मंत्री के रूप में भावी राष्ट्र की जनाकांक्षाओं को समझते हुए कला, संस्कृति, तकनीक और विज्ञान से जुड़ी विश्व स्तरीय संस्थाओं की स्थापना में उन्होंने अविस्मरणीय योगदान दिया. साहित्य अकादेमी, ललित कला अकादमी, भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान जैसी संस्थाएं मौलाना आजाद के अतुलनीय और ऐतिहासिक योगदान की बेबाक गवाहियां हैं. इन संस्थाओं को उन्होंने हर तरह की अकादमिक स्वायत्तता और स्वतंत्रता दी, ताकि वे मौलिक सर्जना के उर्वर केंद्र बन सकें. ईरान के तेहरान विश्वविद्यालय में स्थायी संस्कृत पीठ की स्थापना को भी उन्होंने संभव किया. भारत जैसे विशाल लोकतंत्र के कल्याणकारी चरित्र को साकार करने के लिए वे शिक्षा को प्राथमिकता के उच्च स्तर पर रखते थे. उनका कहना था कि आधारभूत शिक्षा प्राप्त करना हर व्यक्ति का जन्मजात अधिकार है. इसके बिना कोई भी व्यक्ति एक नागरिक के तौर पर अपने कर्तव्यों का निर्वहन नहीं कर सकेगा. आधुनिक भारत के निर्माता मौलाना आजाद तमाम रूढ़ धारणाओं के समक्ष ऐसे बहुआयामी प्रतिमान के रूप में सामने आते हैं, जिनकी समन्वयकारी लोकतांत्रिक मूल्य भावना तमाम यथास्थितिवादी मनोवृतियों को निरंतर जमींदोज करती है.
(ये लेखक के निजी विचार हैं).

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग हिंदी न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

Advertisement

अन्य खबरें

ऐप पर पढें