आज भारतीय समाजवाद के पितामह, बौद्ध धर्म-दर्शन के अप्रतिम अध्येता, समर्पित स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और शिक्षाविद आचार्य नरेंद्रदेव की पुण्यतिथि पर याद करने की सबसे बड़ी बात यही है कि 1956 में 19 फरवरी को उन्होंने इस संसार को अलविदा कहा, तो वे समाजवादी समाज व शासन व्यवस्था की स्थापना के अपने सपने के साकार होने को लेकर पूरी तरह आश्वस्त थे, भले ही लोकतांत्रिक व्यवस्था के व्यापक हित में 1948 में कांग्रेस के प्रतिपक्ष के निर्माण के उनके प्रयत्न औंधे मुंह गिर गये थे. साथियों सहित कांग्रेस से अलग होते वक्त उच्च नैतिक मानदंड स्थापित करते हुए उन्होंने विधानसभा की सदस्यता छोड़ दी थी और अपने फैसले पर मतदाताओं की मुहर लगवाने के लिए उपचुनाव लड़ने का फैसला किया था. तब कांग्रेस ने सांप्रदायिक कार्ड खेलकर न सिर्फ आचार्य के ज्यादातर साथियों को, बल्कि अयोध्या-फैजाबाद की उनकी विधानसभा सीट से उनको भी जीत हासिल नहीं करने दी थी. विलक्षण था उनका जीवट कि अपनी राजनीतिक नैतिकताओं व ईमानदारी के बरक्स किसी भी मोर्चे पर जीत-हार की उन्हें परवाह नहीं थी. अफसोस कि उनका वैचारिक उत्तराधिकारी कहने वाले लोग उनके निधन के बाद के दशकों को उनके विस्मरण के दशक बनने से नहीं रोक सके. यही कारण है कि उनकी कर्मभूमि रहे फैजाबाद (अब अयोध्या) में स्थित उनका वह ऐतिहासिक घर भी होटल में बदल दिया गया है.
यह जानना दिलचस्प है कि 1939 में फैजाबाद में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता पुरुषोत्तम दास टंडन की अध्यक्षता में प्रांतीय साहित्य सम्मेलन आयोजित हुआ, तो 15 नवंबर की शाम यह घर सम्मेलन में आमंत्रित कवियों के काव्यपाठ के दौरान आचार्य से लंबी चख-चख के बाद प्रतिष्ठित कवि सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ द्वारा रात के कवि सम्मेलन के बहिष्कार का गवाह बना था. उनका माता-पिता का दिया नाम अविनाशीलाल था, जिसे नामकरण संस्कार के वक्त नरेंद्रदेव में बदल दिया गया. बाद में काशी विद्यापीठ में उनके मित्र स्वतंत्रता सेनानी, राजनेता व साहित्यकार श्रीप्रकाश ने अपनी श्रद्धा निवेदित करने के लिए उन्हें आचार्य कहना शुरू किया, तो वह आगे चलकर उनके व्यक्तित्व का पर्याय ही नहीं, नरेंद्रदेव का स्थानापन्न भी बन गया. प्रसंगवश, 31 अक्तूबर, 1889 को उत्तर प्रदेश के सीतापुर जिले में पैदा हुए आचार्य दो ही साल के थे कि फैजाबाद में बरतनों के व्यवसायी रहे उनके दादा का निधन हो गया और वे पिता के साथ फैजाबाद चले आये. वकील पिता चाहते थे कि बेटा भी वकालत पढ़े. उनका मान रखने के लिए आचार्य ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से कानून की डिग्री हासिल की और 1915 से पांच वर्षों तक फैजाबाद में वकालत भी की. फिर वे स्वतंत्रता संघर्ष व अध्ययन-मनन के रास्ते पर चल पड़े.
कम लोग जानते हैं कि 20 अगस्त, 1944 को इंदिरा गांधी पहली बार मां बनीं, तो आचार्य ने पंडित नेहरू के अनुरोध पर उनके शिशु का नाम राजीव गांधी रखा. लेकिन 1989 में राजीव गांधी ने केंद्र के स्तर पर आचार्य की जन्मशती मनाने के प्रस्ताव पर प्रधानमंत्री के रूप में कोई उत्साह नहीं प्रदर्शित किया. प्रस्तावकों को शिक्षा मंत्री शीला कौल के पास भेज दिया, जिन्होंने कह दिया कि बेहतर हो कि वे उत्तर प्रदेश सरकार से संपर्क करें. यह तब था, जब स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान 1942 से 1945 तक अहमदनगर किले में बंद रहे आचार्य ने उसी किले में बंद पंडित नेहरू को ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ के लेखन में अपनी विद्वत्ता का इतना ‘लाभ’ दिया था कि नेहरू ने कृतज्ञतापूर्वक अपनी भूमिका में इसका उल्लेख किया था. आचार्य ने अपना ‘अभिधर्मकोश’ भी इसी किले में पूरा किया था.
आचार्य 1936 से ही कहते आये थे कि हमारा काम ब्रिटिश साम्राज्य के शोषण के अंत मात्र से पूरा नहीं होने वाला. वह तब पूरा होगा, जब हम देसी शोषक वर्गों को भी जनता के शोषण से विरत करके ऐसी ‘नयी सभ्यता’ निर्मित कर लेंगे, जिसमें किसी भी शोषण की कोई जगह नहीं होगी. वे पहले लोकमान्य तिलक के नेतृत्व में उनके कार्यों को गति प्रदान करने में लगे थे, फिर शिवप्रसाद गुप्त के बुलावे पर काशी विद्यापीठ चले गये थे. समय के साथ देश ने उन्हें हिंदी, संस्कृत, उर्दू, पाली, प्राकृत, बंगला, जर्मन, फ्रेंच और अंग्रेजी समेत कई विदेशी व भारतीय भाषाओं, दर्शनों, शास्त्रों व संस्कृतियों व इतिहास के ज्ञाता और कई विश्वविद्यालयों के कुलपतियों का रूप भी देखा. स्वतंत्रता संघर्ष में जेल यातनाएं भी सही थीं. कांग्रेस में और उसके बाहर रहते हुए उनकी राजनीतिक सक्रियताओं के आयाम कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी से सोशलिस्ट पार्टी/प्रजा सोशलिस्ट पार्टी तक फैले हुए हैं. गांधी जी से स्नेहसिक्त संबंध के बावजूद वे ‘गांधीवादी’ नहीं बने और खुद को मार्क्सवादी कहने के बावजूद कभी कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य नहीं बने क्योंकि वे मार्क्सवाद के भारतीय परिस्थितियों के मुताबिक समन्वयात्मक स्वरूप के हिमायती थे और किसी व्यक्ति या गुट की, वह मजदूरों का गुट ही क्यों न हो, तानाशाही उन्हें स्वीकार नहीं थी.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)