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भारतीयों के प्रति अमेरिका का दोहरापन

अमेरिकी खजाने में सबसे ज्यादा पैसे भरनेवाले समुदायों में भारतवंशी भी हैं. वहां कट्टर गोरों की नफरत के पीछे भारतीयों की आर्थिक और सांस्कृतिक श्रेष्ठता एक बड़ी वजह है.

अमेरिका खुद को स्वतंत्रता की भूमि कहता है, मगर यह सच नहीं है. यह नस्लभेदी और विद्वेष से भरा देश है. पिछले सप्ताह, 23 साल की भारतीय छात्रा जाह्नवी कंडूला को 130 किलोमीटर प्रतिघंटे की ओवरस्पीड से भागती पुलिस कार ने रौंद डाला, जिसे एक गोरा पुलिसकर्मी चला रहा था. छात्रा का शव सड़क पर 100 से ज्यादा फीट दूर जा गिरा. इसके बाद एक बॉडीकैम वीडियो में वह पुलिसकर्मी छात्रा का मजाक उड़ाता नजर आता है, जिसमें वह कहता है- ‘बस एक चेक तैयार रखो, 11000 डॉलर का.

वह 26 साल की थी. उसकी ऐसे भी क्या कीमत होगी.’ इस घटना पर भारतीय दूतावास ज्यादा शोर नहीं मचाता, मगर एक भारतीय लड़की की कीमत उसकी त्वचा के रंग से तय करने के अमेरिकी पुलिस के इस व्यवहार पर दुनियाभर में आक्रोश मचा. अमेरिका में भारतीयों और भारतीय मूल के अमेरिकी लोगों पर ऐसे कट्टर गोरों के हमले लगातार हो रहे हैं, जो अपने यहां केवल गोरों को रहने देना चाहते हैं और अपने देश में भारतीयों की मेहनत से आयी आर्थिक समृद्धि के मजे भी लूटते रहना चाहते हैं.

कार्नेगी एन्डाउमेंट के एक अध्ययन के अनुसार, हर दूसरा भारतीय अमेरिकी अपने साथ रंगभेद होने की बात कहता है. अमेरिकी स्वतंत्रता दोमुंही बात है. अमेरिका में गृहयुद्ध के बाद संविधान में चौदहवां संशोधन किया गया, जिसके तहत अफ्रीकी गुलामों को आजादी मिली. विडंबना यह है कि अमेरिकी राष्ट्रपतियों तक ने, जॉर्ज वाशिंगटन समेत, गुलामों से काम करवाया.

अमेरिकी खजाने में सबसे ज्यादा पैसे भरनेवाले समुदायों में भारतवंशी भी हैं. वहां कट्टर गोरों की नफरत के पीछे भारतीयों की आर्थिक और सांस्कृतिक श्रेष्ठता एक बड़ी वजह है. अमेरिका में भारतीय मूल के किसी व्यक्ति की औसत आय सालाना एक लाख डॉलर है, जबकि अमेरिकी लोगों की 75,000 डॉलर है. अमेरिकी कॉर्पोरेट जगत में अनिवासी भारतीयों का बड़ा प्रभाव है. फॉर्चून 500 कंपनियों की लिस्ट में 60 कंपनियों के सीइओ भारतीय हैं- सुंदर पिचाई, सत्या नडेला, शांतनु नारायण, अजय बंगा और ऐसे कई लोग हैं, जिनका जन्म भारत में हुआ.

हालांकि, अमेरिका में भारतीयों की आबादी एक प्रतिशत से थोड़ी ज्यादा होगी, लेकिन टैक्स में छह प्रतिशत योगदान भारतीयों का होता है. अमेरिका मंे बसे भारतीय वहां एक ट्रिलियन डॉलर से ज्यादा का योगदान करते हैं. वहां के हर पांचवें डॉक्टर का संबंध भारत से है. उनकी सरकार में भारतीय महत्वपूर्ण पदों पर हैं. लगभग आधे दर्जन भारतीय अगले राष्ट्रपति चुनाव में उम्मीदवारी की रेस में हैं. अमेरिकी उपराष्ट्रपति का नाता भारत से है.

पहले, वहां बसे भारतीय गोरों की संस्कृति को अपना कर अमेरिकी समाज में घुला-मिला करते थे, मगर भारतीयों की नयी पीढ़ी अपनी सफलता और संपत्ति को अपने अंदाज में दर्शाते हैं. वे महंगी गाड़ियां खरीदते हैं, समुद्रतटों पर घर और देश भर में विला लेकर रहते हैं. हाल ही में, टाइम्स स्क्वायर पर भारतीय राजनीति नल्लरी किशोर कुमार रेड्डी के 57वें जन्मदिन पर एक बिलबोर्ड चमका जिसकी तस्वीरें वायरल हुईं. एक सोशल मीडिया यूजर ने लिखा- ‘यह टाइम्स स्क्वायर नहीं रहा, अब यह इंडियन स्क्वायर बन गया है.’

अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने नासा के मंगल ग्रह पर उतरने रोवर के अभियान को देखनेवाली भारतीय मूल की वैज्ञानिक स्वाति मोहन से कहा- ‘शानदार. भारतीय मूल के अमेरिकी लोग अमेरिका को अपने हाथों में ले रहे हैं, आप कमाल के लोग हैं.’ लेकिन, कमाल की बात यह भी है कि अमेरिकी भारतीयों का पैसा और दिमाग तो चाहते हैं, मगर उनको नहीं चाहते. अमेरिका के ज्यादातर राजनेता धनाढ्य अमेरिकी भारतीयों से आर्थिक मदद चाहते हैं. अब वे भारत के बाजारों में भी पहुंचना चाहते हैं.

पिछले पांच सालों में अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को 50 अरब डॉलर से ज्यादा के ऑर्डर मिले. दोनों देशों का आपसी व्यापार लगभग दोगुना होकर 128 अरब डॉलर हो गया है, जो 2020-21 में केवल 70 अरब डॉलर था. भारतीय छात्र यदि अमेरिकी विश्वविद्यालयों में जाना बंद कर दें, तो उनमें से कई दिवालिया हो जायेंगे, क्योंकि केवल भारतीय छात्र हर साल वहां आठ अरब डॉलर से ज्यादा ट्यूशन फीस देते हैं. अमेरिका में खर्च करनेवाले पर्यटकों में भी भारतीयों का हिस्सा काफी बड़ा है.

लेकिन, भारतीयों की संपन्नता से अमेरिकी समाज के भीतर बसी मानसिकता नहीं बदली है. दुर्भाग्य से, भारतीयों के खिलाफ अपराध करनेवाले गोरे बच जाते हैं, क्योंकि निचले स्तर पर कम पढ़े और विद्वेष से भरे लोग बैठे होते हैं. अमेरिकी जनगणना के आंकड़े बताते हैं कि अमेरिकी भारतीयों का जीवन स्तर अमेरिकी घरों के मुकाबले लगभग दोगुना बेहतर होता है. भारतीय अमेरिकी लोगों के पास बैचलर डिग्री होने का अनुपात पूरे देश के मुकाबले दोगुना है.

बहुत सारी अरबपति भारतीय कॉर्पोरेट हस्तियों ने अमेरिकी विश्वविद्यालयों से पढ़ाई की है और उन्हें लाखों डॉलर दान में दिये हैं, लेकिन वे अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान पर अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर, भारतीय अमेरिकियों के साथ बराबरी बरतने को सुनिश्चित नहीं करवा सकते. इसके अलावा, भारतीयों और अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठानों के बीच इतनी गहरी सांठ-गांठ है, कि वे कारोबार से बाहर के किसी मुद्दे को तवज्जो नहीं देते.

अमेरिकी मूल्यों के प्रति निष्ठावान वहां के नौकरशाहों और राजनेताओं ने भारतीयों के हर तबके में पैठ बना ली है. उन्होंने वहां बेहिसाब पैसे बनाने के अवसरों और बेहतर जीवन शैली के अवसरों को दिखला कर मध्यवर्गीय भारतीयों को लुभा रखा है, भले ही इसका मतलब खुद को नीचे गिराना हो. अमेरिकी अगर अपनी स्वघोषित श्रेष्ठता की भावना नहीं त्यागते, तो बहुत जल्द अमेरिका अपनी सुपरपावर की हैसियत खो बैठेगा.

अमेरिका की स्टैच्यू ऑफ लिबर्टी आप्रवासियों का इन पंक्तियों से स्वागत करती है, ‘अपने थके, गरीब लोगों को मुझे सौंप दो जो आजादी से सांस लेना चाहते हैं.’ यह पंक्ति केवल ब्रिटेन और यूरोप के गोरे गरीबों के लिए लिखी गयी थी. 1923 में अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया था कि एशियाई भारतीयों को नागरिकता नहीं मिल सकती, मगर काले लोगों को बतौर गुलाम दी जा सकती है.

अमेरिकी सपने को कपास चुननेवाले गुलाम अफ्रीकी और रेल लाइन बनानेवाले चीनी आप्रवासियों के दम पर पूरा किया गया था. आधुनिक अमेरिका के असल सुपरहीरो भारतीय हैं. उनकी कीमत केवल 11000 डॉलर का चेक देकर तय नहीं की जा सकती, क्योंकि भारतीय अमेरिकी उस देश की अर्थव्यवस्था के लिए कहीं बड़े चेक जारी कर सकते हैं.

(ये लेखक के निजी विचार हैं)

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