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प्रत्यक्ष कर संग्रह की बढ़े हिस्सेदारी

प्रत्यक्ष करों का हिस्सा बढ़ाना चाहिए. अप्रत्यक्ष करों के बढ़ते हिस्से के रुझान को रोकना निश्चित ही संभव है.

अगले माह आर्थिक सुधारों के लागू होने के तीस साल पूरे हो जायेंगे. भारत के नौवें प्रधानमंत्री के रूप में नरसिम्हा राव ने 21 जून, 1991 को पदभार संभाला था और उनका कार्यकाल आधुनिक भारत में आर्थिक सुधार लागू करने के कारण ऐतिहासिक बन गया. एक माह बाद 24 जुलाई, 1991 को उनके वित्तमंत्री डॉ मनमोहन सिंह ने अपना पहला और महत्वपूर्ण बजट पेश किया. संसद में विक्टर ह्यूगो को उद्धृत करते हुए उन्होंने कहा, ‘धरती की कोई शक्ति उस विचार को नहीं रोक सकती है, जिसका समय आ गया है.

मैं इस सम्मानित सदन को कहना चाहता हूं कि विश्व में एक बड़ी आर्थिक शक्ति के रूप में भारत का उदय ऐसा ही एक विचार है.’ वह बजट कई कारणों से क्रांतिकारी था, जिसमें सबसे अहम था लाइसेंस परमिट राज का अंत. इसने विदेशी निवेश के लिए अर्थव्यवस्था का द्वार खोलने का मार्ग भी प्रशस्त किया.

कई अन्य सुधारों की ओर संकेत किया गया था और बाद के बरसों में भारत ने बैंकिंग, वाणिज्य और पूंजी बाजार में अनेक सुधार एवं विनियमन देखा. कराधान में बदलाव भी उस संबोधन का ऐसा ही अहम तत्व था. बजट पर टिप्पणी करते हुए अगले दिन ‘द हिंदू’ अखबार ने लिखा था कि इस बजट में कर संग्रहण के आधार को अप्रत्यक्ष करों से प्रत्यक्ष करों की ओर ले जाने का बड़ा बदलाव हुआ है और इससे समता के पैरोकार प्रसन्न होंगे.

बीते तीस बरसों में केंद्र सरकार के कराधान का आधार अप्रत्यक्ष से प्रत्यक्ष करों की ओर बढ़ा है. तब इनका अनुपात क्रमशः 80 और 20 था, जो अब लगभग आधा-आधा है. उपभोग कर या आयात शुल्क जैसे अप्रत्यक्ष कर प्रतिगामी हैं तथा तुलनात्मक रूप से धनिकों की अपेक्षा गरीबों पर इनका अधिक भार पड़ता है. वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) एक अप्रत्यक्ष कर है और यह चुकानेवाले की आय पर निर्भर नहीं करता है. आप धनी हों या गरीब, किसी साबुन, मंजन या डोसा पर एक ही कर देना होता है.

इसलिए अप्रत्यक्ष कर मूलतः अन्यायपूर्ण और प्रतिगामी होते हैं. किसी अर्थव्यवस्था और कर प्रशासन की परिपक्वता उसमें प्रत्यक्ष करों की हिस्सेदारी से मापी जा सकती है. कर विशेषज्ञों में शुद्धतावादी खेमे का कहना है कि आय व्यक्ति अर्जित करता है, इसलिए कराधान की इकाई भी व्यक्ति होना चाहिए, न कि किसी निगम या साबुन की टिकिया जैसी अमूर्त वस्तुएं. दूसरे शब्दों में, हमें आदर्श रूप में व्यक्ति की आय पर कर लगाना चाहिए, न कि किसी वस्तु या सेवा के मूल्य पर.

लेकिन व्यक्तियों की आय को रेखांकित करना बेहद मुश्किल काम है और लोग ईमानदारी के साथ स्वेच्छा से अपनी आय का ब्योरा नहीं देंगे. इसलिए अप्रत्यक्ष कर वसूले जाते हैं, क्योंकि आसानी से उनका आकलन हो सकता है और उससे बचना अधिक मुश्किल है, लेकिन प्रगति का सूचक आय, लाभांश, पूंजी लाभ और विरासत जैसे आधारों से अर्जित अधिक प्रत्यक्ष करों की हिस्सेदारी में बढ़ोतरी है. पैन संख्या के इलेक्ट्रॉनिक जुड़ाव और स्रोत पर कर लेने आदि तरीकों से आय के आकलन के अधिक परिष्कृत होते जाने से अब स्टॉक बाजार में लाभांश भुगतान और पूंजी लाभ को चिह्नित करना संभव है.

इसीलिए हाल में लाभांश वितरण कर को खत्म कर अब पानेवाले के लाभांश पर कर लगाने का प्रावधान किया गया है. तकनीक अप्रत्यक्ष से प्रत्यक्ष करों की ओर जाने को संभव बना रही है. कर संग्रहण में प्रत्यक्ष करों का हिस्सा बड़ा करने की दिशा में हुई अब तक की प्रगति को एक झटका लगा है. मार्च, 2021 को समाप्त हुए वित्त वर्ष में प्रत्यक्ष करों का अनुपात अप्रत्यक्ष करों से नीचे आ गया. बीते 13 बरसों में ऐसा केवल दो बार हुआ है. अगर यह रुझान बना रहा, तो कराधान प्रणाली को कम अन्यायपूर्ण बनाने के अब तक के प्रयास नाकाम हो जायेंगे.

अप्रत्यक्ष करों में बढ़त का एक मुख्य कारण केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा पेट्रोल और डीजल पर शुल्क में भारी वृद्धि है. यह केवल पिछले साल का रुझान नहीं है, बल्कि ऐसा लंबे समय से चला आ रहा है. इन उत्पादों पर केंद्र सरकार का शुल्क संग्रहण 2014-15 के 1.7 लाख करोड़ रुपये से बढ़कर हालिया बरसों में 3.4 लाख करोड़ रुपये हो चुका है. पेट्रोल व डीजल से बीते पांच साल में राज्यों की कमाई भी लगभग 40 फीसदी बढ़ चुकी है.

पेट्रो उत्पादों से हासिल शुल्कों का अनुपात कुल कर राजस्व का 20 फीसदी हो चुका है. यह इसके पहले के वित्त वर्ष में केवल 11 फीसदी तथा 2015 में मात्र आठ फीसदी था. यह विडंबनापूर्ण है कि महामारी के कारण लगे लॉकडाउन के चलते 2020-21 में पेट्रोल और डीजल के उपभोग में 10 फीसदी की कमी आयी थी, लेकिन केवल केंद्र सरकार का शुल्क संग्रहण 63 फीसदी की भारी बढ़त के साथ करीब 3.9 लाख करोड़ जा पहुंचा. तेल कीमतों में बढ़ोतरी यातायात और ढुलाई के खर्च में बढ़त के रूप में असर दिखायेगी और जल्दी ही फलों, सब्जियों, सीमेंट, उर्वरक और कई अन्य चीजों के दाम बढ़ने से उपभोक्ता मुद्रास्फीति के रूप में सामने आ सकती है. पिछले नौ महीने में अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत 45 फीसदी बढ़ने से भी पेट्रोल व डीजल महंगे हो रहे हैं.

ईंधनों पर शुल्क तथा जीएसटी से उलझे कराधान और अन्याय की समस्या गंभीर हो रही है. लेकिन हमें यह भी याद रखना चाहिए कि अपने समकक्षों की तुलना में करों और सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का अनुपात भारत में बहुत कम है. विकसित देशों में यह अनुपात 34 फीसदी है, जबकि भारत में केंद्र का कर संग्रहण जीडीपी के 10 फीसदी के आसपास ही है. साल 2019-20 में 9.88 फीसदी के साथ यह अनुपात दस साल के सबसे निचले स्तर पर आ गया था

ऐसा सितंबर, 2019 में कॉरपोरेट कर दरों को घटाकर 25 फीसदी करने से हुआ था. अर्थव्यवस्था में जीएसटी के दायरे का विस्तार सबसे जरूरी है. अभी यह बमुश्किल जीडीपी के एक-तिहाई के इर्द-गिर्द है. इसकी निचली दर को 12 फीसदी न सही, पर 15 फीसदी पर लाया जाना चाहिए. और, प्रत्यक्ष करों का हिस्सा बढ़ाना चाहिए. इसमें सभी तरह के आय शामिल हैं. तेजी से बढ़ते स्टॉक मार्केट में बड़ी मात्रा में पूंजी लाभ पड़ा हुआ है. शेयर बाजार में तेज उछाल से संपत्ति विषमता में और वृद्धि हो सकती है. पूंजी लाभ पर कर लगाना एक नीतिगत चुनौती है, पर अप्रत्यक्ष करों के बढ़ते हिस्से के रुझान को रोकना निश्चित ही संभव है. इसके लिए दक्षता और कराधान बढ़ाने के लक्ष्य की आवश्यकता है.

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