मोहन भागवत राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पहले सरसंघचालक हैं, जो समाज में बनी हुई संघ की नकारात्मक छवि, खास कर जो विरोधियों ने बनायी है, को क्रमश: ध्वस्त कर रहे हैं. वे संघ को समाज के उस हिस्से में स्वीकृति दिला रहे हैं, जहां गलत धारणाओं के कारण विरोध था. भागवत 2009 में संघ प्रमुख बने हैं. तब से उनके वक्तव्य या कार्यशैली में यह दिखता है. उनकी यह विशेषता भी है कि वे निजी तौर पर नहीं बोलते. वे जब बोलते हैं, तो वह संघ का सोचा-समझा दृष्टिकोण होता है.
उनसे पहले के जो संघ प्रमुख थे, उनके अनेक वक्तव्य निजी होते थे और उस वजह से विवाद भी पैदा होता था, लेकिन इन बारह बरसों में मोहन भागवत के किसी बयान से कोई विवाद पैदा नहीं हुआ है. यह कोई साधारण बात नहीं है. साल 2018 में दिल्ली के विज्ञान भवन में उन्होंने दो दिन व्याख्यान देने के बाद तीसरे दिन प्रश्नों के उत्तर दिये थे. इस कार्यक्रम में उनके विचार निर्विवाद रूप से स्वीकृत हुए, जबकि प्रथम सरसंघचालक से लेकर इनके पूर्ववर्ती केएस सुदर्शन तक ऐसा रहा कि वे कुछ भी बोल देते थे, तो वितंडा खड़ा हो जाता था. इसी कड़ी में मुस्लिम राष्ट्रीय मंच पर उनके बोलने को देखा जाना चाहिए.
ऐसे संपर्क और संवाद की शुरुआत बालासाहब देवरस ने 1977 में की थी, जब इमरजेंसी के दौरान जमाते-इस्लामी और अन्य संगठनों के लोग भी जेलों में बंद थे. तब संघ और जमात दोनों प्रतिबंधित थे. उस समय के संवाद से मुस्लिम संगठनों का कुछ दृष्टिकोण बदला, किंतु यह प्रक्रिया लंबी नहीं चल सकी. यदि वह सिलसिला आगे बढ़ता, तो शायद मुस्लिम मंच की जरूरत नहीं पड़ती, लेकिन संघ ने भारतीय मुस्लिमों को समझाने का प्रयास किया है, जिनके मन में कांग्रेस और कम्युनिस्टों ने गांठ बना दी है. इस विमर्श में भारतीयता मूल बात है और धर्म दूसरे स्थान पर है. इनके बाद आस्था, पूजा पद्धति, जीवनशैली आदि का स्थान आता है. हम भारत के हैं और भारतीयता हमारे लिए सबसे ऊपर होनी चाहिए. जो बात मोहन भागवत कह रहे हैं, उसका अर्थ यह हुआ कि संवैधानिक राष्ट्रीयता को समझने और उसका पालन करने की जरूरत है.
संघ के वक्तव्यों में यह एक नया जुड़ाव है. संघ में छोटा ही सही, पर एक वर्ग ऐसा रहा है, जो संविधान पर सवाल खड़े करता था, लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिस तरह से महात्मा गांधी और डॉ भीमराव आंबेडकर में समन्वय के सूत्र खोजे हैं, उससे संघ ने अपनी सहमति जता दी है. अब संविधान की राह पर चलते हुए सवाल पूछने की बजाय जरूरत के अनुसार सोच-समझ कर सरकार व सांसद पद्धति के अनुरूप संशोधन करेंगे, जैसा होता रहा है, लेकिन जो संविधान हमारे सामने है, उसे पहले स्वीकार करना है तथा उसके अनुरूप एक राष्ट्रीयता को विकसित करना है. देश को विकसित करने और समृद्ध बनाने के लिए यह अनिवार्य है. मोहन भागवत अपने संबोधन में इसे ही रेखांकित और स्थापित करने का महत्वपूर्ण प्रयास कर रहे हैं.
यह बात पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने उस समय कही थी, जब वे राजनीति में नहीं थे और जनसंघ भी अस्तित्व में नहीं आया था. संघ का प्रचारक रहते हुए उन्होंने 1950 में एक महत्वपूर्ण लेख- इस संविधान का क्या करें- लिखा था. जिस समय कम्युनिस्ट और सोशलिस्ट संविधान को चुनौती दे रहे थे, तब उन्होंने संघ और राष्ट्रीय धारा के लोगों को लेख के रूप में सलाह दी कि इसे हमारे अपने लोगों यानी भारतीयों ने बनाया है, इसे अंग्रेजों ने नहीं बनाया है, इसलिए इसे स्वीकार करिए और जहां जरूरी लगे, उसे बेहतर बनाइए.
उनकी इस दृष्टि के बाद कम्युनिस्टों, सोशलिस्टों, हिंदू महासभा और अन्यों ने अपनी समझ बदली तथा सभी संसदीय राजनीति की राह पर चल पड़े. यह भी उल्लेखनीय है कि तब पंडित दीनदयाल उपाध्याय कोई विख्यात व्यक्ति नहीं थे, पर जब यह लेख संघ की पत्रिका में छपा था, तो बहुत से लोगों ने इसे पढ़ा होगा और इस पर विमर्श हुआ होगा. यह लेख पंद्रह खंडों के दीनदयाल समग्र में संकलित है, जिसके संपादक मंडल में मेरी भी भूमिका रही थी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसका विमोचन किया था. पहले खंड में वह लेख है. मोहन भागवत ने भारतीयता के संदर्भ में जो वक्तव्य दिया है, उसे इस पृष्ठभूमि में देखें, तो मुझे लगता है कि वे पंडित दीनदयाल उपाध्याय की बात को 2021 में थोड़ा आगे बढ़ा रहे हैं.
मोहन भागवत के इस वक्तव्य का एक असर तो यह होगा कि संघ में जो लोग हिंसात्मक या उत्तेजनापूर्ण कार्यों में भाग ले रहे हैं या उन्हें प्रोत्साहित कर रहे हैं, वे अब विचारों व कार्यों पर पुनर्विचार करेंगे. दूसरा, ऐसी प्रवृत्तियों को संघ से प्रोत्साहन मिलना बंद होगा. तीसरा असर यह होगा कि कृत्यों के लिए जिम्मेदार समूहों को कानून का डर दिखाई पड़ेगा, क्योंकि अगर उनका कोई प्रत्यक्ष या परोक्ष संरक्षक नहीं है, तो उन्हें अपने स्तर पर यह सब करना होगा. राज्य तंत्र उनका साथ नहीं देगा, जैसा कि पाकिस्तान में तालिबानियों और अन्य चरमपंथी व कट्टरपंथी समूहों को वहां का राज्य तंत्र प्रोत्साहित करता है. वैसा माहौल यहां न बने, यह चौथा संदेश भागवत के संबोधन से निकलता है. भारतीय समाज, हिंदू समाज जिसका बहुत बड़ा हिस्सा है, में बहुत समय से विविधता है. हिंदू धर्म के भीतर पंथों की भी विविधता है, जो अपने वर्चस्व के लिए लड़ते भी रहे हैं, जो कि मानव स्वभाव है. किसी महाकुंभ में पंथों की इस विविधता को आसानी से देखा जा सकता है. लेकिन इससे एक संवैधानिक राष्ट्रीयता का उद्भव होगा, जो हमारे लिए यानी भारत की उन्नति के लिए बहुत जरूरी है.
पाकिस्तान के बनने के बाद मुस्लिम समुदाय का बड़ा हिस्सा, जिसकी आबादी करोड़ों में है, भारत में है और इसी भरोसे से है कि उन्हें मजहब की आजादी रहेगी. उसमें जो उत्पाती तत्व हैं और उनकी संख्या कोई कम नहीं है, उनको भी अगर पुनर्विचार करना हो, तो मोहन भागवत के बयान से मदद मिल सकती है. मुझे ऐसा लगता है कि शुरू से ही हमने भारतीय मुस्लिम को एक इकाई के रूप में देखने की गलती की है. इस संदेश से वह बात भी दूर होती है. जिस प्रकार से हिंदू समाज में जाति-पाति है, उसी तरह मुस्लिम और ईसाई समुदायों में भी जाति व्यवस्था है. उन्हें एक इकाई के रूप में न देख कर ऐसे देखा जाना चाहिए कि वे भारतीय समाज के हिस्से हैं. अगर ऐसी दृष्टि बनती है, तो फिर बहुत सारी जटिलताएं या बनी-बनायी धारणाएं टूटेंगी. (ये लेखक के निजी विचार हैं)