अफगानिस्तान में हालात तो बहुत नाजुक हैं. इस संबंध में दो तरह की राय हैं. एक राय यह है कि तालिबान ने जिन इलाकों पर कब्जा किया है, वहां सुरक्षाबलों की मौजूदगी ज्यादा नहीं थी और वहां आबादी भी अधिक नहीं थी. अफगान सुरक्षाबलों की ताकत को आसानी से खारिज नहीं किया जा सकता है. आगे चल कर इस गृहयुद्ध, जो लंबे अरसे से जारी है, में और अधिक तेजी आयेगी. दूसरी समझ यह है कि तालिबान की जो सैन्य रणनीति है, वह नब्बे के दशक से बहुत अलग है.
जिस तरह से उन्होंने अफगानिस्तान के उत्तर और पश्चिम के क्षेत्रों तथा पड़ोसी देशों से लगते सीमावर्ती क्षेत्रों पर कब्जा किया है तथा जिस तरह से अफगान सेना ने अपने हथियार डाले हैं, उससे ऐसा लगता है कि यह सब अधिक दिन नहीं चल सकेगा और अफगान सरकार व सेना तितर-बितर हो जायेगी.
जो दूसरी राय है कि तालिबान विजय की ओर बढ़ रहे हैं, उसमें एक पहलू जरूर है कि स्थितियों की गति उनके पक्ष में है और सेना के हौसले पस्त नजर आ रहे हैं. तालिबान ने कोई आबादी वाला बड़ा क्षेत्र या शहर तो कब्जा नहीं किया है, लेकिन कस्बों-देहातों में तथा शहरों के आसपास के इलाकों पर वे काबिज हो गये हैं. इस प्रकार, शहरों को उन्होंने अपने घेरे में ले लिया है. जो पांच हजार बरसों से होता आ रहा है, धीरे धीरे वे शहरों पर दबाव बढ़ायेंगे, कुछ कमांडरों को पैसा देंगे, कुछ को बरगलायेंगे, यानी कुछ न कुछ कर वे जब चाहेंगे, शहरों पर काबिज हो जायेंगे. हो सकता है कि कुछ शहरों के लिए थोड़ी-बहुत लड़ाई हो, पर आखिरकार यह खेल खत्म हो जायेगा.
जो पहला नजरिया है, उसमें यह है कि तालीबान अपनी बढ़त के साथ जैसी हरकतें कर रहे हैं, उनसे उनके खिलाफ नफरत भी बढ़ रही है. कुछ लोगों का यह मानना कि तालिबान अब बदल गये हैं, गलत साबित हुआ है. तालिबान के सामने हथियार डालने से तो अच्छा है कि आप खुदकुशी कर लें. खुदकुशी की ओर ही बढ़ना है, तो बेहतर है कि लड़ कर मरिए. तो, शायद कुछ दिनों या हफ्तों में आप देखेंगे कि अफगान फौज दुबारा अपने को संगठित करेगी, नेतृत्व उपलब्ध होगा और यह युद्ध जारी रहेगा.
इतनी जल्दी सब कुछ खत्म नहीं होगा. युद्ध के बारे में निश्चित रूप से कहना मुश्किल है, पर जिस तरीके से तालिबान का रवैया रहा है, उससे अमेरिका समेत पूरी दुनिया में हाहाकार तो मचा है. जो देश अभी तक ढुलमुल रवैया लेकर बैठे हुए थे, चाहे वह रूस हो, कुछ हद तक चीन, ईरान आदि, उनसे कुछ-कुछ आवाजें उठनी शुरू हुई हैं. उन्होंने तालिबान को कुछ चेतावनी दी है. अमेरिका के भीतर भी दबाव बढ़ रहा है.
इस बड़े खेल में भारत का जो रवैया है, वह स्थिर है. कुछ खबरें आयी हैं कि भारत ने तालिबान से कुछ संपर्क स्थापित किया है, लेकिन एक तो सरकार ने उसका खंडन कर दिया है और अगर ऐसा छोटा-मोटा संपर्क हुआ भी है, तब भी भारत अफगान सरकार के साथ है. बुधवार को विदेश मंत्री एस जयशंकर ने शंघाई सहयोग संगठन की बैठक में जो कहा है, वह मेरे ख्याल से बहुत अहम है. उनका कहना है कि अफगानिस्तान में ऐसी जोर-जबरदस्ती ठीक नहीं है और शांति प्रक्रिया को आगे बढ़ाया जाना चाहिए. बहरहाल, देश में युद्ध जारी है और तालिबान बढ़त पर हैं, लेकिन युद्ध की दशा व दिशा के बारे में अभी कह पाना मुश्किल है.
जहां तक अफगान सरकार और तालिबान के बीच बातचीत का सवाल है, तो यह बातचीत तो बहुत अरसे से चल रही है. तालिबान इसे लटका कर रखते हैं और साफगोई से किसी साझा सरकार के बारे में अपनी राय नहीं पेश करते. यह समझना मूर्खता ही है कि तालिबान के साथ सत्ता में साझेदारी की जा सकती है. अभी तक ऐसी संभावना नहीं दिखती है कि तालिबान के दो-तीन बड़े धड़े अलग हो जायेंगे. यह भी सवाल है कि क्या तालिबान के कमांडर शांति वार्ताओं में अपने प्रतिनिधियों के कहने पर हमले बंद कर देंगे, वह भी ऐसे समय पर, जब उन्हें लग रहा है कि वे जीत के करीब हैं.
हमारे जैसे लोग बरसों से कहते आ रहे हैं कि जब तक ऐसी स्थिति नहीं बनती कि तालिबान को जीतना असंभव लगे, तब तक कोई ठोस बातचीत नहीं हो सकती है. तो, आज जब वे बढ़त पर हैं, तो वे सत्ता में किसी के साथ साझेदारी क्यों करेंगे? आज तक उन्होंने यह नहीं बताया है कि साझेदारी का मसौदा क्या होगा. सात-आठ साल पहले जब ऐसी बात होती थी, तो कहा जाता था कि दक्षिण व पूर्व के कुछ इलाके तालिबान को दे दिये जाएं. पर, आज तालिबान इसे नहीं मानेंगे.
जिन इलाकों में तालिबान ने कब्जा किया है, वहां उन्होंने कड़े कायदे लागू किये हैं, जैसे- लोग दाढ़ी नहीं कटा सकते, सिगरेट नहीं पी सकते आदि. उन क्षेत्रों में 15 से 45 साल की महिलाओं की सूची बनाकर उनकी शादी तालिबानियों से करने का फरमान सुनाया जा रहा है. तो, ऐसा कौन सा काम है, जो इस्लामिक स्टेट कर रहा था और तालिबान नहीं कर रहे? इस्लामिक स्टेट के खिलाफ बोलते हुए अमेरिका और यूरोप के कई विचारक कहते थे कि तालिबानी अच्छे हैं और वे इस्लामिक स्टेट को रोकेंगे.
उनसे दोनों समूहों में अंतर के बारे में पूछा जाना चाहिए. यह समझा जाना चाहिए कि तालिबान के अमीर केवल तालिबान के अमीर नहीं हैं, वे अमीर-उल-मोमिनीन हैं. अभी भले ही वे कहें कि वे अफगान सरहद से परे नहीं जायेंगे, पर पहले की तरह वे देर-सबेर पड़ोसी देशों में घुसने की कोशिश जरूर करेंगे. उन्हें मध्य एशियाई देशों के शासन या ईरान के शिया उलेमा कबूल नहीं हो सकते. इसी प्रकार भले ही पाकिस्तान उनका दोस्त है, पर उसकी सरकार तालिबानियों को कहां तक गवारा हो सकेगी, यह सवाल भी है.
अगर तालिबान में बदलाव संभव होता, तो वे तालिबान ही नहीं होते. इनके खिलाफ प्रतिरोध तो होगा, लेकिन शायद वह नब्बे के दशक जैसा नहीं होगा, जब अहमद शाह मसूद, राशिद दोस्तम जैसे अनेक कमांडर होते थे और उन्हें रूस, ईरान और भारत का समर्थन हासिल था. तब भी तालिबानी पंजशीर की वादी को छोड़कर देश के करीब नब्बे फीसदी हिस्से पर काबिज हो गये थे. इस बार कुछ ऐसे इलाके भी उनके कब्जे में आ गये हैं, जो वे तब नहीं जीत सके थे. अफगान समाज के हिसाब-किताब को देखें, तो यह गृहयुद्ध अभी जारी रहेगा.