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बच्चों के कैंसर का उपचार संभव है

कैंसर के सभी लक्षणों पर ध्यान देना आवश्यक है. सही जांच और सही जगह पर उपचार हो, तो भारत में अनेक कैंसर मरीजों की जान बचायी जा सकती है.

बच्चों में होनेवाले कैंसर के अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जो आंकड़े सामने आते हैं, अमूमन उच्च सामाजिक-आर्थिक वर्ग या विशेषकर समृद्ध देशों-अमेरिका और यूरोपीय देशों से संबंधित होते हैं. इन देशों में रिपोर्टिंग सिस्टम अपेक्षाकृत बेहतर है. लेकिन, भारत समेत लगभग सभी दक्षिण एशियाई देशों और अनेक अफ्रीकी देशों में बच्चों के कैंसर के मामले सही तरह से रिपोर्ट नहीं होते. इसकी दो वजहें हैं, पहला कैंसर की पहचान नहीं हो पाती.

किसी लक्षण के चलते बच्चे की मौत हो जाती है, तो उसका कारण कैंसर नहीं माना जाता है. मान लें, किसी देहाती इलाके के किसी नर्सिंग होम में एक बच्चे में कैंसर की पहचान हुई, रिपोर्ट भी आ गयी, लेकिन वह आइसीएमआर को रिपोर्ट नहीं हुआ, तो वह मामला रिपोर्टिंग सिस्टम में नहीं आ पाता.

सेंटर फॉर कम्युनिकेबल डिजीज (सीडीसी) के अनुसार, कैंसर मामलों को दर्ज करना आवश्यक है. अमूमन, संक्रमण के मामले दर्ज होते हैं. इसी आधार पर सभी देशों के लिए स्पष्ट दिशा-निर्देश जारी होते हैं. कैंसर को भी इसी तरह रिपोर्ट करना आवश्यक होता है, ताकि हम उपचार और नियंत्रण के लिए प्रभावी रणनीति तैयार कर सकें. भारत में इसकी बहुत कमी है. हालांकि, व्यवस्था बनायी गयी है, पर वह प्रभावी नहीं है. कैंसर अस्पताल ऐसे मामलों को रिपोर्ट तो करते हैं. लेकिन, सवाल है कि क्या हर मरीज उन अस्पतालों तक पहुंच पा रहा है.

उच्च आय वाले देशों यानी उन देशों में जहां स्वास्थ्य बजट बेहतर है और मरीजों पर इलाज का बोझ नहीं है, वहां बच्चों में होनेवाले कैंसर में 80 प्रतिशत तक निदान संभव है. कैंसर की शुरुआती पहचान आवश्यक है. प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल के डॉक्टरों को पता होता है कि बच्चे में जो लक्षण हैं, वह कैंसरकारक हो सकते हैं. ज्यादातर मामले में कैंसर नहीं निकलता है. पर, 10 प्रतिशत मामलों में कैंसर जल्दी पकड़ में आ जाता है.

मरीज को नहीं पता होता है कि उन्हें जाकर कैंसर विशेषज्ञ से मिलना है. कोई उन्हें परामर्श देगा, तभी तो वे सही इलाज तक पहुंच पायेंगे. शुरुआती तौर पर पहचान नहीं होने से हमारे देश में कैंसर होने पर सर्वाइवल कम है. लोगों को नहीं पता कि बच्चों में भी कैंसर की समस्या है. डॉक्टर को भी नहीं जानकारी होती कि शुरुआती जांच में कैसे पहचान करें.

बच्चों में सामान्य तौर पर जो कैंसर होता है, वह ल्यूकीमिया यानी रक्त कैंसर, दूसरा लिंफोमा यानी लसीका तंत्र का कैंसर, तीसरा ब्रेन ट्यूमर, चौथा रेटिनोब्लास्टोमा यानी आंख का कैंसर और पांचवां है न्यूरोब्लास्टोमा, किडनी के ऊपर एक ग्रंथि होती है, यह उसका कैंसर है. यह ब्रेन का कैंसर नहीं है. अमूमन, बच्चों में यही पांच तरह के कैंसर होते हैं. ल्यूकीमिया और लिंफोमा का लक्षण रक्त से और सर्दी-खांसी से संबंधित होगा.

शरीर पर कहीं-कहीं लाल धब्बे निकल जाते हैं. ऐसे लक्षण को नजरअंदाज नहीं करना है. बुखार होने पर आपने बच्चे को पीडियाट्रिशियन को दिखाया, उन्होंने बुखार की दवा दे दी. अगर वह ठीक नहीं हो रहा है, तो शक स्वाभाविक है. उसकी जांच करायें. डॉक्टर को भी इन पहलुओं पर विचार करना चाहिए. वजन में कमी, थकान, चिड़चिड़ाहट ये सभी ल्यूकीमिया, लिंफोमा के लक्षण है. ब्रेन ट्यूमर में मेडुलोब्लास्टोमा कैंसर होता है.

इसकी मुख्य वजह जन्मजात जीन की खराबी हो सकती है. अगर बच्चा सिरदर्द की शिकायत करता है, तो अभिभावक मान लेते हैं कि वह स्कूल नहीं जाने का बहाना बना रहा है. या फिर लगता है कि टीवी और मोबाइल बहुत देखता था, चश्मा लगनेवाला है. सिरदर्द होने पर उसे उबकाई आती है या उल्टी हो जाती है, तो यह ब्रेन ट्यूमर का लक्षण है. इसकी तुरंत जांच करायें. आंख के कैंसर में काली पुतली के बीच में सफेदी आ जाती है.

बच्चे को अगर दिखना बंद हो जाये, तो रेटिनोब्लास्टोमा हो सकता है. शरीर में कोई असामान्य गांठ हो जाये, जरूरी नहीं कि दर्द हो ही. वहां मांसपेशी या हड्डी का कैंसर हो सकता है. किडनी के कैंसर में बच्चे का पेट फूलने लगता है. इन सभी लक्षणों पर ध्यान देना जरूरी है. सही जांच और सही जगह पर उपचार हो, तो भारत में अनेक कैंसर मरीजों की जान बचायी जा सकती है.

वयस्कों के कैंसर में सिर्फ पांच से 15 प्रतिशत जीन की समस्या से होता है. बच्चों में कैंसर की दो परिकल्पनाएं हैं. बच्चा जब मां के गर्भ में पल रहा होता है, अगर कोई कैंसर कारक तत्व उसे प्रभावित करे, तो आगे समस्या हो सकती है. माना जाता है कि सूर्यग्रहण की किरणें गर्भवती मां को प्रभावित करती हैं. इससे बच्चे के जीन में दोष आ सकता है, हालांकि इसे पूरी तरह साबित करने का तरीका नहीं मिल रहा है. इसे कहते हैं कि सिंगल हिट हाइपोथिसिस.

दूसरी संभावना है कि कैंसरकारक रसायन या खाद्य पदार्थ से वह कैंसर के प्रभाव आ जाये. पर्यावरणीय प्रदूषण या रेडिएशन ऐसे बच्चों को दोबारा प्रभावित करे, तो इसे कहते हैं डबल हिट हाइपोथिसिस. यह पूरी तरह से अभी सत्यापित नहीं है.

हालांकि, बचाव के लिए जरूरी है कि मां अपने खान-पान का ध्यान रखे, रसायन और मिलावट युक्त खाद्य पदार्थों से बचे. ब्रेन ट्यूमर में मोबाइल रेडिएशन अहम कारक हो सकता है. गर्भवती माताओं को मोबाइल से दूरी बना कर रखनी चाहिए. अत्यधिक कॉस्मेटिक्स के इस्तेमाल से बचना चाहिए, इसमें संभावित कैंसरकारक रसायन होते हैं. अभी तक के शोध से अनेक तरह के कारणों का पता लगा हैै. हमें ऐसे बचाव उपायों को अपनाने के जरूरत है. (बातचीत पर आधारित)

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