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बादल फटने की गंभीर त्रासदी

भले भारत का प्राकृतिक आपदा से प्रभावित 171 देशों की सूची में 78वां स्थान है, लेकिन हमें संभावित खतरों से निबटने हेतु त्वरित प्रयास तो करने ही होंगे.

कुछ दशक पहले बादल फटने की घटनाएं कभी-कभार होती थीं, लेकिन बीते बरसों में, खास कर 2015 से, ऐसी घटनाएं आम होती जा रही हैं और इनमें बढ़ोतरी हो रही है. अक्सर बादल फटने की घटनाओं से देश के उत्तरी राज्यों- उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर को दो-चार होना पड़ता है. मई महीने में उत्तराखंड में देवप्रयाग, पौड़ी, दशरथ पर्वत और चकराता में बादल फटने से हुई तबाही को लोग भूले भी नहीं थे कि बीते दिनों हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर और लद्दाख की घटनाओं ने हिला कर रख दिया.

बीते दिनों हिमाचल प्रदेश के लाहौल स्पीति, किन्नौर और कुल्लू में बादल फटने से आयी बाढ़ में कई जानें गयी हैं. मनाली-लेह मार्ग बंद होने से सैकड़ों पर्यटक फंस गये हैं, 387 सड़कें बंद हैं तथा 500 करोड़ रुपये मूल्य का नुकसान हुआ है. जम्मू-कश्मीर में भी जान-माल भारी नुकसान हुआ है.

उत्तराखंड में लगातार बारिश होने से 45 सड़कें बाधित हैं. यहां गंगा सहित कई नदियों के जलस्तर बढ़ने से लोगों में दहशत है. प्राकृतिक आपदाओं का पहाड़ों के साथ चोली-दामन का रिश्ता है. मध्य हिमालय का यह भू-भाग दुनिया की नवविकसित पहाड़ी श्रृंखलाओं में गिना जाता है. ऐसे में भूस्खलन और बादल फटने की घटनाएं यहां आम हैं.

ऐसे हादसों में लगातार हो रही बारिश और बादल फटने से पानी का उफान इतना तेज होता है कि वह कच्चे-पक्के रास्तों तक को अपने साथ बहा ले जाता है. इससे राहतकर्मी और जवानों को कुछ किलोमीटर की दूरी तय कर घटनास्थल तक पहुंचने में काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है और समय भी काफी लगता है.

वातावरण में दबाव जब कम होता है और एक छोटे दायरे में अचानक भारी मात्रा में बारिश होती है, तब बादल फटने की घटना होती है. ऐसा तब होता है, जब बादल आपस में या किसी पहाड़ी से टकराते हैं. तब अचानक भारी मात्रा में पानी बरसने लगता है. इसमें 100 मिलीमीटर प्रति घंटा या फिर उससे भी अधिक तेजी से बारिश होती है. भारी नमी से लदी हवा जब-जब अपने रास्ते में पड़नेवाली पहाड़ियों से टकराती है, तब-तब बादल फटने की घटना होती है, जो आमतौर से 2500 से 4000 मीटर की उंचाई पर होती है.

एक साथ भारी मात्रा में पानी गिरने से धरती उसे सोख नहीं पाती और बाढ़ की स्थिति पैदा हो जाती है. बीच में यदि हवा बंद हो जाए, तो बारिश का समूचा पानी एक छोटे से इलाके में जमा होकर फैलने लगता है. उस स्थिति में वह अपने साथ रास्ते में मलबा आदि भी बहा ले जाता है.

आज देश की 6.88 फीसदी आबादी पर इस प्राकृतिक आपदा का खतरा मंडरा रहा है. जलवायु परिवर्तन ने इसमें अहम भूमिका निभायी है. बादल फटने की घटनाओं को भी वैज्ञानिक जलवायु परिवर्तन से जोड़ कर देख रहे हैं. उत्तराखंड और हिमाचल जैसे पर्वतीय संवेदनशील राज्यों में अंधाधुंध विकास की भूमिका को भी नकारा नहीं जा सकता.

अब भी समय है कि हमारे नीति-निर्धारक पहाड़ी राज्यों में बेहिसाब विकास पर अंकुश लगाने की सोचें. भले भारत का प्राकृतिक आपदा से प्रभावित 171 देशों की सूची में 78वां स्थान है, लेकिन हमें संभावित खतरों से निबटने हेतु त्वरित प्रयास तो करने ही होंगे. यह सच है कि इन आपदाओं को रोका नहीं जा सकता, लेकिन रोकथाम के प्रयासों से कम तो किया ही जा सकता है. लगता है, 2013 की उत्तराखंड त्रासदी से केंद्र और राज्य सरकारों ने कुछ सीखा नहीं है.

इस बार मानसून भले देर से आया हो, लेकिन भारी बारिश से अनेक राज्यों में बाढ़, भूस्खलन और बादल फटने की घटनाओं से भारी तबाही हुई है. बाढ़, तूफान, भूकंप, भूस्खलन, बिजली गिरने और सूखे की घटनाएं दुनियाभर में होती हैं, लेकिन कई देशों में आपदाओं से प्रभावित लोगों का जीवन बचाने और उन्हें तत्काल सहायता पहुंचाने के लिए आपदा राहत के समुचित प्रबंध होते हैं.

इन आपदाओं में जन-धन की भीषण हानि होती है, जिसकी भरपाई असंभव है. प्रभावित लोगों के लिए ये त्रासदियां जीवनभर के दुख का कारण बन जाती हैं, पर प्राकृतिक आपदाओं से पीड़ितों को राहत पहुंचाने के लिए जिम्मेदार लोगों के लिए ऐसे अवसर उनकी अपनी कमाई का जरिया बन जाते हैं. सरकारें बदलती रहती हैं, लेकिन इस तंत्र में कुछ बदलाव नहीं आता. सरकारें आज भी दावे तो बहुत कुछ करती हैं, किंतु बीते सालों में ऐसा कुछ नहीं हुआ है, जिनसे इन दावों की ठीक से पुष्टि होती हो.

बादल का फटना एक भीषण आपदा है. इसकी वजह से गांव के गांव और कस्बे जमींदोज हो जाते हैं, बह जाते हैं. सैकड़ों जिंदगियां पल भर में लोप हो जाती हैं. कभी-कभी तो उनका कोई नामलेवा तक नहीं बचता, जो उनकी मौत पर आंसू तक बहा सके.

अब तो आपदाएं आये-दिन की बात हो गयी हैं. ऐसा लगता है कि यह देश की जनता की नियति बन चुकी हैं. हमारे देश में सबसे बड़ी बात तो जागरूकता के प्रसार का अभाव है. इस मामले में सरकारों की बेरुखी समझ से परे है. आपदा के समय ही कुछ बेचैनी दिखाई पड़ती है, उसके बाद फिर सब कुछ पहले जैसा हो जाता है, मानो कुछ हुआ ही न हो. इस रवैये में तुरंत बदलाव की दरकार है.

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