ऋषि आत्रेय को आयुर्वेद का प्रणेता माना जाता है. एक दिन उनके शिष्यों ने पूछा, आचार्य! क्या कोई ऐसी दवा है, जिससे हर रोग का इलाज हो सके? ऋषि आत्रेय ने मुस्करा कर कहा, हां है. ‘आहारप्रभवा रोगा लङ्घनं परमौषधम’ यानी उपवास रखना या निराहार रहना ही सबसे बड़ी दवा है, क्योंकि आहार ही बीमारियों की जड़ है. अधिकतर बीमारियां हमारे आहार के दोषों या उसकी मात्रा से जन्म लेती हैं. आज महामारी की तरह फैल रही मधुमेह, जिगर, पेट और दिल की बीमारियां और मोटापा आचार्य अत्रेय की बात को वैज्ञानिक तौर पर प्रमाणित करते हैं.
भुखमरी की समस्या को दूर करने के लिए पिछली दो सदियों से हम खेती व पशुपालन का औद्योगीकरण और भोजन का प्रसंस्करण करते आ रहे हैं. भोजन की बढ़ती प्रचुरता और बेहतर होते जीवन स्तर के कारण हम जरूरत से ज्यादा खाने लगे हैं. प्राकृतिक पदार्थों को छोड़ कृत्रिम रूप से तैयार प्रसंस्कृत पदार्थ खाने लगे हैं, जिन्हें पचाने के लिए हमारा शरीर बना ही नहीं है. साथ ही, हमने लंबे उपवास करना और दो भोजन के बीच लंबा अंतराल रखना छोड़ दिया है.
इसकी वजह से हमारे पाचन-तंत्र को अपनी देखभाल करने और शरीर को अपनी सफाई और मरम्मत करने का समय नहीं मिल पाता है. कृत्रिम और प्रसंस्कृत पदार्थों को खाने की वजह से शरीर में विकार बढ़ रहे हैं, जो विभिन्न रोगों और मोटापे को जन्म देते हैं. अकेले भारत में ही लगभग आठ करोड़ लोग मधुमेह से पीड़ित हैं. यूरोपीय शोधपत्र डायबीटोलोजिया में प्रकाशित नये शोध के अनुसार, 2045 तक यह संख्या बढ़कर साढ़े तेरह करोड़ हो सकती है. अभी बीस साल की उम्र के 55 प्रतिशत युवाओं और 65 प्रतिशत युवतियों के जीवन में आगे मधुमेह के रोगी बन जाने की आशंका है. डॉक्टर मधुमेह को भारत की मौन महामारी कहने लगे हैं.
यह बीमारी गुर्दे, जिगर और पेट की और बहुत-सी बीमारियों को जन्म देती है. पेट के इर्द-गिर्द चर्बी जमा होने लगती है और वजन बढ़ने लगता है. रक्तचाप और दिल की बीमारियां भी घेरने लगती हैं. डॉक्टरों का मानना है कि कोरोना महामारी की दूसरी लहर में मृत्यु दर ऊंची रहने का एक कारण मधुमेह की बीमारी रहा. भारत में लोग नियमित रूप से खून की जांच नहीं कराते हैं, इसलिए उन्हें बीमारी का पता नहीं होता.
विशेषज्ञ मधुमेह के महामारी का रूप धारण करने के चार कारण गिनाते हैं. पहला, हम ज्यादा खाने लगे हैं. दूसरा, मशीनों और मोटरों ने जीवन आसान बना दिया है. इसलिए भोजन से मिली कैलरी या ऊर्जा पूरी तरह खर्च नहीं हो पाती. तीसरा, भोजन में प्रसंस्कृत पदार्थों और रसायनों की मात्रा बढ़ गयी है. चौथा, हमने उपवास रखना और खाने के बीच अंतराल रखना बंद कर दिया है और हम नियमित रूप से व्यायाम नहीं करते. चौथा कारण ही इस बीमारी का सबसे अचूक और आसान इलाज भी है.
तमाम शोध उन्हीं बातों को प्रमाणित कर रहे हैं, जो भारत के वैद्य ढाई हजार साल पहले आयुर्वेद ग्रंथों में लिख गये हैं. नियमित उपवास से हमारे पाचन तंत्र में मुस्तैदी आती है और इंसुलिन का स्तर नियंत्रण में रहता है, इसलिए मधुमेह नहीं होता. सबसे बड़ी बात यह है कि हमारी कोशिकाएं अपनी सफाई और कचरे को रिसाइकल करने लगती हैं. इसे स्वपाचन कहते हैं. इससे कैंसर नहीं होता और बुढ़ापे की रफ्तार धीमी पड़ती है. दिमाग में नयी कोशिकाएं और नये संपर्क जाल बनने से भूलने की बीमारी और पार्किन्संस जैसी बीमारियों की संभावना कम हो जाती है. पेट के आसपास चर्बी जमा नहीं होती, इसलिए वजन भी नहीं बढ़ता.
उपवास के फायदों की जानकारी इंसान को प्राचीन काल से है. इसलिए लगभग सारे धर्मों और रीति-रिवाजों में उपवास की परंपरा है. आज उपवास के नाम पर ऐसे आहारों का चलन हो गया है, जिनमें औसत आहार से अधिक शक्कर, कार्बोहाइड्रेट और चिकनाई होती है. आयुर्वेद की तरह ही आज का विज्ञान दो तरह के उपवासों की बात करता है- भोजन के बीच अंतराल का रोजाना उपवास और 24 घंटे से लेकर 168 घंटों तक का एक दिन से सात दिन का उपवास.
भोजन के बीच अंतराल के दैनिक उपवास को 8-16 का उपवास भी कहते हैं. यह उपवास कोई उपवास नही है. केवल अपनी भोजन की दिनचर्या को आदिम मानव की उस दिनचर्या से मिलाने का प्रयास है, जिसमें रह कर हमारे शरीर का विकास हुआ है. आज हालत यह है कि हम सारा दिन कुछ-न-कुछ खाते-पीते ही रहते हैं. एक दिन या 24 घंटे के उपवास के बाद उपवास जारी रखने से उसके लाभ उत्तरोत्तर बढ़ते जाते हैं. व्यायाम करने पर मांसपेशियां बनने लगती हैं और बुढ़ापे के लक्षण कम होने लगते हैं. साथ ही, याददाश्त बेहतर होने लगती है और एकाग्रता बढ़ने लगती है.
ये लाभ तभी मिलते हैं, जब एक दिन से लंबे उपवास के साथ सैर करने जैसे हल्के व्यायाम भी किये जाएं. उपवास के दौरान शरीर में खनिजों की उचित मात्रा बनाये रखने के लिए खूब पानी पीना आवश्यक है. इसलिए इसे जल-उपवास भी कहते हैं. कमजोरी महसूस होने पर पानी में चुटकी भर नमक डाल कर पीने से मदद मिलती है. कैंसर रोगियों पर हुए शोधों से यह भी पता चला है कि तीन दिन का उपवास करने के बाद की जानेवाली कीमोथरेपी से रोगी की स्वस्थ कोशिकाओं पर कम बुरा असर पड़ता है.
इसलिए अब लंबे उपवासों की उपयोगिता पर काम हो रहा है. ध्यान रहे कि आयुर्वेद और आधुनिक विज्ञान के अनुसार ये उपवास इंसुलिन की कमी से होनेवाले मधुमेह टाइप-1 के रोगियों, गर्भवती महिलाओं और किशोरों के लिए ठीक नहीं हैं. उपवासों और व्यायाम के साथ ही खान-पान की गुणवत्ता पर भी ध्यान देना जरूरी है. आहार वैज्ञानिकों का मानना है कि सारे प्रसंस्कृत तेल और उनमें तले हुए भोजन हानिकारक हैं.
जैतून, नारियल और सरसों की कच्ची घानी के तेल और मक्खन व घी जैसी प्राकृतिक चिकनाइयां शरीर के लिए बेहतर हैं. औद्योगिक रूप से पाले गये पशुओं के मांस और मुर्गियों के अंडों से खुले चरागाहों की घास पर पले जानवरों के मांस और खुले मैदान में पली मुर्गियों के अंडे बेहतर हैं. उपवास खोलते समय के भोजन का पाचन भी दिनभर खाने-पीने के बाद किये जानेवाले भोजन से अलग होता है. हमारे शरीर के लिए भोजन पचाना श्रम का काम है. उपवास के बाद के भोजन को पचाने में शरीर को अपेक्षाकृत कम श्रम करना पड़ता है. इसलिए आयुर्वेद और आहारशास्त्र बताता है कि लंबे उपवास के बाद धीरे-धीरे हल्का भोजन ही करना चाहिए.