रूस ने नवंबर से यूक्रेन की सीमा पर सैनिकों का जमाव शुरू किया था, जो 1.30 से 1.70 लाख के बीच पहुंच गया था. रूसी राष्ट्रपति पुतिन का कहना है कि इस जमाव की मुख्य वजह अमेरिकानीत सामरिक संगठन नाटो का रूस की सीमाओं तक आना है. वे इस बात से नाराज हैं कि अमेरिका और यूरोपीय देश अपने उस वादे से मुकर गये कि सोवियत संघ से अलग हुए पूर्वी यूरोप के देशों में नाटो का विस्तार नहीं होगा, पर ऐसे 14 देशों को नाटो में शामिल कर लिया गया और रूस नाटो देशों से घिरता गया.
पुतिन को लगता है कि अब यूक्रेन की बारी है और फिर बेलारूस और जॉर्जिया को भी नाटो में शामिल किया जायेगा. पुतिन ने यूक्रेन को यूरोपीय संघ और नाटो में जाने से रोकने के लिए 2010 में वहां राष्ट्रपति विक्टर यानुकोविच की सरकार बनवायी, जो रूस समर्थक थे, लेकिन यूक्रेन के बहुसंख्यक लोग भ्रष्टाचार, तानाशाही और रूस-परस्ती से नाराज थे. वे पड़ोसी पोलैंड और रोमानिया की तरह यूरोपीय संघ में शामिल होना चाहते थे, ताकि आर्थिक विकास हो सके और लोकतांत्रिक व्यवस्था कायम हो सके. साल 2014 में यानुकोविच के खिलाफ आंदोलन शुरू हुआ, जिसे मैदान क्रांति कहते हैं.
क्षेत्रफल के हिसाब से यूक्रेन रूस के बाद यूरोप का सबसे बड़ा देश है. जारशाही के दौर में इसे रूस में शामिल किया गया था. यहां सत्तर प्रतिशत लोग यूक्रेनी बोलते हैं और अब रूस से आजाद लोकतांत्रिक व्यवस्था चाहते हैं. बाकी लोग रूसी बोलते हैं और रूस के साथ ऐतिहासिक रिश्ते बनाये रखना चाहते हैं. रूसी भाषी लोग पूर्वी डॉनबास क्षेत्र और उसके आस-पास के रूस की सीमा से लगनेवाले इलाकों और दक्षिण के कालासागर में फैले क्रीमिया प्रायद्वीप में रहते हैं.
साल 2014 में यानुकोविच के तख्ता-पलट के बाद रूस ने रूसियों की सुरक्षा के नाम पर क्रीमिया में जनमत संग्रह करा कर कब्जा कर लिया तथा डॉनबास क्षेत्र के डोनांस्क और लुहांस्क प्रांतों पर रूसी विद्रोहियों का नियंत्रण करा दिया. अमेरिका और नाटो पुतिन की इस चाल के लिए तैयार नहीं थे और यूक्रेन में गृहयुद्ध जैसे हालात बन गये थे, इसलिए कोई कुछ नहीं कर पाया.
जॉर्जिया पर भी पुतिन ने 2008 में यूक्रेन जैसा ही हमला किया था और अपनी सीमा से लगे दो छोटे प्रांतों- अबखाजिया और दक्षिणी ओसेतिया में विद्रोहियों का नियंत्रण करा दिया था, जो रूस का समर्थन करते हैं. युद्धाभ्यास करने और हमले का इरादा न होने का भरोसा दिलाते हुए हमले करना और पड़ोसी देशों के इलाकों को हड़प लेना या अपने समर्थकों का शासन कायम करा देना पुतिन की शैली बन चुकी है. इसलिए अब अमेरिका और नाटो उनकी बातों में नहीं आना चाहते.
शायद इसी से घबरा कर राष्ट्रपति पुतिन सेना की वापसी और बातचीत करने की बात करने लगे हैं, पर यह समझ में नहीं आता कि यूक्रेन पर हमला कर वे हासिल क्या करना चाहते थे? यह सही है कि अमेरिका और नाटो इस समय लड़ाई में यूक्रेन का साथ नहीं दे सकते, क्योंकि वह न तो यूरोपीय संघ का सदस्य है और न ही नाटो का. वह यूरोपीय संघ का केवल एक साझीदार सदस्य है, जिसके सहारे उसे सहयोग भर दिया जा सकता है.
इसीलिए नाटो पहले यूक्रेन और जॉर्जिया की मदद नहीं कर पाया था. पुतिन की भी जीत तय नहीं है, क्योंकि युद्ध में रूसी सेना का रिकॉर्ड बहुत अच्छा नहीं है. यदि वे जीत भी गये, तो वहां कितने दिन नियंत्रण रख सकेंगे, यह कहना मुश्किल है. सबसे बड़ा सवाल जीत की कीमत का है.
कोविड की मार से चरमरायी रूसी अर्थव्यवस्था क्या अमेरिका और नाटो की ताकत के खिलाफ खड़ी रह पायेगी? हमले की सूरत में अमेरिका और यूरोप कड़ी आर्थिक पाबंदियों के साथ रूस की विदेशों में जमा पूंजी को जब्त करने की योजना भी बना रहे हैं. क्या पुतिन और उनके अमीर ओलिगार्क अपनी पूंजी से हाथ धोना चाहेंगे?
नाटो के नजरिये से देखें, तो लड़ाई छिड़ने से यूरोप की गैस और तेल की आपूर्ति बंद हो जायेगी. सबसे बड़े और शक्तिशाली देश जर्मनी समेत यूरोप के कई देश रूस से आनेवाली गैस पर निर्भर हैं, जो यूक्रेन से होकर आनेवाली गैस पाइपलाइन से आती है. गैस के दाम लड़ाई की आशंका भर से तिगुने हो चुके हैं. लड़ाई छिड़ने पर मंहगाई आसमान छूने लगेगी. इसलिए नाटो देश नहीं चाहते कि लड़ाई हो. रूस को भी लड़ाई से कोई सीधा लाभ होता नजर नहीं आता.
पुतिन अपनी धौंस की कूटनीति से नाटो से यह गारंटी चाहते हैं कि यूक्रेन को कभी नाटो में शामिल नहीं किया जायेगा और नाटो रूस के पड़ोसी देशों को सदस्यता देना बंद कर देगा. वे यह भी चाहते हैं कि नाटो रोमानिया और पोलैंड जैसे देशों से अपने हथियार हटा ले. नाटो इन मांगों को नहीं मान सकता, क्योंकि यूक्रेन अब एक स्वतंत्र देश है. नाटो की सदस्यता लोकतंत्र, पारदर्शिता और मानवाधिकार की कड़ी शर्तें पूरा करने पर ही दी जाती है. रूस की धौंस से कायदे नहीं बदले जा सकते, पर पुतिन रूस के पड़ोस में कठपुतली सरकार वाले देशों का एक खेमा खड़ा करना चाहते हैं. यूक्रेन के विवाद की असली जड़ यही है.
यूक्रेन के संकट ने रूसी गैस पर आश्रित जर्मनी जैसे देशों को अपनी ऊर्जा नीति पर भी पुनर्विचार करने के लिए विवश किया है. यूक्रेन संकट से भारत को भी सीख लेनी चाहिए और अपनी तेल व गैस की निर्भरता को कम करते हुए अक्षय ऊर्जा का उत्पादन बढ़ाने की रणनीति अपनानी चाहिए. यूक्रेन का संकट अब लड़ाई के बजाय धैर्य-परीक्षा की लड़ाई की तरफ बढ़ता नजर आ रहा है.
यह लड़ाई लंबे समय तक खिंच सकती है, जिसका असर भारत में बजट और महंगाई पर होगा. कूटनीतिक दाव-पेचों में भी भारत को अमेरिका, नाटो और रूस के बीच संतुलन बना कर चलना होगा, लेकिन भारत के लिए सबसे बड़ी चिंता रूस और चीन के बीच बढ़ती नजदीकियों की होगी. चीन ने यूक्रेन मामले पर रूस का सीधा समर्थन किया है और रूस से लगभग 200 अरब डॉलर का तेल व गैस खरीदने का सौदा किया है.
दरअसल, चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग पुतिन को रोकने के बजाय उनकी पीठ थपथपा रहे हैं, ताकि वे अमेरिका व नाटो को यूक्रेन में उलझा कर रखें तथा चीन को दक्षिणी चीन सागर, हिंद-प्रशांत क्षेत्र में अपने मंसूबे पूरे करने की छूट मिल जाए. रूस का चीनी खेमे में जाना और एशिया का चीन के प्रभाव क्षेत्र में बदलना भारत-अमेरिका संबंधों के लिए भी नयी मुश्किलें खड़ी कर सकता है.