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हॉकी के सुनहरे दौर की वापसी

अगर भविष्य में हमें बेहतरीन खिलाड़ियों की दरकार है, तो राज्य सरकारों को हॉकी को स्कूली स्तर पर अनिवार्य बनाने की दिशा में पहल करनी होगी.

पुरुष हॉकी टीम द्वारा तोक्यो ओलिंपिक में जर्मनी को हराकर कांस्य पदक जीतना, और वह भी चार दशक बाद, बेहद खुशी का मौका है. बहुत दशक पहले 1964 में तोक्यो में ही आयोजित ओलिंपिक में स्वर्ण पदक जीतने का मेरा सपना साकार हुआ था. उसी जगह हुई यह जीत बहुत यादगार है. मेरा ख्याल है कि यह मैच इस आयोजन के बेहतरीन मुकाबलों में एक था और इसमें हमारी टीम का प्रदर्शन बहुत शानदार रहा. हॉकी में पदक के लिए हम 41 साल से इंतजार कर रहे थे.

यह एक लंबी यात्रा रही है और इसमें काफी बाधाएं आयी हैं. लेकिन इस टीम ने उन्हें पार किया और एक अच्छी टीम को हराकर मेडल जीता. आज मैं यह बात जरूर कह सकता हूं कि इस जीत के साथ फिर से जीतते जाने के दौर की शुरुआत हो गयी है. महिला हॉकी टीम का प्रदर्शन भी शानदार रहा है.

भारत एवं जर्मनी की पुरुष हॉकी टीमों का यह मुकाबला उन्होंने देखा होगा तथा इस जीत से उन्हें बहुत हौसला मिला होगा और उनमें जोश आयेगा. हमें पूरी उम्मीद है कि महिला टीम भी अपना मैच बहुत अच्छी तरह से खेलेगी और इस जीत को दोगुना करेगी. अगर ऐसा होता है, तो इतिहास में पहला मौका होगा, जब दोनों ही टीमें ओलिंपिक से मेडल जीतकर लौटेंगी.

ओलिंपिक मेडल के बीच जो चार दशकों का फासला रहा, उसकी बड़ी वजह यह थी कि हॉकी के मैच घास के मैदानों की बजाय एस्ट्रो टर्फ यानी कृत्रिम घास पर खेले जाने लगे. इस बदलाव के साथ बदलने में और उसे अपनाने में हमें बहुत समय लग गया. ऐसा इसलिए हुआ कि पहले हम घास के मैदानों में खेलते थे. समूचे देश में गांव-गांव में घास के मैदान हैं. वहीं खेलकर खिलाड़ी आगे आते थे. जब एस्ट्रो टर्फ की सुविधा आयी, तब सबसे पहले वह महानगरों में उपलब्ध हुई क्योंकि इसमें बहुत खर्च आता है.

धीरे-धीरे कृत्रिम घास के मैदान राज्यों में बनाये जाने लगे. फिर खिलाड़ियों के प्रशिक्षण के लिए शिविर लगाये जाने लगे. उन शिविरों में ऐसे मैदानों की सुविधा होती है. कुछ समय से राष्ट्रीय स्तर के सभी आयोजनों के लिए यह अनिवार्य कर दिया गया है कि उनमें होनेवाले मैच एस्ट्रो टर्फ पर ही होंगे. तो, धीरे-धीरे खिलाड़ियों को इसका अभ्यास होने लगा.

अनुभव के साथ-साथ ऐसे मैदानों के अनुकूल उनमें शारीरिक क्षमता भी आयी. इसके अलावा एक महत्वपूर्ण बदलाव यह आया कि टीमों को प्रशिक्षित करने के लिए विदेशी प्रशिक्षक आने लगे. यह इसलिए जरूरी है कि हॉकी का खेल अब बहुत तकनीकी हो गया है. इन परिवर्तनों के साथ तैयारी का नतीजा आज हमारे सामने है.

जहां तक हॉकी के खेल के विकास का मामला है, तो हमें ओडिशा सरकार और मुख्यमंत्री नवीन पटनायक के योगदान को रेखांकित करना चाहिए. वे हॉकी इंडिया के प्रायोजक बने और कई बड़े-बड़े आयोजन उन्होंने ओडिशा में कराया है. इस साल के अंत में जूनियर विश्व कप होनेवाला है. वह भी ओडिशा में होगा. उनके साथ अन्य प्रायोजकों ने भी खेल को बढ़ावा देने में भूमिका निभायी है. विभिन्न खेल संघों को केंद्र सरकार की ओर से वित्तीय व अन्य सहयोग मिलता है, उससे भी बेहतरी में बड़ी मदद मिली है.

खेलों के प्रभारी रहे केंद्रीय मंत्री किरण रिजिजू ने अलग-अलग खेलों के खिलाड़ियों को प्रोत्साहित करने की मुहिम चलायी थी. उसका भी बड़ा फायदा मिला है. कुछ दिन पहले इस मंत्रालय में आये अनुराग ठाकुर भी खेलों के विकास को लेकर प्रतिबद्ध हैं. जब विभिन्न पक्ष एक-दूसरे के साथ सहयोग और समन्वय से काम करेंगे, तो खेलों में बेहतरी आयेगी और हमें अच्छे नतीजे मिलते रहेंगे. इस ओलिंपिक में भी बॉक्सिंग, बैडमिंटन, कुश्ती, वेटलिफ्टिंग समेत अनेक खेलों में हमारे खिलाड़ियों ने अच्छा प्रदर्शन किया है और मेडल जीते हैं.

हॉकी समेत सभी खेलों में देश को आगे ले जाने के लिए एक खेल संस्कृति का निर्माण बहुत आवश्यक है. हमारे यहां स्कूलों में नर्सरी के स्तर पर खेल का प्रावधान नहीं है. बहुत से स्कूल ऐसे हैं, जिनके पास खेल के मैदान ही नहीं हैं, अन्य संसाधनों की तो बात ही छोड़ दें. जब तक बच्चे स्कूल से ही हॉकी या अन्य खेल नहीं खेलेंगे और उसे कॉलेज में जारी नहीं रखेंगे, तब तक खिलाड़ी कैसे पैदा हो सकेंगे? यह लगातार करने और सीखने की प्रक्रिया होती है.

स्कूल से खेलते रहने से ही कॉलेज तक पहुंचने के समय एक परिपक्वता आ सकती है. यह तो है कि स्कूलों में हॉकी खेलने की व्यवस्था नहीं है. ऐसा अन्य खेलों के साथ भी है. हमारे देश में हॉकी बची हुई है और चल रही है, तो ऐसा अकादमियों की वजह से है. इनमें कुछ सरकार द्वारा संचालित हैं और कुछ निजी प्रबंधन की अकादमी हैं. इनकी वजह से हमें हॉकी खिलाड़ी मिल रहे हैं.

अगर भविष्य में हमें बेहतरीन खिलाड़ियों की दरकार है, तो राज्य सरकारों को हॉकी को स्कूली स्तर पर अनिवार्य बनाने की दिशा में पहल करनी होगी. ऐसा अन्य खेलों में भी किया जाना चाहिए. दुनिया में ऐसे देश हैं, जहां खेल अनिवार्य विषय हैं. जब आप ऐसी व्यवस्था करेंगे, तो निश्चित ही खेलों के प्रति रुझान बढ़ेगा.

हमारे दौर में देशभर में हॉकी को लेकर एक क्रेज था. तब क्रिकेट की लोकप्रियता आज जैसी नहीं थी. मुझे याद है, जब 1961 में मैंने पंजाब की ओर से पहली बार राष्ट्रीय स्तर पर खेला था, तब हर मैच को देखने के लिए हजारों लोग जुटते थे. अन्य आयोजनों में भी बहुत लोग जमा होते थे. खिलाड़ियों और लोगों में हॉकी को लेकर जुनून जैसा था. लेकिन वन डे और ट्वेंटी-ट्वेंटी क्रिकेट मैचों के आने के साथ हॉकी में दिलचस्पी घटती गयी. हमारे टीवी चैनल भी क्रिकेट ही दिखाते रहते हैं, भले ही उन मैचों में भारत नहीं खेल रहा हो.

अगर ऐसा ही बर्ताव दूसरे खेलों के साथ हो, तो निश्चित ही उनकी लोकप्रियता बढ़ेगी. इससे प्रेरणा मिलेगी, अधिक बच्चे-युवा उन खेलों को अपनायेंगे और प्रतिभाएं उभरकर आयेंगी. क्रिकेट में अधिक ग्लैमर और पैसा है, लेकिन धीरे-धीरे दूसरे खेलों में भी स्थिति बेहतर होने लगी है. हॉकी समेत अनेक खेलों के लीग आयोजन होते हैं, जिनमें खिलाड़ियों को पैसा मिलता है. ऐसे आयोजन नियमित रूप से होते रहेंगे, तो दूसरे खेलों में भी अवसर बढ़ेंगे. मुझे उम्मीद है कि तोक्यो ओलिंपिक की जीत के बाद हॉकी से अधिक प्रायोजक जुड़ेंगे और खिलाड़ियों का भी उत्साह बढ़ेगा.

(हरबिंदर सिंह ने भारतीय हॉकी टीम के सदस्य के रूप में 1964, 1968 और 1972 के ओलिंपिक आयोजन में हिस्सा लिया था. उन्हें महानतम हॉकी खिलाड़ियों में गिना जाता है.)

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