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भारत बनाम इंडिया का विभाजन

अचानक अगर कामगारों को बाहर या घर में मारने का सिलसिला चलने लगे, तो डर का माहौल बनना लाजिमी है. यह डर पलायन की वजह भी बनता है.

हाल में प्रकाशित वैश्विक भूख सूचकांक रिपोर्ट में शामिल 116 देशों की सूची में भारत का स्थान 101वां है. भारत के विभाजित राजनीतिक वातावरण में इस मुद्दे को राजनीतिक फुटबॉल बना दिया गया है और इसको जल्दी ही भुला दिया जायेगा. आधिकारिक प्रचार तंत्र किसी अन्य मसले को सामने लाकर इसे दबा देगा, तो विपक्ष अपने पाले में कुछ अंक हासिल करना चाहेगा.

ये दोनों रवैये देश में गरीबों, खास कर बच्चों के साथ अन्याय हैं, जहां स्वीकार्य तौर पर और आधिकारिक गणना के अनुसार, कुपोषण 50 प्रतिशत बच्चों की मौत में योगदान देनेवाला एक कारक है. ये जटिल और परस्पर संबद्ध मसले हैं, जिनका समाधान जल्दी नहीं किया जा सकता है, पर ये बहुत शीघ्र अधिक गंभीर हो सकते हैं. ऐसे में इस रिपोर्ट पर विचार करना जरूरी है. यह रिपोर्ट देश के भीतर के बहुत पहले से चले आ रहे ‘भारत बनाम इंडिया’ के विभाजन को भी रेखांकित करती है. यह विभाजन ग्रामीण और शहरी भारत के बीच है या किसानों और अच्छी नौकरी करनेवालों के बीच है.

अतीत में इस विभाजन को लेकर दबाव रहता था और इसकी सुनवाई भी होती थी. धीमी गति से ही सही, इसने नीति और राजनीति में बदलाव भी किया था और इस क्रम में कभी-कभी सत्ता और विशेषाधिकार पर दावे रखनेवाले बेचैन भी हो जाते थे. लेकिन विरोध का अपना वजन होता था और इसके पास राजनीतिक पूंजी होती थी तथा उसकी मांग को वैधता प्राप्त थी. श्रमिक संगठनों की अपनी आवाज होती थी. किसान एकजुट होकर सरकार को सुनवाई के लिए बाध्य कर सकते थे.

अब स्थिति बदल चुकी है और दोनों तरह के भारत के बीच खाई चौड़ी हो चुकी है. किसान लंबे अरसे से बड़ा आंदोलन चला रहे हैं, लेकिन उनके जीवन और कामकाज को बदल देनेवाले अहस्तक्षेपकारी कानूनों के विरुद्ध उठी उनकी आवाज को नकार दिया गया है. भारत इस रवैये से कमजोर ही हुआ है. इसी तरह, देश में शिशु मृत्यु दर भी अनसुनी आवाज बन कर रह गयी है. ये बच्चे और उनके माता-पिता अपने बुनियादी अधिकारों की मांग करने भी असमर्थ हैं. यह सच है कि यह नयी समस्या नहीं है, लेकिन, आधे मन से ही सही, पहले ऐसी चिंताओं के समाधान के प्रयास किये गये थे. पर, अब हमने अपना मुंह दूसरी ओर मोड़ लिया है.

इस प्रकार बीते कल के विभाजन आज बढ़ गये हैं. इसकी झलक हमें कई रूपों में दिखती है. पिछले साल आप्रवासी कामगारों को उनके हाल पर छोड़ दिया गया था और उनके साथ उचित व्यवहार नहीं हुआ था. वहीं बाद में उद्योग जगत ने उन्हें बलपूर्वक वापस लाने तथा उनके श्रम अधिकारों में कटौती करने की मांग करनी शुरू कर दी. महामारी की दूसरी लहर में एक ओर सामान्य नागरिक ऑक्सीजन के लिए भटक रहे थे, तो दूसरी ओर अस्पताल उस संकट से भारी कमाई कर रहे थे.

एक तरफ नयी राजधानी बन रही है, तो दूसरी तरफ आम लोगों के इंफ्रास्ट्रक्चर बेहद खराब हालत में हैं. होटलों और हवाई अड्डों पर भीड़ है, तो युवाओं के रोजगार के मसले पर कोई चर्चा नहीं हो रही है. हर दिन देश में सौ से अधिक लोग सर्पदंश से मर जाते हैं, तो कुछ अच्छे अस्पतालों में बेहतरीन स्वास्थ्य सेवा उपलब्ध है. विचाराधीन कैदी जेलों में पड़े रहते हैं, पर मुंबई के पूर्व पुलिस आयुक्त गायब हो जाते हैं. ऐसे कई उदाहरण हैं. इस क्रम में भूख सूचकांक एक और संकेतक है कि कैसे भारत पीछे छूटता जा रहा है.

ऐसा लगता है कि हमारी सरकार एक निश्चितता के भाव के साथ काम कर रही है, जिसकी प्राथमिकताओं में आज की आवश्यकताएं नहीं हैं. बल्कि, उसके अपने वैचारिक आवरण में यह भरोसा बहाल किया जा रहा है कि भारत का समय आ गया है कि कारोबारी इसकी अगुवाई करेंगे तो व्यापक समृद्धि होगी और सरकार निजी क्षेत्र को आगे कर खुद पीछे हो जायेगी.

इसका खूब प्रचार-प्रसार भी किया जा रहा है और किसी भी असंतोष को हाशिये पर डालने की कोशिश की जा रही है. इससे भारतीय परंपराओं की उत्कृष्ट विरासत को नुकसान होता है. ऐसे रवैये से वांछितों और निर्धनों में क्रोध और नफरत बढ़ते जा रहे हैं. यह सतत विकास की ओर अग्रसर भारत की तस्वीर नहीं है.

संकीर्ण वैचारिक समझ के आधार पर समाजवाद, गांधी और नेहरू आदि को गलत या कमतर बता कर निजी क्षेत्र और उसकी संभावनाओं का गुणगान हो रहा है. इस समझ में इतिहास को लेकर वितृष्णा का भाव है, इसमें संदर्भ का अभाव है और यह अज्ञान व खराब सोच से प्रेरित है. इससे सीमाओं का अतिक्रमण होता है तथा लापरवाही और कुटिलता की बढ़ोतरी होती है, जो राष्ट्रीय मुद्दे और उच्च राष्ट्रीय आकांक्षा का मिथ्या आभास दिलाती है.

ऐसी मान्यताओं से हर बात को सही ठहराया जाता है और उसे आगे बढ़ाया जाता है. किसी भी प्रकार की आलोचना पर तीखी प्रतिक्रिया होती है. अंतत: भारत जैसे व्यापक और बहुविध लोकतंत्र में संतुलन और बुद्धिमत्ता से ही शासन किया जा सकता है. वैधतापूर्ण दावों और मांगों को अनसुना करना प्रगति की निशानी नहीं कही जा सकती है. हमें समझना होगा कि कहीं हम गिरावट की ओर तो उन्मुख नहीं हैं. इसका एक और स्वतंत्र संकेतक भूख सूचकांक है.

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