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इस दीपावली ऐसे बांटें उजाला

हम किसी ब्रांड के आकर्षण में न फंसकर स्वदेशी यानी स्थानीय स्तर पर उत्पादित हो रही वस्तुओं को खरीदना व इस्तेमाल करना शुरू कर दें, तो न सिर्फ देश की अर्थव्यवस्था मजबूत होगी, बल्कि उसकी आत्मनिर्भरता का मार्ग भी प्रशस्त होगा.

हर घर, हर दर, बाहर, भीतर/नीचे ऊपर, हर जगह सुघर/कैसी उजियाली है पग-पग/जगमग जगमग जगमग जगमग!/छज्जों में, छत में, आले में/तुलसी के नन्हें थाले में/यह कौन रहा है दृग को ठग?/जगमग जगमग जगमग जगमग!/पर्वत में, नदियों, नहरों में/प्यारी प्यारी सी लहरों में/तैरते दीप कैसे भग-भग!/जगमग जगमग जगमग जगमग!/राजा के घर, कंगले के घर/हैं वही दीप सुंदर सुंदर!/दीवाली की श्री है पग-पग/जगमग जगमग जगमग जगमग! देश स्मृतिशेष सोहनलाल द्विवेदी के बनाये दीपावली के इस शब्द-चित्र को फिर साकार करने में व्यस्त है.

दीपावली को प्रकाश का पर्व जरूर कहा जाता है और नि:संदेह, वह उसका है भी. मगर उसे समग्रता से यानी धनतेरस से भैया दूज तक पर्वों के गुच्छे के रूप में देखें, तो वह जितना प्रकाश का पर्व है, उतना ही हमारे अंतर्मन की उजास और उल्लास का भी है तथा व्यापार-वाणिज्य, सुख-समृद्धि एवं शुभ-लाभ का भी. इसीलिए देश की अर्थव्यवस्था हो या किसी घर की, उसका त्योहारी मौसम दीपावली से ही शुरू होता है. इस बार वह इस त्योहारी मौसम से कुछ ज्यादा ही उम्मीद कर रही है क्योंकि भीषण कोरोना संक्रमण झेलने के बाद अब खुशियों के संक्रमण की जरूरत है.

हम इसमें अर्थव्यवस्था की मदद कर सकते हैं, अगर दीपावली की खरीदारियों से पहले अपनी भूमिका को ठीक से समझ लें. हमारे पुरखे इसे हमसे बेहतर समझते थे. इस बात को भी कि उजास, उल्लास, सुख और समृद्धि फैलाने और बांटने से ही बढ़ते हैं, अन्यथा नये अनर्थ गढ़ने लग जाते हैं. इसीलिए उन्होंने हमेशा शुभ-लाभ की ही कामना की यानी उतने ही लाभ की, जितना शुभ हो. दीप से दीप जलाने और उन्हें अगणित कर असंख्य घरों को रोशन करने की परंपरा भी उन्होंने डाली. मनीषियों की इस सीख को भी नहीं भूलना चाहिए कि उसमें जलनेवाला तेल किनके श्रम से पैदा हुआ है.

दीये का प्रकाश उन श्रमजीवियों की ही संतान है. इसी तरह भोजन करते समय उनके कल्याण की कामना करनी चाहिए, जिनके उपजाये अन्न व फल और दुहे दूध से भूख शांत होती है. यह प्रार्थना करनी चाहिए कि नदियां बहें और बादल बरसें. सारे पेड़-पौधे फूलें-फलें. उन सबकी समृद्धि में अपनी समृद्धि देखनी चाहिए, जिनके बुने कपड़े पहनते हैं, जिनके बनाये घरों में रहते हैं और जिनकी औषधियों से अपने स्वास्थ्य का संवर्धन करते है. कवि ने यह कह कर मनीषियों की इस सीख में नयी कड़ी जोड़ी है कि जलाओ दिये तो रहे ध्यान इतना, अंधेरा धरा पर कहीं रह न जाये.

ऐसा कर हम ‘सर्वे भवंतु सुखिनः’ की अपने पूर्वजों की अभीष्ट दिशा में बढ़ सकते हैं. इस दीपावली पर हमारे पास सेवा करने का एक अद्भुत मौका है. दीपावली की खरीदारी के लिए हम बाजार जाएं, तो उनकी उगायी और बनायी चीजें घर लायें और उनकी मार्फत खुशियां मनाएं. इससे न सिर्फ आपकी, बल्कि उनकी दीपावली भी शुभ होगी. यह संतोष भी हासिल होगा कि जो पूरे साल खुद चिंतित रह कर भी आपका इतना ख्याल रखते हैं, आपने भी दीपावली पर उनका थोड़ा ख्याल रखा.

आपको याद होगा, कोरोना काल में लॉकडाउन के कारण हम संसार से कट गये थे और अनेक उपभोक्ता वस्तुओं की आपूर्ति बाधित हो गयी थी, तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘लोकल के लिए वोकल’ यानी स्थानीय के लिए मुखर होकर उसे ग्लोबल यानी विश्वव्यापी बनाने का आह्वान किया था. अभी स्वदेश-निर्मित कोरोना टीकों से सौ करोड़ देशवासियों के टीकाकरण के बाद देश को संबोधित करते हुए भी उन्होंने ‘मेड इन इंडिया’ को जनांदोलन बनाने और लोकल वस्तुएं खरीदने को अपनी आदत में शामिल करने को कहा था.

उनके इस आह्वान से बहुत लोगों को गुलामी के दौर का स्वदेशी आंदोलन याद आया. साल 1905 में जोर पकड़नेवाले उस आंदोलन का दृष्टिकोण यह था कि देश का उद्धार विदेशियों को दरकिनार कर भारतीयों द्वारा उत्पादन व निर्माण तथा भारतीयों द्वारा खरीद के रास्ते से ही संभव है. आजादी के बाद यह दृष्टिकोण बदल नहीं गया होता, तो प्रधानमंत्री को हमें उसकी याद दिलाने की जरूरत नहीं पड़ती.

लेकिन अभी भी देर नहीं हुई है. कोरोना के दौरान जिस तरह लोकल उत्पादों की अहमियत हमारी समझ में आयी और प्रधानमंत्री मोदी ने उनके लिए वोकल होने और लोकल उत्पादन व सप्लाई चेन को मजबूत बनाने पर जोर दिया, उसके मद्देनजर हम किसी ब्रांड के आकर्षण में न फंस कर स्वदेशी व स्थानीय स्तर पर उत्पादित वस्तुओं को खरीदना व इस्तेमाल करना शुरू कर दें, तो न सिर्फ देश की अर्थव्यवस्था मजबूत होगी, बल्कि उसकी आत्मनिर्भरता का मार्ग भी प्रशस्त होगा, जो किसी भी विपत्ति की घड़ी में हमारा अवलंब बनेगा.

साथ ही, देशवासियों के जीवन स्तर में सार्थक परिवर्तन भी होगा, खासकर उनके, जो विविध वस्तुएं बना और उगा कर या नाना सुविधाएं जुटा कर हमारा जीवनयापन सुगम बनाते हैं. उत्पादन निर्माण और विपणन का यह सिलसिला चल निकला, तो नौकरियों व रोजगारों की कमी को भी पूरा करेगा और अन्य देशों की कंपनियां पर निर्भरता घटायेगा और हम लोकल से ग्लोबल बनने का सपना देख पायेंगे. लेकिन यह सपना तभी पूरा होगा, जब प्रधानमंत्री मोदी अपने आह्वान को अपने नीतिगत निर्णयों के बल से भी बली करें. जबानी जमा खर्च तक सीमित रहकर तो यह किसी मंजिल तक पहुंचने से रहा!

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