दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी जनसंख्या वाला देश भारत रोजगार के मामले में बेहद पिछड़ा माना जाता है. मानव सभ्यता विकास के प्रथम चरण से ही प्रगति का मापदंड रोजगार ही रहा है. इसमें यदि कोई देश पिछड़ा है, तो अमूमन यह मान लिया जाता है कि उसकी आर्थिक प्रगति कमजोर है. आंकड़ों के अनुसार, भारत में मात्र 3.75 प्रतिशत लोगों के पास सरकारी नौकरी है. निजी संगठित क्षेत्र की बात करें, तो यहां कुल नौकरियों का 10 प्रतिशत रोजगार हैं.
रोजगार के शेष अवसर असंगठित क्षेत्रों में उपलब्ध हैं, या ऐसा कहें कि असंगठित क्षेत्र भारत की वह आर्थिक रीढ़ है, जिसने आर्थिक मंदी जैसी वैश्विक चुनौतियों से विगत बरसों में भारत को बचाये रखा है. असंगठित क्षेत्र ही एक ऐसा क्षेत्र है, जहां बड़ी संख्या में रोजगार उपलब्ध है, लेकिन यहां अधिकतर श्रम कानून लागू नहीं होते और श्रमिकों का बड़े पैमाने पर शोषण होता है.
भारत में जनसंख्या वृद्धि की दर ढ़ाई से तीन प्रतिशत है. प्रत्येक वर्ष लगभग एक से डेढ़ करोड़ युवा बेरोजगारी की कतार में खड़े हो जाते हैं. इतने बड़े मानव संसाधन का प्रबंधन बेहद दुरूह कार्य है. महामारी ने अर्थव्यवस्था को इस बीच शिथिल कर दिया है. सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इकोनॉमी के एक ताजा अध्ययन में यह बात सामने आयी है कि कोविड-19 के कारण अप्रैल, 2021 तक 75 लाख लोगों की नौकरी चली गयी है. अप्रैल के बाद भी इसमें सुधार होने के बदले और ह्रास ही हुआ है.
आंकड़े बताते हैं कि कोरोना से केवल रोजगार पर ही नकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ा है, अपितु जीवन, स्वास्थ्य, भोजन और पर्यावरण पर भी इसका असर पड़ रहा है. भारत एक नये संकट की ओर बढ़ रहा है. ऐसे में सरकार और समाज दोनों की जिम्मेदारी बढ़ गयी है. फिलहाल मनरेगा के तहत ग्रामीण क्षेत्रों में थोड़े रोजगार तो मिल रहे हैं, लेकिन यह दूरगामी परिणाम देनेवाला नहीं है.
इसलिए कोई ऐसी योजना बनानी होगी, जो समेकित रोजगार विकास पर काम करे और प्रत्येक वर्ष बेरोजगारी में हो रहे इजाफे को नियोजित और प्रबंधित कर सके. भारत सरकार ने 2009 में राष्ट्रीय कौशल विकास निगम की स्थापना की थी. इसका उद्देश्य पूरे देश में एक प्रशासनिक निकाय के तहत सभी कौशल कार्यक्रमों को लागू करना था. इन प्रयासों को गति नरेंद्र मोदी के नेतृत्ववाली सरकार ने 2014 में प्रदान की. वर्ष 2015 में सरकार ने कौशल विकास कार्यक्रमों के तहत 2022 तक 50 करोड़ युवाओं को प्रशिक्षित करने का राष्ट्रीय लक्ष्य तय किया.
इसकी प्राप्ति के लिए राज्य सरकारों की भूमिका भी सुनिश्चित की गयी. राज्यों में कौशल विकास केंद्र स्थापित किये गये और बड़े पैमाने पर लोगों को स्वरोजगार का प्रशिक्षण दिया जाने लगा. इसमें कोई संदेह नहीं है कि केंद्र सरकार की यह महत्वाकांक्षी योजना बेहद प्रभावी रही है, लेकिन इसमें कुछ ऐसी खामियां हैं, जिन्हें ठीक कर इसे और प्रभावशाली बनाया जा सकता है.
कोविड काल में इसका उपयोग कर सरकार अर्थव्यवस्था को जल्दी पटरी पर ला सकती है. उदाहरण के तौर पर, इस योजना के तहत कौशल कार्यक्रमों की रूप-रेखा का पुनर्गठन किया जा सकता है यानी आपूर्ति-संरचना से मांग संचालित करने के लिए कौशल निर्माण की नयी नीति के पुनर्गठन और निर्माण की आवश्यकता है. उसी प्रकार योजनाओं का रूपांतरण होना चाहिए.
राज्य और केंद्रीय स्तर पर सरकारें विभिन्न विभागों के तहत कई कौशल निर्माण कार्यक्रम चला रही हैं. राज्य में लगभग 22 विभाग कुछ अन्य प्रकार के कौशल निर्माण कार्यक्रमों को लागू कर रहे हैं. राज्य में एक प्रशासनिक निकाय के तहत सभी कौशल निर्माण कार्यक्रमों को परिवर्तित करने के लिए एक नीति होनी चाहिए, ताकि एक विशिष्ट भौगोलिक स्थान में कोई हस्तक्षेप न हो क्योंकि वर्तमान संरचना प्रशिक्षुओं और उनके माता-पिता के बीच भ्रम पैदा करती है. इसे परिमार्जित करने की जरूरत है. साथ ही, कौशल विकास कार्यक्रम को बैकवर्ड और फॉरवर्ड लिंकेज की द्विपक्षीय प्रणाली से जोड़ने से बेहतर परिणाम आ सकेंगे.
यह अनुभव किया गया है कि कौशल कार्यक्रम समावेशी नहीं हैं, लाभार्थी और प्रशिक्षण भागीदार के बीच हमेशा एक आकांक्षी बेमेल है, इसलिए हमें एक ऐसा ढांचा तैयार करना होगा, जिसमें समुदायों को शामिल किया जा सके और उनकी आकांक्षाओं के आधार पर कार्यक्रमों को समुदायों में डिजाइन और कार्यान्वित किया जा सके. इसके साथ सामुदायिक उद्यमिता कार्यक्रम और कौशल निर्माण कार्यक्रम में एकरूपता की आवश्यकता है.
इसमें तकनीकी पक्ष का हस्तक्षेप भी बेहद जरूरी है. कौशल विकास कार्यक्रमों में प्रशिक्षण का अधिकांश प्रारूप भारी उद्योगों और बड़े औद्योगिक संयंत्रों को ध्यान में रख कर बनाया गया है, जबकि इस क्षेत्र में रोजगार के अवसर बेहद कम हैं और यह बड़े औद्योगिक घरानों के हित में है. व्यापक परिप्रेक्ष्य के लिए प्रशिक्षण व्यवस्था को पारंपरिक मोड में लाना होगा. इसे भारत की विशाल और पारंपरिक कृषि व्यवस्था के साथ जोड़ना होगा.
ऐसे तकनीकी प्रशिक्षण देने होंगे, जिसकी जरूरत किसानों को पड़ती है और जो रोजमर्रा के जीवन में उपयोगी साबित होता है. ग्रामीण अर्थव्यवस्था की आवश्यकताओं को जोड़कर ही विकास की अवधारणा की पूर्णता हासिल की जा सकती है. इसे नगरोन्मुख नहीं, ग्रामोन्मुख बनाना होगा. पारंपरिक हस्तशिल्प को भी इसके साथ जोड़ना होगा. तभी हम बेरोजगारी को नियोजित और प्रबंधित कर सकेंगे. समावेशी विकास के लिए नगरीय और ग्रामीण परिवेश को साथ रखते हुए कौशल विकास का उन्मुखीकरण समय की मांग है.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)