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कार्यबल में कम महिलाएं

महिलाओं के आर्थिक सशक्तीकरण में सुनियोजित निवेश लैंगिक समानता, गरीबी उन्मूलन और समावेशी विकास में संतोषप्रद परिणाम दे सकता है.

आर्थिक सशक्तीकरण लैंगिक समानता की बुनियाद है. महिलाओं को अगर आर्थिक तौर पर मजबूती मिले, तो गरीबी के खिलाफ लड़ाई आसान हो सकती है. लेकिन, भारत में बीते कुछ दशकों से कार्यबल में महिलाओं की भागीदारी निरंतर कम हो रही है. इससे सतत विकास लक्ष्य मुश्किल प्रतीत होने लगे हैं. विश्व बैंक के अनुसार, 1990 के दशक में महिला श्रमबल भागीदारी दर (एफएलएफपीआर) जो 30.27 प्रतिशत थी, वह 2019 में घटकर 20.8 प्रतिशत पर आ गयी. कोरोना महामारी में यह और चिंताजनक रही.

मार्च-अप्रैल, 2020 में जहां 13.4 प्रतिशत पुरुषों की नौकरियां गयीं, वहीं इस संकटकाल में 26.6 प्रतिशत महिलाएं कार्यबल से बाहर हो गयीं. बीते साल के अंत तक भले ही दिसंबर, 2019 के मुकाबले लैंगिक फासले में मामूली कमी आयी हो, लेकिन महिलाओं के मामले में यह 14 प्रतिशत से अधिक बरकरार है. साल 2020 में विश्व स्तर पर आधे से भी कम (46.9 प्रतिशत) महिलाएं श्रमबल का हिस्सा रहीं, जबकि चार में से तीन पुरुषों (74 प्रतिशत) को रोजगार के मौके मिले.

विश्व श्रम संगठन का अनुमान है कि कोविड के चलते 14 करोड़ पूर्णकालिक नौकरियों का नुकसान हुआ. इस दौर में महिलाओं के रोजगार पर 19 प्रतिशत अधिक का खतरा रहा. परिस्थितियों में सुधार के साथ पुरुषों के लिए रोजगार की स्थिति थोड़ी बेहतर हुई, लेकिन महिलाओं के लिए यह अभी भी चिंताजनक है. जो महिलाएं जॉब मार्केट का हिस्सा हैं, वे कम आय, कमतर सामाजिक लाभ वाली नौकरियों में हैं और वह सुरक्षित भी नहीं है.

साल 2003-04 से 2010-11 की उच्च विकास दर वाली अवधि में भी सशक्तीकरण का लाभ महिलाओं तक नहीं पहुंचा. अमूमन, जिन देशों खासकर चीन, अमेरिका, इंडोनेशिया और बांग्लादेश से हम तुलना करते हैं, उनमें भारत की स्थिति सबसे बदतर है. सीएमआइइ के अनुसार, नौकरी प्राप्त करना पुरुषों के मुकाबले महिलाओं के लिए अधिक मुश्किलों भरा है. यानी महिलाओं को रोजगार देने के मामले में समाज में एक प्रकार का पक्षपात मौजूद है.

कोविड-पूर्व अवधि में महिला श्रमबल भागीदारी दर 17.5 प्रतिशत थी, जो ऐतिहासिक रूप से न्यूनतम रही. अरब जगत को छोड़कर पूरी दुनिया में ऐसी स्थिति कहीं नहीं है. अनेक सामाजिक मान्यताएं और महिलाओं के प्रति सामाजिक हिंसा भी उनके रोजगार में अवरोधक है. अगर महिलाएं आर्थिक तौर पर स्वावलंबी बनें, तो शोषण और सभी प्रकार की हिंसाओं से वे स्वत: मुक्ति पा सकती हैं. यह अर्थव्यवस्था और सामाजिक विकास के लिए भी हितकर होगा.

महिलाओं के आर्थिक सशक्तीकरण में सुनियोजित निवेश लैंगिक समानता, गरीबी उन्मूलन और समावेशी विकास में संतोषप्रद परिणाम दे सकता है. अनेक अध्ययनों से यह पता चलता है कि पुरुषों और महिलाओं की संयुक्त टीम का परिणाम अपेक्षाकृत बेहतर होता है और विफलताओं की गुंजाइश कमतर होती है.

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