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संसद में पक्ष-विपक्ष में संवादहीनता

सदन में गहन राजनीतिक खींचतान दिखेगी, लेकिन मौजूदा नीतिगत और विधायिका संबंधी प्राथमिकताओं से ध्यान नहीं हटना चाहिए.

मौजूदा संसद सदस्य भाग्यशाली हैं कि वे जनप्रतिनिधि के रूप में संसद की पुरानी इमारत में बैठ रहे हैं. ठीक एक साल बाद यही सांसद मोदी सरकार द्वारा निर्मित हो रहे नये संसद भवन में बैठेंगे. ये 750 सांसद 1921 में औपनिवेशिक काल में बनी इमारत और 2022 में तैयार होनेवाले नये भवन के बीच संपर्क सूत्र होंगे. वर्तमान में चल रहे संसद के शीतकालीन सत्र के हंगामेदार होने के आसार हैं. इसकी वजह है कि विपक्ष हारता जा रहा है और भाजपा लगातार जीत रही है.

आक्रामक विपक्ष विभाजित है. बीते चालीस साल से संसद के कामकाज को करीब से देखने के नाते मैं अपने अनुभवों को एक पंक्ति में व्यक्त कर सकता हूं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार और सोनिया गांधी की अगुवाई वाले विपक्ष के बीच कोई संवाद नहीं है. पहले लेन-देन हुआ करता था.

जब विपक्ष को लगता था कि उसकी बातें सुनी जा रही है, तो वह दूसरे विषय की ओर चुपचाप बढ़ जाने की रणनीति अपनाता था, पर अब वह दृश्य नहीं है. संसदीय बहसों में झूठ की भरमार है. बदले की राजनीति और व्यक्तिगत द्वेष से माहौल भरा है कि कैसे एक चाय बेचनेवाला एक उच्च पद पर है और देश को आजाद करानेवाली 135 साल पुरानी पार्टी के नेताओं के सामने बैठा हुआ है.

दूसरा अहम प्रकरण है कि ममता बनर्जी की पार्टी तृणमूल कांग्रेस ने मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस द्वारा बुलायी गयी सर्वदलीय बैठक का अचानक बहिष्कार कर दिया है. दूसरी ओर, त्रिपुरा के स्थानीय निकायों की बड़ी जीत के बाद भाजपा उत्साह के चरम पर है. सरकार को कृषि कानूनों पर बहुत कुछ स्पष्टीकरण देना है, पर विपक्ष न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी दर्जा देने पर अड़ा हुआ है. रस्साकशी यहीं खत्म नहीं होती.

अगर दबाव बढ़ता है, तो मोदी सरकार को अपने गृह राज्य मंत्री अजय मिश्रा को हटाना पड़ सकता है. कड़ी प्रतिस्पर्धा के बावजूद दोनों पक्षों को राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए. शीतकालीन सत्र पर विपक्ष के भीतर के समीकरणों का भी असर पड़ेगा. इसका मतलब है कि सदन में दो मुख्य विपक्षी गुटों का सरकार के साथ सहयोग करने या आपस में भी सहकार करने के फायदे सीमित हैं.

ऐसे में संभव है कि सदन में गहन राजनीतिक खींचतान दिखेगी, लेकिन इन सबसे मौजूदा नीतिगत और विधायिका संबंधी प्राथमिकताओं से ध्यान नहीं हटना चाहिए. इस सत्र में 26 महत्वपूर्ण विधेयक हैं, जिन्हें कानून बनाया जाना है. संसदीय कार्य मंत्री प्रह्लाद जोशी के माध्यम से सरकार विपक्ष के संपर्क में है, लेकिन कांग्रेस जोर दे रही है कि संसद में पेश विधेयकों को पारित करने के संबंध में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सोनिया गांधी को आमंत्रित करें. यह कैसे हो सकता है? प्रधानमंत्री मोदी को हर तरह से भला-बुरा कहा गया है और मोदी ने भी माता, बेटे और बेटी के विरुद्ध खूब बोला है.

कृषि कानूनों की वापसी का विधेयक तो पारित हो गया है. इसके बाद क्रिप्टोकरेंसी और आधिकारिक डिजिटल मुद्रा के नियमन से संबंधित विधेयक महत्वपूर्ण है. इसे पारित नहीं किया गया, तो देश का युवा अपने भविष्य की बचत के डिजिटल लूट के जाल में फंस जायेंगे. फिर भारत को एक और वित्तीय संकट का सामना करना पड़ेगा. कोरोना महामारी ने समाज को पंगु बना दिया है.

क्रिप्टोकरेंसी अर्थव्यवस्था को चौपट कर देगी. रिजर्व बैंक द्वारा आधिकारिक डिजिटल मुद्रा बनाने की प्रक्रिया तय करनेवाले इस विधेयक में सभी निजी क्रिप्टोकरेंसी पर पाबंदी लगाने का प्रावधान भी है, पर इसमें कुछ छूट भी दी गयी है, ताकि क्रिप्टोकरेंसी की बुनियादी तकनीक और उसके इस्तेमाल को बढ़ावा दिया जा सके. इस सत्र में पेंशन कोष के नियमन एवं विकास में संशोधन करने का विधेयक भी लाया जा रहा है.

यह संशोधन 2019 में बजट में की गयी उस घोषणा को पूरा करने के लिए लाया जा रहा है, जिसमें नेशनल पेंशन सिस्टम ट्रस्ट को पेंशन फंड के नियामक और विकास प्राधिकरण से अलग करने की बात कही गयी थी. साल 2020 के बजट में इस प्राधिकरण को मजबूत बनाने तथा सार्वभौमिक पेंशन कवरेज सुनिश्चित करने की घोषणा को भी इस विधेयक द्वारा पूरा किया जा रहा है.

विशेष विधेयकों में बैंकिंग कानूनों के संशोधन का प्रस्ताव भी शामिल है. इसके तहत 1970 और 1980 के बैंकिंग कंपनी कानूनों को संशोधित करने के साथ 1949 के बैंकिंग नियमन कानून में भी बदलाव प्रस्तावित है. इस साल बजट में घोषित दो सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के निजीकरण की घोषणा को भी इसके द्वारा पूरा किया जायेगा. भारतीय सामुद्रिक मत्स्ययन विधेयक भी बहुत अहम है.

इसमें सामुद्रिक क्षेत्र, विशिष्ट आर्थिक क्षेत्रों में मत्स्ययन संसाधनों का सतत विकास, छोटे मछुआरों की आजीविका सुरक्षित करना आदि अनेक मसलों को समाहित किया गया है. ये कुछ खास विधेयक हैं, लेकिन सबसे महत्वपूर्ण है राष्ट्रीय सुरक्षा. चीन की आक्रामकता, अफगानिस्तान से जुड़े मसले, जलवायु परिवर्तन तथा पाकिस्तान और श्रीलंका के बीच बढ़ती नजदीकी कूटनीतिक असफलताएं हैं. विपक्ष को इन राष्ट्रीय सुरक्षा के मसलों के बारे में नहीं सोचना चाहिए? उन्हें चीन और भारत विरोधी देशों के समर्थक के रूप में क्यों देखा जाना चाहिए?

मोदी सरकार ने कश्मीर से कन्याकुमारी तक की क्षेत्रीय पार्टियों को भ्रष्ट पारिवारिक दल कह कर उकसा दिया है. इस बात ने द्रमुक और टीआरएस जैसे बड़े दक्षिणी दलों को भी नाराज कर दिया है, जो केंद्र सरकार के साथ सहयोग के इच्छुक थे. द्रमुक ने नीट परीक्षा को हटाने का वादा किया था, पर अब वह इस पर कानूनी उलझन में फंसी हुई है. दिल्ली की राजनीति का अनुमान लगाने में द्रमुक बुरी तरह असफल रही है. इस पार्टी ने राहुल गांधी को प्रधानमंत्री उम्मीदवार के रूप में पेश किया था, मगर 2019 के नतीजों के बाद उसे निराश होना पड़ा.

अब द्रमुक असमंजस में है कि वह ममता बनर्जी के विपक्षी खेमे में जाए, जिसका नेतृत्व प्रशांत किशोर कर रहे हैं या फिर कांग्रेस के साथ ही बना रहे, जो दिन-ब-दिन खत्म होती जा रही है. यह कुछ ठोस तथ्य हैं. जो भी हो, भाजपा और विपक्ष अपनी आन पर टिके रहेंगे और मतदाता परेशान होंगे. भारत रत्न अटल बिहारी वाजपेयी और प्रणब मुखर्जी कहते रहते थे कि संसद बहस के लिए है, बाधा के लिए नहीं.

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