पवन के वर्मा, लेखक एवं पूर्व प्रशासक
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हाल में एक सुबह, जब आकाश में बादल छाये हुए थे और नम ठंडी हवा चल रही थी, एक कप गर्म चाय के साथ अपने छत के बगीचे में बैठकर बेहद प्रतिभाशाली गायक फतेह अली खान का गाया राग ‘मेघ मल्हार’ सुना. आकाश में बादल इतने घने थे मानो वे अब बरसें, तब बरसें. ऐसे सुहावने मौसम में मैंने कुछ देर चाय की चुस्की लेते हुए पंडित निखिल बनर्जी का जादुई ‘सूरदासी मल्हार’ भी सुना. शास्त्रीय संगीत की हमारी परंपरा हजारों वर्ष पुरानी उस अद्भुत सांस्कृतिक सभ्यता की विरासत की ओर खुली एक खिड़की है, जिसके हम वारिस हैं. दिन के विभिन्न पहरों और ऋतुओं के लिए भिन्न-भिन्न राग हैं. ‘मल्हार’ वर्षा का राग है. गायक जब एक सुर से दूसरे पर जाते हैं, तो हम आंखें बंद कर वास्तव में बादलों के एक से दूसरी जगह जाते हुए, मनभावन बारिश के शुरू होते, राहत पाती मिट्टी की सोंधी महक, बारिश की बौछार के कर्णप्रिय संगीत से पहले की शांति, सब महसूस कर सकते हैं.
भारत की सांस्कृतिक विरासत, चाहे वह किसी भी क्षेत्र की हों- संगीत, नृत्य, मूर्तिकला, काव्य, सौदर्यशास्त्र, साहित्य- हमारी अमूल्य धरोहर हैं. कलाकार पीढ़ियों से संजोये गये ज्ञान तथा सीखने और अभ्यास करने की साधना या भक्ति का प्रतिनिधित्व करते हैं. परंतु, कलाकारों की सहायता और पोषण के लिए जिम्मेदार सरकारों ने हमेशा ही संस्कृति को गौण रखा है. संस्कृति मंत्रालय और अन्य सरकारी संगठनों में वैसे नौकरशाहों की भरमार है, जो कला के बारे में बहुत कम जानते हैं. दुर्भाग्यपूर्ण है कि कलाकार इनके लिए महज एक ‘वस्तु’ हैं. इन्हें दी जानेवाली सहायता अहसान है, न कि सांस्कृतिक विरासत को संभालनेवालों की सेवा.
आश्चर्यजनक नहीं है कि हम जैसे कुछ लोग विचार कर रहे हैं कि कोराेना वायरस जैसे संकट ने हमारे कलाकारों काे कैसे प्रभावित किया है. वे प्रस्तुति नहीं दे सकते, क्योंकि लंबे समय से सभागार खुले ही नहीं हैं. वे शिक्षा भी नहीं दे सकते, क्योंकि सांस्कृतिक विद्यालय बंद हैं. बहुत कम ऐसे कला संरक्षक बचे हैं, जो संगोष्ठी, गैलरी, कला समारोहों में प्रस्तुति दे पायेंगे, क्योंकि छोटे समारोह भी जोखिम भरे हैं. इन संकट का उनकी आय पर काफी असर पड़ा है. आज हमारे अधिकांश कलाकार मुश्किल हालात में जी रहे हैं, विशेषकर तालवादक, सारंगी उस्ताद और वे जो गायकों और वाद्ययंत्र को बजानेवाले कलाकारों के साथ प्रस्तुति देकर थोड़े-बहुत पैसे कमा पाते हैं. फिल्म उद्योग के सहायक कलाकारों की भी ऐसी ही दुर्दशा है.
कुछ शास्त्रीय कलाकारों ने अपनी प्रस्तुति देने के लिए सोशल मीडिया का सहारा लिया है. वहीं अनेक ने जूम जैसे प्लेटफाॅर्म पर प्रदर्शन का आयोजन किया है. कुछ कला प्रेमी वेब पर कलाकारों को मंच प्रदान कर रहे हैं. उन्हीं में से एक हैं मेरे बहुत अच्छे दोस्त डाॅ अजीत प्रधान. वे पटना के एक प्रमुख हृदय सर्जन हैं. लेकिन उनका जुनून शास्त्रीय संगीत है. वे और उनकी पत्नी अन्विता ‘नवरस स्कूल ऑफ परफाॅर्मिंग आर्ट्स’ नामक संस्था चलाते हैं. नवरस प्रति सप्ताह एक कलाकार की ‘आभासी’ प्रस्तुति आयोजित कर संकट के इस समय में कला को जीवित रख रहा है और कलाकारों को कुछ आय भी प्रदान कर रहा है.
लेकिन इस तरह के उदाहरण अपवाद हैं और इससे मुसीबतों में घिरे कलाकार समुदाय के लिए व्यापक राहत उपलब्ध कराना कठिन है. कोई नहीं जानता की स्थिति कब सामान्य होगी. मेरे दोस्त शोभा और दीपक सिंह, जो श्री राम भारतीय कला केंद्र का संचालन करते हैं, वे इस बात से बहुत ज्यादा चिंतित हैं कि न जाने केंद्र में फिर कब से कक्षाएं चलनी शुरू होंगी. वे कमानी सभागार का संचालन भी करते हैं, जो नयी दिल्ली का एक सांस्कृतिक गढ़ है. वह भी महीनों से बंद है.
मुझे पुस्तकों की दुकानों की भी चिंता है. जिन शहरों में लाॅकडाउन में छूट मिली है, उनमें दुकानें खुल गयी हैं, लेकिन वहां भी बहुत कम ग्राहक आ रहे हैं. खान मार्केट स्थित बाहरी संस, जो दिनभर पुस्तक प्रेमियों से भरा रहता था, वहां भी ग्राहक बहुत कम हुए हैं. इस दुकान के मालिक अनुज और रजनी बाहरी तथा यहां आनेवाले पुस्तकप्रेमी सभी आवश्यक सावधानी बरत रहे हैं. हाल ही में मैं अपनी नवीनतम पुस्तक ‘द ग्रेटेस्ट ओड टु लाॅर्ड राम’ की कुछ प्रतियों पर हस्ताक्षर करने वहां गया था. दूसरी दुकानों, जैसे मिडलैंड, पर भी इस सुरक्षा के नियमों का पालन हो रहा है. इन दुकानों पर जाना सुरक्षित है. जो पुस्तक प्रेमी हैं, उन्हें इस समय इन दुकानों के साथ खड़े होने की जरूरत है.
संवेदनशील बुद्धिजीवी और शीर्ष राजनेता स्वर्गीय राम निवास मिर्धा ने एक बार मुझसे कहा था कि भारत कभी भी आज की तरह नहीं बना रहेगा, यदि उसके पास कला से प्रेम करनेवाले अधिक रसिक व सौंदर्यशास्त्री नहीं रहे तो. उन्होंने कहा था कि यह संकट आर्थिकी में गिरावट से भी कहीं अधिक बुरा होगा. इसका अर्थ यह नहीं लगाया जाना चाहिए कि अर्थव्यवस्था कोई महत्व नहीं रखती है. अपनी सरलता में वे जो कहना चाह रहे थे, वह कला के प्रति उनका आदर और संस्कृति को लेकर उनका ज्ञान था, जो भारत जैसे देश के लिए बहुत महत्वपूर्ण है.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)