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देश को महंगी पड़ेंगी मुफ्त की स्कीमें

यदि इसी प्रकार चलता रहा, तो हमारे देश को निवेश मिलने में तो कठिनाई होगी ही, हमारी कंपनियों और सरकार के द्वारा जो विदेशों से ऋण लिया जाता है, उस पर भी ज्यादा ब्याज चुकाना पड़ेगा.

चुनाव लोकतंत्र के उत्सव के रूप में जाने जाते हैं. आजादी के बाद चुनाव की सतत प्रक्रिया के चलते भारत दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश के रूप में उभरा है. चुनाव समय है, राजनीतिक दलों द्वारा अपने चुनाव घोषणापत्रों के माध्यम से मतदाताओं को अपनी नीतियों और प्रस्तावित कार्यक्रमों से अवगत कराने का. हमेशा से सभी दल मतदाताओं को वादों से लुभाने का प्रयत्न करते रहे हैं, लेकिन पिछले लगभग डेढ़ दशक में चुनावी वादों का प्रकार बदला है. इनमें नीतियों और कार्यक्रमों के बजाय नकद राशि हस्तांतरण और मुफ्त की स्कीमों की घोषणा प्रमुखता से होने लगी हैं. महिलाओं, किसानों, विद्यार्थियों और कई बार अल्पसंख्यकों व अन्य कमजोर वर्गों को नकद हस्तांतरण, सभी को मुफ्त बिजली, पानी, यात्रा समेत कई मुफ्तखोरी की स्कीमों की घोषणा अब आम बात हो गयी है. मध्य प्रदेश में कांग्रेस ने किसानों के कर्ज माफ करने के अलावा मुफ्त बिजली, गैस सिलेंडर की सब्सिडी, महिलाओं को 1,500 रुपये प्रतिमाह, युवाओं को 3,000 रुपये बेरोजगारी भत्ते आदि की घोषणा की है. ऐसी घोषणाएं अन्य दलों द्वारा भी की गयी हैं.

ऐसे में विचार करने का विषय है कि क्या यह स्वस्थ परंपरा है. क्या हमारी सरकारें इन मुफ्त स्कीमों के लिए धन जुटा पायेंगी? कहीं राज्य सरकारों पर कर्ज का बोझ तो नहीं बढ़ जायेगा? इन योजनाओं का सरकारी योजनाओं, सामाजिक क्षेत्रों पर खर्च और उनके स्तर पर क्या प्रभाव पड़ेगा? कई देशों में मुफ्तखोरी के कारण सरकारी कर्ज के बढ़ने और कई देशों के तो उसके कारण बर्बाद होने के भी उदाहरण हैं. वेनेजुएला और श्रीलंका के उदाहरणों से पता चलता है कि उन जैसे धनी देश भी मुफ्तखोरी की गलत आर्थिक नीतियों के चलते गरीब देशों से भी बदतर हालत में पहुंच सकते हैं, तो पाकिस्तान सरीखे विकासशील देशों की बिसात क्या है!

वर्तमान में कल्याणकारी राज्य के नाम पर मुफ्त की स्कीमों के कारण भारी कर्ज में डूबे कई अमीर देशों की भी लंबी सूची है, जो अब इन स्कीमों को चलाने में सक्षम नहीं हैं. मुफ्तखोरी की यह बीमारी अब भारत के कई राज्यों में फैलती जा रही है. इस माह के चुनावों में तो दलों ने मुफ्तखोरी की योजनाओं की घोषणाओं की झड़ी लगा दी है. कुछ समय पहले भारतीय रिजर्व बैंक और भारत के महालेखाकार एवं अंकेक्षक (कैग) ने अपनी-अपनी रिपोर्टों में मुफ्तखोरी के कारण राज्यों पर बढ़ते कर्ज के बारे में आंकड़े प्रकाशित किये हैं और चिंता जतायी है कि जहां मुफ्तखोरी की स्कीमें ज्यादा चल रही हैं, वहीं कर्ज भी बढ़ता जा रहा है.

गौरतलब है कि एफआरबीएम अधिनियम के अनुसार किसी भी राज्य में ऋण-जीएसडीपी (राज्य का सकल घरेलू उत्पाद) का लक्षित अनुपात 20 प्रतिशत से अधिक नहीं होना चाहिए. लेकिन कैग का कहना है कि अधिकतर राज्यों में यह अनुपात कहीं ज्यादा है. पंजाब में यह 48.98, राजस्थान में 42.37, पश्चिम बंगाल में 37.39, बिहार में 36.73, आंध्र प्रदेश में 35.30, मध्य प्रदेश में 31.53, तेलंगाना में 27.80, तमिलनाडु में 27.27 और छत्तीसगढ़ में 26.47 प्रतिशत तक पहुंच गया है. यदि राज्य के सरकारी उद्यमों और राज्य सरकार द्वारा दी गयी गारंटियों को भी शामिल कर लें, तो 2020-21 तक राजस्थान में ऋण-जीएसडीपी अनुपात 54.94 और पंजाब में 58.21 प्रतिशत तक पहुंच चुका था.

आंध्र प्रदेश में भी यह 53.77 प्रतिशत आकलित किया गया है. तेलंगाना में यह 47.89 और मध्यप्रदेश में 47.13 प्रतिशत तक पहुंच चुका है. पश्चिम बंगाल और बिहार में भी यह क्रमशः 40.35 और 40.51 प्रतिशत तथा तमिलनाडु में यह 39.94 प्रतिशत है. कैग का यह भी कहना है कि राज्यों का कर्ज लगातार बढ़ता जा रहा है. यह राज्यों के लिए ही नहीं, देश के लिए भी चिंता का विषय है. पंजाब में कुल कर राजस्व का 45.5 प्रतिशत मुफ्त की योजनाओं पर खर्च होता है और आंध्र प्रदेश में 30.3 प्रतिशत. जीएसडीपी की बात करें, तो पंजाब में जीएसडीपी का 2.7 प्रतिशत मुफ्त की योजनाओं में खर्च होता है, वहीं आंध्र प्रदेश में 2.1 प्रतिशत. मध्य प्रदेश में सब्सिडी पर खर्च कर राजस्व का 28.8, तो झारखंड में 26.7 प्रतिशत है.

कैग के आकलन के अनुसार, उन राज्यों पर कर्ज ज्यादा है, जहां मुफ्त की स्कीमों पर ज्यादा खर्च किया जा रहा है. इसमें सबसे ऊपर पंजाब और आंध्र प्रदेश हैं. आंध्र प्रदेश के अलावा दक्षिण में तमिलनाडु है, जो जरूरत से ज्यादा मुफ्त की योजनाओं पर खर्च करता है. जब कोई प्रांत मुफ्त की स्कीमों पर अपने कर राजस्व का इतना बड़ा हिस्सा खर्च कर देता है, तो स्वाभाविक रूप से आवश्यक सेवाओं और इंफ्रास्ट्रक्चर पर उसका पूंजीगत खर्च कम हो जाता है. राज्य सरकार पर कर्ज बढ़ता चला जाता है, जिससे भविष्य में भी सामाजिक सेवाओं, जैसे शिक्षा और स्वास्थ्य के साथ-साथ यातायात और अन्य आवश्यक सेवाएं प्रभावित होती हैं. किसी भी राज्य के विकास के लिए जरूरी है कि उसमें निवेश बढ़े. इंफ्रास्ट्रक्चर के अभाव में निवेश प्रभावित होता है और उसके कारण राज्य का विकास भी. यह जरूरी है कि राज्यों द्वारा दी जा रही मुफ्त की स्कीमों पर अंकुश लगाकर देश के विकास को गति दी जाए.

भारत राज्यों का एक संघ है, इसलिए केंद्र और राज्य सरकार दोनों के ऋण मिलाकर संपूर्ण सरकार के ऋण माने जाते हैं. एक ओर जहां केंद्र सरकार कोरोना काल में अपने ऋण, जो जीडीपी के 61 प्रतिशत तक पहुंच गया था, को 56 प्रतिशत तक घटाने में सफल हुई है, वहीं विभिन्न राज्य सरकारों के ऋण जीएसडीपी के अनुपात में लगातार बढ़ते जा रहे हैं. ऐसे में संपूर्ण सरकार पर कर्ज बढ़ने के कारण देश की आर्थिक रेटिंग घटती जा रही है. यदि इसी प्रकार चलता रहा, तो हमारे देश को निवेश मिलने में तो कठिनाई होगी ही, हमारी कंपनियों और सरकार के द्वारा जो विदेशों से ऋण लिया जाता है, उस पर भी ज्यादा ब्याज चुकाना पड़ेगा. यानी बढ़ते कर्ज न केवल राजकोषीय असंतुलन पैदा कर रहे हैं, बल्कि राज्य सरकारों की कल्याणकारी योजनाओं और सेवाओं को चलाने की क्षमता को भी प्रभावित कर रहे हैं तथा देश और उद्योग के विकास के लिए भी मार्ग अवरुद्ध कर रहे हैं. दल अपने स्वार्थों के चलते देश को मुश्किल में न डाल सकें, इसके लिए कदम उठाने की जरूरत है. राजनीतिक कारणों से विधायिका और सरकारी तंत्र शायद इस काम में सफल न हो सके, पर लोकतंत्र के अन्य स्तंभों, जैसे न्यायपालिका और मीडिया, को आगे आना होगा.

(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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