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बुजुर्गों की समस्याओं पर भी हो ध्यान

एक प्रावधान है कि हर महीने बुजुर्ग व्यक्ति को एक-डेढ़ हजार रुपये मिलेंगे. इस मामूली रकम को पाने के लिए भी उम्रदराज लोगों को स्थानीय अधिकारियों के चक्कर काटने पड़ते हैं, जो उन्हें अपमान से प्रताड़ित करते हैं या रिश्वत मांगते हैं. पेंशन के लिए शायद ही किसी राज्य ने खाते में सीधे हस्तांतरण की व्यवस्था की है.

कहा जाता है कि पुरानी चीज सोने की तरह कीमती होती है, पर इस पर अमल नहीं होता. संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में 2022 में बुजुर्गों की संख्या 14.90 करोड़ थी, जिसके 2050 तक 34.7 करोड़ होने का अनुमान है. यह बढ़ोतरी सरकार के लिए एक गंभीर आर्थिक और स्वास्थ्य संबंधी चुनौती है. अगर आयु एक संख्या भर है, तो यह एक गलत संख्या है. पिछले सप्ताह एक व्हाट्सएप चर्चा पर ध्यान गया, जो भारत में बुजुर्गों की खराब दशा और सरकार की अनदेखी पर जया बच्चन के संसद में भाषण के बारे में थी. सच को छुपाया नहीं जा सकता है. सोशल मीडिया पर तब शोर मच गया, जब क्रिकेट खिलाड़ी रवींद्र जडेजा के पिता ने अपनी बहू भाजपा विधायक रिवाबा पर आरोप लगाया कि उनके चलते इस आयु में उन्हें अपने हाल पर छोड़ दिया गया है. पहले उद्योगपति गौतम सिंघानिया कारोबार पर नियंत्रण लेने के बाद अपने 85 वर्षीय पिता विजयपत सिंघानिया को आलीशान घर से बाहर निकालने के कारण चर्चा में थे. विजयपत सिंघानिया 83 सौ करोड़ के रेमंड साम्राज्य के संस्थापक है, जो अपनी बचत से मुंबई में एक छोटे से फ्लैट में रहने के लिए मजबूर हैं. एक ओर प्रधानमंत्री ‘सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास’ के मिशन पर चल रहे हैं, तो दूसरी ओर अधिकारी, कॉर्पोरेट प्रमुख और अन्य लोग समावेश के ऊपर बहिष्करण का वातावरण बनाने में लगे हैं. बुजुर्गों को स्वास्थ्य बीमा, बैंक कर्ज और वीजा नहीं दिया जा रहा है. वे 70 साल की आयु हो जाने पर ड्राइविंग लाइसेंस भी नहीं पा सकते. अब उन्हें अपनी 10 साल पुरानी डीजल और 15 साल पुरानी पेट्रोल कार भी कबाड़ में देना पड़ रहा है. उनके पास पेंशन के अलावा कोई आमदनी नहीं है. उन्हें लचर सार्वजनिक यातायात तंत्र पर निर्भर रहना पड़ रहा है.


पश्चिम में बुजुर्गों को अनुत्पादक माना जाता है. भारत में पश्चिमी जीवन शैली के बढ़ते प्रभाव के कारण संयुक्त परिवार की व्यवस्था टूटती जा रही है. वृद्ध जन, जो सेवानिवृत्ति के बाद बेरोजगार हो जाते हैं, को उनके बच्चे उसी घर से निकाल देते हैं, जो उन्होंने बनवाया था. परिवार चलाने और संतान को अच्छी शिक्षा देने के बावजूद कुछ बुजुर्गों को एक बिस्तर तक नहीं दिया जाता या बीमार होने पर अस्पताल नहीं ले जाया जाता. करोड़ों बुजुर्गों को सामाजिक एवं आर्थिक सुरक्षा से वंचित रखा गया है क्योंकि लालची वित्तीय एवं कानूनी व्यवस्था उन्हें अनुभव एवं बुद्धि से युक्त परिसंपत्ति समझने के बजाय बोझ मानती है. हर दस में से एक भारतीय को पेंशन एवं बुजुर्ग लाभों जैसी सुविधाओं एवं छूटों से वंचित रखा जाता है. अजीब बात है कि किसी सरकारी निकाय ने कल्याण एवं मौद्रिक दायरे में बुजुर्गों को रखने का कोई प्रयास नहीं किया है. राज्य स्तर पर पेंशन योजनाएं हैं. एक प्रावधान है कि हर महीने बुजुर्ग व्यक्ति को एक-डेढ़ हजार रुपये मिलेंगे. इस मामूली रकम को पाने के लिए भी उम्रदराज लोगों को स्थानीय अधिकारियों के चक्कर काटने पड़ते हैं, जो उन्हें अपमान से प्रताड़ित करते हैं या रिश्वत मांगते हैं. पेंशन के लिए शायद ही किसी राज्य ने खाते में सीधे हस्तांतरण की व्यवस्था की है. निजी क्षेत्र के कर्मियों के लिए शायद ही सेवानिवृत्ति के बाद की कोई योजना है. वैसे कारोबारियों के लिए भी इंतजाम नहीं हैं, जो 60 साल की उम्र के बाद कारोबार नहीं कर पाते हैं. निजी क्षेत्र में खूब मुनाफा आ रहा है, पर कामगारों के लिए कुछ ही पेंशन योजनाएं हैं, जो अपने जीवन का बेहतरीन हिस्सा कंपनियों को दे देते हैं.


विडंबना ही है कि जब सेवानिवृत्त लोगों के वित्तीय सुरक्षा का मामला आता है, तो तंत्र शासन, सरकार और सार्वजनिक क्षेत्र के कर्मियों की पक्षधरता करता है. नेताओं और सरकारों ने बुजुर्गों को आराम और सुरक्षा देने का वादा किया है. सांसदों और विधायकों को जीवनभर पेंशन एवं अन्य लाभ मिलते हैं. यही स्थिति अधिकारियों के साथ है. एक वरिष्ठ अधिकारी का औसत पेंशन औसत प्रति व्यक्ति आय से दस गुना अधिक है. बैंक भी बुजुर्गों के साथ भेदभाव करते हैं. वे सावधि जमा पर तो अतिरिक्त ब्याज देते हैं, पर स्टार्टअप के लिए बुजुर्गों को कर्ज नहीं देते. सावधि जमा के ब्याज पर उनसे आयकर लेना एक क्रूरता है क्योंकि वे अपनी आय पर पहले ही कर दे चुके होते हैं. देश की स्वास्थ्य सेवा पर कॉरपोरेट नियंत्रण बढ़ने के साथ-साथ गरीब और मध्यवर्गीय बुजुर्गों के लिए मेडिकल मदद पहुंच से दूर होती जा रही है. निजी बीमा कंपनियां 70 साल से अधिक आयु के लोगों को बीमा नहीं देती हैं या बहुत अधिक प्रीमियम लेती हैं. दूसरी ओर, सरकारी अधिकारियों और नेताओं को जीवनभर मुफ्त मेडिकल सुविधा मिलती है. एक आकलन के अनुसार, 90 फीसदी से अधिक बुजुर्ग और बीमार लोग अस्पताल पहुंचने से पहले दम तोड़ देते हैं. अकेले रह रहे बुजुर्ग अक्सर अकेले में ही मर जाते हैं.
कुछ दानी संस्थाओं ने वृद्धाश्रम बनाये हैं. यह अब कॉरपोरेट सेक्टर के लिए कमाई का एक और जरिया बन गया है, जो महंगे और आलीशान वृद्धाश्रम बना रहा है. इससे भी मध्य और निम्न मध्य वर्ग के बुजुर्गों को वंचित रखा जा रहा है. संवेदनहीन संतानों से मदद के अभाव में बुजुर्ग अपराधियों के लिए भी आसान शिकार बन जाते हैं. वृद्ध नागरिक अधर में स्थायी रूप से लटके हुए हैं. ऐसी उपेक्षा का कारण यह हो सकता है कि वरिष्ठ नागरिक अभी वोट बैंक नहीं बने हैं. नेता इस सच से अनभिज्ञ हैं कि 60 साल से अधिक आयु के हर पांच भारतीयों में एक गरीबी रेखा से नीचे है. एक आकलन के अनुसार, 2050 में हर तीन में से एक भारतीय बुजुर्ग होगा और उनमें से बहुत बड़ा हिस्सा गरीब होगा. अगर जल्दी एक ठोस और समयबद्ध योजना पर काम नहीं शुरू होता है, तो संसाधनहीन, असुरक्षित और रोगी बुजुर्ग विकसित एवं सुरक्षित भारत की छवि को नुकसान पहुंचायेंगे.
जैसे केवल धनी और प्रसिद्ध लोगों को राष्ट्रीय इंफ्रास्ट्रक्चर और सामाजिक सुरक्षा का अधिकार नहीं दिया जा सकता, वैसे ही भारत के बुजुर्गों को उनके वैध हिस्से से वंचित नहीं किया जा सकता है. अयोध्या के इस दौर में यह याद किया जाना चाहिए कि भगवान राम अपने माता-पिता की इच्छा से वनवास गये थे. आज भारत के माताओं एवं पिताओं को ही निर्वासित कर दिया गया है. भारत संतानोचित कर्तव्य की अपनी विरासत एवं परंपरा का त्याग नहीं कर सकता है, जो हिंदू आस्था का एक मुख्य आधार है.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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