Bangladesh Violence : बांग्लादेश में प्रधानमंत्री शेख हसीना का इस्तीफा और देश छोड़ देना अचानक घटी एक अचरज भरी घटना है, जिसकी शुरुआत आरक्षण विरोध से हुई थी. इसी साल उन्होंने पांचवीं बार चुनाव जीता था. वे 2009 से ही सत्ता में थीं. बांग्लादेश के गठन के बाद वे सबसे अधिक समय तक सत्ता में रहने वाली नेता थीं. साल 2018 में तो उनकी पार्टी अवामी लीग ने संसद की 300 में से 288 सीटों पर जीत हासिल की थी. वे देश के राष्ट्रपिता माने जाने वाले शेख मुजीबुर्रहमान की बेटी हैं, जिन्होंने 1949 में अवामी लीग की स्थापना की थी.
वर्ष 2010 से बांग्लादेश ने असाधारण आर्थिक विकास किया है और औसत सालाना वृद्धि दर लगभग छह से आठ प्रतिशत रही है. कोरोना काल में भी यह दर 3.5 प्रतिशत रही थी, जो 2021 में 6.9 प्रतिशत हो गयी. डॉलर के मूल्य में कुछ समय के लिए देश की प्रति व्यक्ति आय भारत से भी अधिक हो गयी थी. वर्ष 2010 से गरीबी रेखा 31 प्रतिशत से घटकर 20 प्रतिशत हो गयी तथा 2026 तक बांग्लादेश विश्व बैंक की ‘निम्नतम विकसित देश’ की श्रेणी से ऊपर हो जायेगा. रेडीमेड कपड़ों के उत्पादन में उसे बहुत बड़ी कामयाबी मिली है और वह भारत से आगे निकलते हुए दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा निर्यातक बन गया है. बांग्लादेश के कुल निर्यात में इस क्षेत्र की हिस्सेदारी 80 प्रतिशत है, सकल घरेलू उत्पादन में योगदान 11 प्रतिशत है और इसमें 25 लाख महिलाएं कार्यरत हैं. इस क्षेत्र में अच्छा-खासा प्रत्यक्ष विदेशी निवेश भी आता है.
Bangladesh Violence : लेकिन यह निरंतर आर्थिक विकास अब देशव्यापी दंगों के कारण बाधित होने की कगार पर है. साल 2022 से अर्थव्यवस्था उच्च मुद्रास्फीति (8.5 प्रतिशत से अधिक), विशेषकर खाद्य एवं वस्तुओं में, की चपेट में है. इसकी मुख्य वजह भू-राजनीति और यूक्रेन में लड़ाई है. ऐसे में व्यापार घाटा बढ़ गया है, जिसके कारण विदेशी मुद्रा भंडार पर दबाव है और कर्ज चुकाने में परेशानी हो रही है. राहत कर्ज के लिए देश अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष का दरवाजा खटखटा रहा है. वित्तीय क्षेत्र बहुत जोखिम में है. आय और संपत्ति की विषमता बहुत बढ़ चुकी है. इस साल हुए चुनाव का मुख्य विपक्षी दल ने बहिष्कार किया था और मतदान प्रतिशत लगभग 40 प्रतिशत रहा था. इससे शेख हसीना की जीत सवालों के घेरे में थी. अपने पड़ोसी देश में बड़े पैमाने पर हो रहे दंगों और सामाजिक व्यवस्था बिगड़ते जाने को देखते हुए इस आर्थिक पृष्ठभूमि को ध्यान में रखना महत्वपूर्ण है.
साल 1971 के स्वाधीनता संग्राम के सेनानियों के परिजनों के लिए आरक्षण के प्रावधान को फिर से लागू करना विरोध प्रदर्शनों का तात्कालिक कारण बना. यह आरक्षण 1972 में लागू हुआ था और यह 30 प्रतिशत था. बाद में यह बढ़ता हुआ लगभग 56 प्रतिशत हो गया. लेकिन इसे लेकर असंतोष भी बढ़ता गया. इसे प्रतिभाशाली उम्मीदवारों के हितों के लिए अवरोध के रूप में देखा गया. साल 2018 में बड़े विरोध के कारण इस आरक्षण व्यवस्था को हटा लिया गया. लेकिन इसके विरुद्ध उच्च न्यायालय में याचिका डाल दी गयी, जिस पर जून में आरक्षण को बहाल करने का फैसला आया. इसके बाद व्यापक विरोधों का राष्ट्रव्यापी आंदोलन छिड़ गया.
इस बार मुद्रास्फीति और उच्च बेरोजगारी के मुद्दे भी आरक्षण विरोध के साथ जुड़ गये. प्रदर्शनों के हिंसक होते जाने पर संयुक्त राष्ट्र ने भी चिंता जतायी थी. अब तक इन आंदोलनों में तीन सौ से अधिक लोगों की जानें जा चुकी हैं. सरकार ने कठोर दमन, कर्फ्यू, लोगों के जुटान पर पाबंदी और इंटरनेट बंद कर प्रदर्शनों को नियंत्रित करने का प्रयास किया. इसी बीच सर्वोच्च न्यायालय ने जल्दबाजी में उच्च न्यायालय के निर्णय को पलटने का फैसला दे दिया. हसीना सरकार ने जमात-ए-इस्लामी को प्रतिबंधित भी किया, जिस पर हिंसा भड़काने और आतंकी गतिविधियां करने के आरोप हैं. ऐसे में आरक्षण विरोधी आंदोलन सरकार विरोधी प्रदर्शन बन गया तथा बिगड़ती स्थिति का लाभ राजनीतिक विरोधियों ने उठाया. पिछले साल भी प्रधानमंत्री और उनकी पार्टी के खिलाफ कथित भ्रष्टाचार को लेकर हिंसक प्रदर्शन हुए थे. बहरहाल, प्रदर्शनकारियों ने प्रधानमंत्री के इस्तीफे की मांग की और उन्होंने इस्तीफा देकर देश छोड़ दिया.
अव्यवस्था के गर्त में बांग्लादेश के जाने के कुछ सबक भी हैं. प्रदर्शनकारियों को लगा कि स्वतंत्रता सेनानियों के रिश्तेदारों के लिए आरक्षण से प्रतिभावान युवाओं को अवसर नहीं मिल रहे हैं. आज के संदर्भ में वे इसे अप्रासंगिक मानते हैं. आरक्षण के लिए प्रमाणपत्र बनाने में भी बड़े पैमाने पर धांधली होती थी. भारत में उन सामाजिक समूहों के लिए आरक्षण की व्यवस्था है, जो ऐतिहासिक रूप से वंचित रहे हैं. यहां भी फर्जी प्रमाणपत्र के मामले सामने आते रहते हैं. बांग्लादेश में 15 से 29 साल के ऐसे लगभग 40 प्रतिशत युवा हैं, जो रोजगार, शिक्षा या प्रशिक्षण से जुड़े हुए नहीं हैं. कोई 1.80 करोड़ युवा बेरोजगार हैं. सांख्यिकी ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार, 2023 में लगभग 3.70 करोड़ लोग कमोबेश खाद्य असुरक्षा का सामना कर रहे थे. सरकार ने एक ही साल में बिजली, उपयोगिता और गैस के दामों में तीन गुना बढ़ोतरी कर दी, जिससे लोगों की मुश्किलों और महंगाई के बोझ में वृद्धि हुई. सरकार में भ्रष्टाचार के आरोपों के साथ-साथ विषमता भी बढ़ रही थी. देश के 10 प्रतिशत सबसे धनी लोग राष्ट्रीय आय का 41 प्रतिशत हिस्सा पाते हैं, जबकि निचले 10 प्रतिशत के पास केवल 1.3 प्रतिशत ही पहुंच पाता है.
उच्च युवा बेरोजगारी, अनियंत्रित महंगाई, विदेशी मुद्रा घटने के कारण ईंधन मूल्य बढ़े. इसके साथ-साथ आर्थिक विषमता भी बढ़ रही थी. इस स्थिति में 2018 में रद्द हो चुके आरक्षण को बहाल करने का निर्णय एक चिंगारी साबित हुआ. इस्लामिक कट्टरता, अतिवादी विचारधारा आदि जैसे तत्व भी युवा असंतोष का लाभ उठाने लगे. बांग्लादेश एक उदाहरण है कि कैसे एक दशक से बेहतर प्रदर्शन करता, गरीबी घटाता, मानव विकास सूचकों में आगे आगे बढ़ता तथा सामाजिक पूंजी बनाता देश झटके में बिखर सकता है. पर शायद हम फिर से बांग्लादेश को उभरता हुआ देख सकते हैं, जैसी क्षमता उसने कोरोना काल के बाद प्रदर्शित की थी, वैसा फिर हो सकता है. बंगाली और मिली-जुली संस्कृति तथा लोकतांत्रिक संवेदना में गहरे रचे-बसे समाज का बड़ा हिस्सा अतिवादी ताकतों पर काबू पा सकता है. बांग्लादेश हमारा पड़ोसी देश है तथा उसकी स्थिरता और समृद्धि भारत के लिए भी हितकारी है.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)