दक्षिणी राज्यों, विशेषकर तमिलनाडु, में उत्तर-दक्षिण का विभाजन गहरा है. ऐसा क्यों है? क्या इससे राजनीति पर असर नहीं पड़ता है. भविष्य में मुख्यधारा की राष्ट्रीय पार्टियों का रुख क्या होगा, इसका पता कर्नाटक विधानसभा चुनाव से चलेगा. इससे यह भी पता चलेगा कि दक्षिण भारत भारतीय जनता पार्टी को स्वीकार करता है या क्षेत्रीयतावाद की ओर जाता है. दक्षिण के छह राज्यों की राजनीति पर आठ बड़ी जातियों का वर्चस्व है- वोक्कालिगा, लिंगायत, रेड्डी, कम्मा, गौड़ा, थेवर, नाडार और एझवा. दक्षिण भारत की राजनीति को समझने से पहले समाज में इन जातियों के वर्चस्व को समझना जरूरी है.
उत्तर भारत में सोशल इंजीनियरिंग कारगर रही है, पर दक्षिण में यह अमित शाह जैसी चाणक्य राजनीति के लिए बड़ा अवरोध है. ऑस्कर जीतने वाला गाना नाटु नाटु भी एक सामाजिक ताना-बाना है. निश्चित रूप से यह विभिन्न क्षेत्रों को एकताबद्ध करता है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी उदारतापूर्वक एक तेलुगू विद्वान को राज्यसभा में नामित किया है तथा पद्म सम्मानों का 35-40 प्रतिशत हिस्सा दक्षिण के लोगों को मिलता है.
प्रधानमंत्री के ‘मन की बात’ के सौ भागों में 65 बार दक्षिणी राज्यों का उल्लेख हुआ है. उत्तर भारत दक्षिण को गले लगाना चाहता है, पर क्या दक्षिण भारतीय इसे स्वीकार करेंगे? त्रिपुरा और मेघालय जैसे पूर्वोत्तर के राज्यों को जीतने में मोदी रणनीति कामयाब रही है, पर मोदी का जादू दक्षिण में केवल कर्नाटक और पुद्दुचेरी में ही चल पाया है. इसके विस्तार के लिए वे वाराणसी और सौराष्ट्र में तमिल संगमम का आयोजन कर रहे हैं. बिहार के प्रवासियों का मुद्दा बहुत गर्म है और संवेदनशील भी है.
एक चिंगारी एकता को अस्थिर कर सकती है. मार्च के प्रारंभ में बिहार और झारखंड के प्रवासियों के मसले को पर्दे के पीछे से गृह मंत्री अमित शाह ने तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के साथ मिलकर प्रभावी ढंग से संभाल लिया. इसमें सक्षम अधिकारियों ने उल्लेखनीय योगदान दिया. इसी प्रकार, हिंदू धर्म से ईसाई और इस्लाम धर्म में धर्मांतरण भी बेहद संवेदनशील मसला है, जो दक्षिण भारत के कुछ हिस्सों में चुपचाप चल रहा है. इस बारे में तमिलनाडु के राज्यपाल आरएन रवि ने एक रिपोर्ट केंद्रीय गृह मंत्रालय को भेजी है.
दक्षिण, विशेषकर तमिलनाडु एवं केरल, में तीसरा खतरनाक मामला पीएफआई और एसडीपीआई जैसे संगठनों की गतिविधियां हैं. दोनों राज्यों में राष्ट्रीय जांच एजेंसी के छापों से इन पर लगाम लगी है. आंध्र प्रदेश में बड़े पैमाने पर हो रहे धर्मांतरण पर भी विचार किया जाना चाहिए. लेकिन राज्य में सत्तारूढ़ मुख्यमंत्री जगन रेड्डी राजनीतिक रूप से भारतीय जनता पार्टी के शीर्ष नेतृत्व के बहुत निकट हैं. आंध्र प्रदेश में मुख्य विपक्षी पार्टी तेलुगू देशम है. इसके नेता नारा चंद्रबाबू नायडू राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) में शामिल होने के लिए बेचैन हैं तथा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की प्रशंसा कर रहे हैं.
आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में कांग्रेस दूर-दूर तक नहीं है. उसने इन तेलुगू भाषी राज्यों का बंटवारा कर अपनी ही कब्र खोद ली. मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव की बात करें, तो तेलंगाना में भी राजनीतिक स्तर पर उथल-पुथल की स्थिति है. लेकिन चंद्रशेखर राव ने राज्य को नेतृत्व प्रदान किया है. दक्षिणी राज्यों में सक्रिय शराब लॉबी ने राव की पार्टी तेलंगाना राज्य समिति (टीआरएस) की छवि धूमिल कर दी है. अब उन्होंने इस पार्टी का नाम बदलकर भारत राष्ट्र समिति (बीआरएस) कर दिया है.
इस पार्टी का आम आदमी पार्टी से जुड़ाव बहुत ही ज्यादा खतरनाक है. आम आदमी पार्टी के नेता मनीष सिसोदिया तथा टीआरएस नेता कविता का शराब घोटाले में नाम आने से इन दोनों युवा राजनेताओं का राजनीतिक भविष्य खराब हुआ है. कविता एक तेजतर्रार महिला राजनेता हैं. पर अतीत यह बताता है कि दक्षिण भारत के नेताओं के परिजनों ने अपने पिताओं और उनकी पार्टियों की छवि को धूमिल किया है. चंद्रशेखर राव इसके ज्वलंत उदाहरण हैं. पर भाजपा और प्रधानमंत्री मोदी चाहे जितना प्रयास कर लें, अगले एक दशक तक उसका वांछित राजनीतिक परिणाम नहीं मिलेगा. लोहा अभी उतना गर्म नहीं हुआ है कि उस पर चोट की जाए.
भाजपा के तीन शीर्ष नेताओं- अमित शाह, निर्मला सीतारमण और डॉ एस जयशंकर- ने छह दक्षिणी राज्यों को राष्ट्रीय नक्शे पर लाने में भूमिका निभायी थी, पर वह क्षणिक साबित हुआ. केंद्रीय बजट में आवंटन के रूप में भारी राशि, इंफ्रास्ट्रक्चर विकास में जीएसटी काउंसिल को शामिल करने, रक्षा गलियारा, निजी सैटेलाइट का प्रक्षेपण (विशेषकर आंध्र प्रदेश और कर्नाटक) आदि जैसे प्रयास हुए. बड़े स्टार्टअप केवल दक्षिणी राज्यों में हैं. बिना राजनीतिक खेल के दक्षिण भारतीय दिलों को नहीं जीता जा सकता. एमजीआर, एनटी रामाराव, जयललिता और राजकुमार जैसे बड़ी फिल्मी शख्सियतें वहां हुई हैं. आप जैसे भी देखें, दक्षिणी राज्यों, खासकर तमिलनाडु और केरल, में मतदाता चुनाव के समय पैसे मिलने की उम्मीद भी करते हैं. हर मतदाता को सत्ता पक्ष और विपक्ष से 25-30 हजार मिलते हैं. दक्षिण में चुनाव उतने लोकतांत्रिक नहीं होते.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)