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नौकरशाही को छवि सुधारने की जरूरत

नौकरशाहों और राजनेताओं के कार्य क्षेत्र स्पष्ट रूप से रेखांकित हैं और दोनों से देशहित में कार्य करने की अपेक्षा की जाती है. अधिकारियों को यह समझना होगा कि उनको यह स्थान उनकी योग्यता के कारण मिला होता है और वे किसी भी राजनीतिक दल के चाकर नहीं हैं.

आज जब विभिन्न क्षेत्रों में एक से एक नौकरियों की भरमार है, तब भी हर युवा का सबसे बड़ा सपना आइएएस और आइपीएस बनना होता है. यूपीएससी में जिनका चयन होता है, वे कड़ी मेहनत और प्रतिस्पर्धा में अपना मुकाम हासिल कर पाते हैं. किसी युवा के प्रशासनिक सेवा में चयन पर बधाइयों का तांता लग जाता है. पूरे परिवार का नाम रौशन हो जाता है.

जाहिर है कि वर्षों के कड़े परिश्रम और योग्यता के आधार पर ही प्रशासनिक सेवा में चयन हो पाता है. लेकिन कुछ समय से विभिन्न राज्यों से आ रहीं आइएएस और आइपीएस अधिकारियों के भ्रष्टाचार की खबरों को देखकर मन खट्टा हो जाता है. ऐसा नहीं है कि सभी नौकरशाह बेईमान हैं, लेकिन पुरानी कहावत है कि एक मछली सारे तालाब को गंदा कर देती है. खबरें अफसरशाही और नेताओं के सांठगांठ की भी सामने आती हैं. एक दौर था जब ब्यूरोक्रेट राजनेताओं को कानून सम्मत रास्ता बताते थे.

लेकिन, अब परिस्थितियां बदली हैं और देखने में आ रहा है कि अनेक मामलों में नौकरशाह ही उन्हें भ्रष्टाचार के तरीके सुझा रहे होते हैं. यह स्थिति चिंताजनक हैं. यूपी में जब ऐसी स्थिति उत्पन्न हुई थी, तो इसका उपाय खुद आइएएस-आइपीएस एसोसिएशन ने निकाला था. वे राज्य के सबसे अधिक भ्रष्ट नौकरशाहों के नाम सार्वजनिक करने लगे. यह तो नहीं हुआ कि सब नौकरशाह पाक साफ हो गये, लेकिन उन पर बदनामी का एक दबाव जरूर रहता था. साथ ही, लोगों के बीच भी उनकी छवि में सुधार हुआ था.

बातचीत से पता चलता है कि आमजन के बीच नौकरशाही की छवि सकारात्मक नहीं रही है. अनेक अधिकारियों की तो पूरे राज्य में पहचान नकारात्मक बन जाती है. उनके तबादले और नये स्थान का चार्ज लेने से पहले ही उनकी ख्याति वहां पहुंच जाती है. इसकी मुख्य वजह भ्रष्टाचार और अहंकारी प्रवृत्ति का होना है. लेकिन यह जान लीजिए कि प्रशासन चलाने की जिम्मेदारी इन्हीं लोगों पर है. नेता तो पांच साल के लिए चुन कर आते हैं और चले जाते हैं.

लेकिन एक आईएएस अपने कार्यकाल में महत्वपूर्ण पदों पर रहता है और पूरी व्यवस्था चलाता है. ऐसा नहीं है कि सारे नौकरशाह एक से हों. नौकरशाहों की सकारात्मक छवि भी है. इन्हें प्रगति, सामाजिक परिवर्तन और कानून व्यवस्था के रखवाले के रूप में भी जाना जाता है. एक अनुमान के अनुसार केंद्र और राज्य सरकारों की लगभग 100 कल्याणकारी योजनाओं को चलाने की जिम्मेदारी एक डीसी की होती है. इससे अंदाज लगा सकते हैं कि डीसी किसी भी सरकार के लिए कितनी अहम कड़ी है. कहा भी जाता है कि देश में सत्ता तीन ही लोगों के हाथों में रहती है- पीएम, सीएम और डीएम. यह काफी हद तक सच भी है.

केंद्र सरकार ने नौकरशाहों की जवाबदेही के लिए कई उपाय अपनाये हैं. पिछले वर्ष सभी आइएएस अधिकारियों को अपनी संपत्ति का विवरण देने और उनका स्रोत बताने के लिए कहा गया था. उपलब्ध सूचनाओं के अनुसार केंद्र सरकार के तमाम प्रयासों के बावजूद लगभग छह हजार नौकरशाहों में से लगभग डेढ़ सौ अफसरों ने अपनी संपत्ति का वार्षिक विवरण नहीं दिया था.

कुछ समय पहले सरकार ने भ्रष्ट नौकरशाहों पर सख्त रवैया अपनाते हुए उन्हें समय पूर्व ही सेवानिवृत्त करने का कदम भी उठाया था. लेकिन ये प्रयास भी बहुत कारगर साबित नहीं हो पा रहे हैं. सुप्रीम कोर्ट भी नौकरशाही में भ्रष्टाचार को लेकर गंभीर रहा है. कुछ समय पहले पांच जजों की संवैधानिक पीठ ने कहा था कि अगर नौकरशाह के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामले में सीधा सबूत न भी हो, तो भी उन्हें सजा दी जा सकती है.

तब परिस्थितिजन्य साक्ष्यों को आधार माना जा सकता है. जस्टिस एसए नजीर की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने कहा था कि शिकायतकर्ताओं के साथ-साथ अभियोजन पक्ष को भी ईमानदार कोशिश करनी चाहिए ताकि भ्रष्ट अफसरों को सजा दी जा सके और प्रशासन को भ्रष्टाचार मुक्त बनाया जा सके.

अधिकारियों में पद के दुरुपयोग की प्रवृत्ति बढ़ गयी है. उनमें संवेदना और मानवीय मूल्यों का अभाव साफ नजर आता है. अधिकारियों के पास से भारी नगदी बरामद होने के कई मामले हैं. लेकिन ऐसे भी अनेक अधिकारी हैं, जिनका ध्येय जनसेवा है. कुछ अरसा पहले असम में बाढ़ के दौरान एक आइएएस अधिकारी कीर्ति जल्ली की कीचड़ में उतरकर लोगों की मदद करते हुए तस्वीर सोशल मीडिया पर वायरल हुई थी.

इसकी लोगों ने खूब सराहना की थी. स्थानीय लोगों का कहना था कि पिछले 50 वर्षों से ही बाढ़ से परेशान होते चले आ रहे हैं. लेकिन ऐसा पहली बार हुआ कि जब कोई आइएएस अधिकारी उनके पास बाढ़ में आया हो. हमारे देश में अशोक खेमका जैसे अफसर भी हैं, जो अपनी ईमानदारी के लिए जाने जाते हैं. हरियाणा कैडर का यह अधिकारी किसी भी व्यवस्था को रास नहीं आया.

अरसा पहले अशोक खेमका ने रॉबर्ट वाड्रा के कथित भूमि सौदे उजागर किये थे, जिसके बाद उनका कई बार ट्रांसफर हुआ. सत्ता बदल गयी, लेकिन वे किसी व्यवस्था में फिट नहीं बैठ पाये. वे सबसे अधिक स्थानांतरित होने वाले अधिकारियों में से एक हैं. अशोक खेमका का 22 साल में 46 बार ट्रांसफर हुआ था यानी औसतन साल में दो बार उनका तबादला हुआ, जबकि 2013 के सुप्रीम कोर्ट के आदेश के अनुसार एक न्यूनतम कार्यकाल के बाद ही किसी अधिकारी का ट्रांसफर किया जा सकता है. लेकिन इसका पालन राज्य सरकारें नहीं करती हैं.

यह भी देखने में आया कि कुछ ईमानदार अफसर सत्ता पर आसीन लोगों से इतना परेशान हो जाते हैं कि वे केंद्र में प्रतिनियुक्ति ले लेते हैं. मुंबई में अवैध निर्माण के खिलाफ अभियान चलाने के कारण खेरनार चर्चित हुए थे. किरण बेदी जब दिल्ली पुलिस की अधिकारी थीं, तो उन्होंने ट्रैफिक व्यवस्था को सुचारू करने और अवैध वाहनों को हटाने के लिए पहली बार क्रेन का इस्तेमाल किया था और लोग उन्हें क्रेन बेदी तक कहने लगे थे. लेकिन अब ऐसे नौकरशाह उंगलियों पर गिने जा सकते हैं.

सत्ता प्रतिष्ठानों को भी ऐसे अफसर पसंद नहीं आते हैं. नौकरशाहों और राजनेताओं के कार्य क्षेत्र स्पष्ट रूप से रेखांकित हैं और दोनों से देश हित में कार्य करने की अपेक्षा की जाती है. अधिकारियों को यह समझना होगा कि उनको यह स्थान उनकी योग्यता के कारण मिला होता है और वे किसी भी राजनीतिक दल के चाकर नहीं हैं. उनकी पहली जवाबदेही आमजन के प्रति है. नौकरशाहों का सम्मान बना रहे, इस पर उन्हें स्वयं गौर करना होगा.

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