दो-तीन दिन पहले घर के सामने के स्कूल से गुजर रही थी. बच्चों की छुट्टी हो गयी थी, मगर उससे पहले उन्होंने इतनी होली खेली थी कि सब तरह-तरह के रंगों से रंगे हुए थे. होली का अर्थ ही है रंग- जीवन के, पेड़-पौधों के, फूलों के, नवान्न और फसलों के. धूप कुछ बढ़ गयी है, तो फूल मुरझाने लगे हैं, मगर सेमल अभी खिला दिखता है. सरसों के पीले फूलों से खेत भरे हैं. गेहूं की हरी बालियां लहरा रही हैं. बचपन में जब गांव में रहती थी, तो होली का त्योहार महीने भर पहले यानी फागुन की दस्तक के साथ शुरू हो जाता था. कच्चे आंगन को लीप कर हर रोज आटे का चौक पूरा जाता था. उस पर सत्यानाशी के पीले फूलों से सजावट की जाती थी और गाना-बजाना होता था. जलाने वाली होली के एक दिन पहले सब अपनी चारपाइयों को घर के अंदर रख देते थे, वर्ना उन्हें भी होली को भेंट कर दिया जाता था. घरों में खूब गुझिया, मीठे, नमकीन सेब, कांजी बनायी जाती थी. बने पकवानों से जहां जलाने के लिए होली सजती थी, वहां पूजा होती थी. घरों में गोबर से गूलरियां बनायी जाती थीं और हर घर में इनकी छोटी होली जलायी जाती थी. अड़ोस-पड़ोस के सब लोग हाथों में गेहूं की बालियां लेकर घर आते थे और एक-दूसरे को बिना कहे शुभकामनाएं देते थे. होली को दुश्मनी मिटाने का त्योहार भी माना जाता था और जिसके घर में शोक हुआ, शोक उठाने का भी.
लेकिन इन दिनों रास्ता चलती लड़कियों की काफी आफत आ जाती थी. उनकी मांग में गुलाल भरने के लिए बहुत से लड़के आतुर रहते थे. यही नहीं, कालेज में पढ़ने वाली लड़कियों का नाम किसी के साथ भी जोड़ कर उनके पर्चे निकाले जाते थे, जो बेहद अश्लील भाषा में होते थे. जो ऐसा करते थे, उनसे कोई कुछ नहीं कहता था, लेकिन लड़कियों को बेकार की बदनामी झेलनी पड़ती थी. खेलने वाली होली के दिन सवेरे से ही गले में ढोलक लटका कर लोग निकल पड़ते थे और हर घर के सामने जाकर खूब रंग लगाते थे, नाचते-गाते थे. औरतों की कोड़ा मार होली भी होती थी. लोग औरतों को जबर्दस्ती रंग लगाने की कोशिश करते थे और बदले में कोड़े खाते थे. शाम के वक्त होली मिलन समारोह होता था. सब एक-दूसरे के घर जाकर पकवानों का आनंद लेते थे. आज शायद वक्त बदल गया है. पैंतीस साल पहले जब दिल्ली के इस इलाके में रहने आयी थी, तो पास में ही एक झुग्गी बस्ती थी. वहां रहते लोग रात में खूब ढोलक बजाते थे. मधुर सुर में गाते थे. फाग भी शायद अब आसपास कहीं सुनाई नहीं देता. गांव में क्या हालत है, कह नहीं सकती, लेकिन शहरों में तो अब लोग होली खेलना भी भूले जा रहे हैं. मध्य वर्ग की होली का मतलब है किसी होटल में जाकर खा लेना, रेडियो, टीवी और यूट्यूब पर होली के गीत सुन लेना. किसी भी त्योहार से जो मेल-जोल की भावना बढ़ती है, वह अब खत्म सी होती जा रही है. गांवों में भी अब समुदाय की भावना लुप्त सी हो गयी है.
इसके अलावा, लोग गुलाल और रंग लगाने से भी डरते हैं, क्योंकि क्या पता किस रंग और किस गुलाल में क्या मिलावट हो. घर में बनने वाले पकवान भी अब बाजार के हवाले हैं. कम से कम शहरों में तो यही हालत दिखाई देती है. उसका बड़ा कारण यह है कि लोगों के पास समय नहीं बचा. फिर जो महिलाएं हफ्तों पहले से घरों में पकवान बनाती थीं, वे अब दफ्तरों में या कहीं और काम करती हैं. ऐसे में कैसे पकवान बनाएं! पहले ये पकवान बाजारों में मिलते भी नहीं थे, मगर अब तो बाजार जाने की जरूरत भी नहीं है. सब कुछ ऑनलाइन मंगाया जा सकता है. पहले तो गांव में जिस घर में गुझिया बनती थीं, वहां मोहल्ले भर की औरतें इकट्ठी हो जाती थीं. वे अपना चकला-बेलन साथ लाती थीं और कुछ ही घंटों में सब तैयार हो जाता था. यह क्रम चलता ही रहता था, आज इसके घर, कल उसके घर. औरतों की यह सामूहिकता की भावना हर जगह देखी जाती थी, लेकिन अब अकेले-अकेले रहने का जमाना है. इसे ही आदर्श की तरह मान लिया गया है, जबकि अकेलेपन की अपनी मुश्किलें भी कोई कम नहीं होतीं. हम नारों में भले ही सामूहिकता की भावना की बातें करें, लेकिन समाज और परिवार से यह लुप्त होती जा रही है. होली और अन्य त्योहार भी इसके शिकार हुए हैं.
यह कोई अच्छी बात नहीं है. मिल कर उत्सव मनाना हमें बहुत-सी चिंताओं से मुक्त करता है. आनंद की भावना जगाता है. जो लोग बहुत दिनों से नहीं मिले, उनसे भी मिलने को प्रेरित करता है. इसलिए इस भावना को बनाये रखने की सख्त जरूरत है. सवाल यही है कि तकनीक को भगवान मानने वाले युग में जब आदमी अपने में और घर में बंद हो गया है, इस भावना को कैसे जीवित किया जाए. क्यों न आज से ही ऐसा कर लें, खुद होली मनायें और दूसरों के साथ इसका आनंद लें. आज बिरज में होली है रे रसिया खूब गायें, नाचें और ढोलक बजाएं.
(ये लेखिका के निजी विचार हैं.)