चुनाव प्रचार के दौरान विदेश नीति के संदर्भ में कई बातें सत्ता पक्ष और विपक्षी नेताओं के द्वारा कही गयीं, जिनमें विभिन्न देशों के साथ संबंधों के अलावा रूस-यूक्रेन युद्ध और इस्राइल-हमास संघर्ष से जुड़े विषय थे. इसमें कोई दो राय नहीं है कि लगातार तीसरी बार प्रधानमंत्री बने नरेंद्र मोदी की छवि दुनिया के एक बड़े नेता के रूप में स्थापित हो चुकी है. लोकतांत्रिक तरीके से फिर सत्ता में आना भी बेहद अहम है. इसका कूटनीतिक लाभ निश्चित ही भारत को मिलेगा क्योंकि भारत की छवि पहले से भी सबको साथ लेकर चलने और शांति बहाल करने की रही है. लेकिन विदेश नीति के मोर्चे पर चुनौतियां भी कई हैं.
सबसे अहम चुनौती चीन के साथ संतुलन बनाने की है. चीन भारत से आशंकित है, जिसका एक कारण अमेरिका-भारत संबंधों का निरंतर प्रगाढ़ होना है. ऐसी आशा है कि अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप पुनः राष्ट्रपति बन सकते है. यह परिवर्तन भारत के पक्ष में होगा क्योंकि रिपब्लिकन पार्टी की विदेश नीति हमेशा से भारत के पक्ष में रही है. चीन के लिए सबसे बड़ा मुद्दा ताइवान है. कागज पर वह चीन का अभिन्न हिस्सा माना जाता है, लेकिन पिछले दो दशक में बहुत कुछ बदल चुका है. ताइवान अपनी स्वायत्तता चीन के हाथों में सौंपने के लिए राजी नहीं है. चीन इसके लिए युद्ध की मंशा को भी जाहिर कर चुका है. ताइवान को लेकर जापान और अमेरिका अत्यंत संवेदनशील हैं क्योंकि उनका सामरिक हित उससे जुड़ा हुआ है. पूर्वी एशिया के अनेक देश भी अमेरिका की टोली में है. ऑस्ट्रेलिया की सहमति भी अमेरिका के साथ है. इन देशों के साथ अमेरिका के सैन्य संबंध भी हैं. क्वाड, जिसमें भारत भी शामिल है, को सैनिक व्यवस्था में बदलने की कोशिश अमेरिका के द्वारा की जाती रही है, लेकिन भारत इसे मानने से इंकार करता रहा है. लेकिन बात अब भारत के पाले में है. भारत ने चीन के विरुद्ध ताइवान को एक सामरिक कार्ड के रूप कभी भी प्रयोग नहीं किया है, ऐसा करने की क्षमता भारत के पास है.
भारत के पड़ोसी देश अपनी नीतियों को लेकर दुविधा में रहते हैं. इन पर चीन का प्रभाव है. इस मामले में भारत की पहुंच को और दुरुस्त करना होगा. प्रधानमंत्री मोदी के शपथ ग्रहण समारोह में अनेक पड़ोसी नेताओं का आना एक शुभ संकेत है.
भारत की चुनौती चीन के साथ सीमा पर शांति को लेकर भी है. चुनाव में पाक-अधिकृत कश्मीर को जम्मू-कश्मीर से जोड़ने की बात हो चुकी है. इसमें मुख्य अड़चन चीन के साथ ही आयेगी क्योंकि चीन द्वारा बनाया जा रहा चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा उस क्षेत्र से होकर गुजरता है. यह गलियारा चीन के वन बेल्ट परियोजना का हिस्सा है. चीन इसके लिए युद्ध जैसा माहौल बना सकता है. पाकिस्तान वही करेगा, जो चीन उसे करने के लिए कहेगा. चीन-पाकिस्तान संबंध एक ऐसे बंद कमरे की तरह है, जिसकी कोई चाबी नहीं है. उसका हल उसे तोड़ने में ही है. प्रश्न यह है कि भारत कब और कैसे इस कमरे को तोड़ पायेगा, क्या अमेरिका भारत के साथ होगा. अगर भारत ताइवान पर अमेरिका का साथ दे, तो शायद पाक-अधिकृत कश्मीर के मामले में वह सहयोग कर सकता है.
दुनिया की राजनीति और कूटनीति समय के साथ बदलती है और यह भारत के पास एक सुनहरा अवसर है. भारत की राजनीतिक मजबूती और आर्थिक ताकत से एक समुचित स्थिति पैदा हुई है. भारतीय विदेश नीति की दूसरी महत्वपूर्ण चुनौती रूस के साथ संतुलन बनाये रखने की होगी. कई बार ऐसी चर्चा होती है कि भारत-चीन संघर्ष की स्थिति में रूस चीन का साथ देगा. ऐसा हो सकता है, लेकिन यकीनन ऐसा मानना गलत है. रूस और चीन दशकों से एक दूसरे के विरोधी भी रहे है. वर्ष 1967 में दोनों देशों के बीच युद्ध भी हुआ है. मध्य एशिया और मंगोलिया को लेकर आज भी दोनों के विचार अलग अलग है. शंघाई सहयोग संगठन की रणनीति को लेकर भी मतभेद है. एकजुटता केवल अमेरिका को लेकर है. भारत और रूस के संबंध गहरे और पुराने हैं. इसे रूस भी बखूबी समझता है. फिर भी भारत के लिए रूस के साथ परस्पर संबंध को और निखारना होगा.
भारत के पड़ोसी देश अपनी नीतियों को लेकर दुविधा में रहते हैं. इन पर चीन का प्रभाव है. इस मामले में भारत की पहुंच को और दुरुस्त करना होगा. प्रधानमंत्री मोदी के शपथ ग्रहण समारोह में अनेक पड़ोसी नेताओं का आना एक शुभ संकेत है. भारत की आर्थिक प्रगति की धार को और तेज बनाना होगा. सामरिक समीकरण का सबसे मजबूत पक्ष अर्थव्यवस्था ही है. भारत और चीन के बीच पांच गुना अंतर एक बड़ी चुनौती है, लेकिन सुकून यह भी है कि भारत की आर्थिक गति निरंतर बढ़ रही है, जो अन्य देशों के लिए अनुकरणीय भी है. पाकिस्तान के साथ वार्ता प्रारंभ करना एक महत्वपूर्ण मामला है. वहां राजनीतिक परिवर्तन हुए हैं और सरकार बातचीत के पक्ष में है. हाल में उसने करगिल लड़ाई को लेकर अपनी गलती मानी भी है. भारत की शर्त है कि आतंक और वार्ता एक साथ संभव नहीं है. लेकिन इस गांठ को तोड़ना होगा. भारत एक वैश्विक शक्ति बनने की राह पर है, उसकी बराबरी पाकिस्तान से नहीं हो सकती. बहरहाल, भारत के पास एक अवसर है और उसकी वैश्विक स्थिति एवं साख भी मजबूत है. ऐसी स्थिति में भारत एक नये तेवर और भरोसे से अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य में अपनी स्थिति बेहतर कर सकता है. (ये लेखक के निजी विचार हैं.)