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वैकल्पिक राजनीति के शिल्पकार चरण सिंह

चौधरी चरण सिंह ने ग्रामीण अर्थव्यवस्था को केंद्र में रखते हुए देश के समक्ष मौजूद चुनौतियों के समाधान के लिए गांधीवाद और समाजवाद की सोच के आधार पर जिस लोकदली राजनीति की नींव रखी

अब जब सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश की राजनीति व्यक्तिगत विरोध से भी आगे अमर्यादित टीका-टिप्पणियों तक पहुंच गयी है, भारत में वैकल्पिक राजनीति के शिल्पकार रहे चौधरी चरण सिंह को याद किया जाना चाहिए. विचारधारा सोच-समझ से उभरती है और फिर वैकल्पिक राजनीति का आधार बनती है. सहमति-असहमति हो सकती है, पर आजादी के बाद के कुछ दशकों तक भारतीय राजनीति विचार केंद्रित रही. आजादी के अमृत महोत्सव काल में वैकल्पिक राजनीतिक सोच और उसकी प्रतिबद्धता का अभाव खलता है.

देश पहली बार महंगाई व बेरोजगारी की समस्या से रूबरू नहीं है. ऐसा भी नहीं है कि देश में सिर्फ यही समस्याएं हैं. पिछले साल आजादी के बाद का सबसे लंबा किसान आंदोलन चला. कृषि संकट की खूब चर्चा हुई, पर क्या यह संकट अचानक पैदा हुआ? क्या उससे उबरने का कोई रास्ता किसी दल या नेता के पास है? निर्भया से लेकर श्रद्धा कांड तक हमारे समाज में नैतिक मूल्यों के पतन की पराकाष्ठा के अनेक उदाहरण हैं, पर क्या वे किसी नेता या दल की चिंता का विषय हैं?

बेहतर समाज ही बेहतर देश बनाता है. वर्तमान राजनीति का सबसे बड़ा संकट यही है कि वह सोच से कट कर महज चुनाव जीतने तक सीमित रह गयी है. एक चुनाव जीत कर दूसरे की तैयारी करिए और उसके बीच मौके-बेमौके अपने विरोधियों पर शब्द वाण चला कर माहौल बनाते रहिए. समस्याओं पर नारे गढ़ कर चुनाव तो जीते जा सकते हैं, पर समाधान तभी संभव है, जब देश और समाज की चुनौतियों की बाबत सही समझ और नीतियां बनें. भावी संकट की आहट सुन कर आगाह करना और राह सुझा पाना ही किसी भी वास्तविक नेता की पहचान है.

नयी पीढ़ी को यह जान कर आश्चर्य हो सकता है कि पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह एक विचारवान राजनेता ही नहीं, जमीनी अर्थशास्त्री और नैतिक शिक्षा के पैरोकार समाजशास्त्री भी थे. आज बड़े दल और नेता भी दागियों को टिकट देने तथा अपराधों में कार्रवाई से बचाने में संकोच नहीं करते, लेकिन चरण सिंह ने शिकायत मिलने पर चुनावी सभा के मंच से ही अपने दल के प्रत्याशी के बजाय एक निर्दलीय को वोट देने की अपील कर दी थी.

किसी मंत्री/मुख्यमंत्री का वेश बदल कर थाने या सरकारी दफ्तर पहुंच जाना आज फिल्मी कहानी लग सकती है, पर यह उनकी कार्यशैली का हिस्सा था. उन्होंने कृषि संकट की आहट बहुत पहले सुन ली थी. उन्हें आभास था कि शहर और बड़े उद्योग केंद्रित विकास की कीमत अंतत: कृषि आधारित ग्रामीण अर्थव्यवस्था को चुकानी पड़ेगी. वे अक्सर कहते थे कि किसान के बच्चों को भी पढ़-लिख कर रोजगार के दूसरे अवसरों की ओर बढ़ना चाहिए. महात्मा गांधी और सरदार वल्लभभाई पटेल के अलावा चरण सिंह ही असली भारत की जमीनी वास्तविकताओं को सही अर्थों में समझ पाये.

आजादी के बाद के दौर में प्रधानमंत्री नेहरू से असहमति का अर्थ था कांग्रेस में अपने राजनीतिक भविष्य पर पूर्ण विराम लगाना, पर चौधरी चरण सिंह ने वह जोखिम उठाते हुए 1959 में कांग्रेस के नागपुर अधिवेशन में सहकारी खेती के प्रस्ताव को भारत के संदर्भ में अव्यावहारिक बताया. जोरदार तालियों पर उनकी टिप्पणी थी- ‘ये तालियां बताती हैं कि आप सब मेरे विचारों से सहमत हैं, परंतु आप में मेरी तरह खुले विचार रखने का साहस नहीं है.’

उस साहस की कीमत चरण सिंह को कांग्रेस से इस्तीफा देकर चुकानी पड़ी, पर वह उनकी राजनीतिक पारी का ऐसा आगाज साबित हुआ, जिसने देश में बदलावकारी वैकल्पिक राजनीति की नींव रखी. साल 1902 में 23 दिसंबर को जन्मे और 29 मई, 1987 को दिवंगत हुए चौधरी चरण सिंह ने ग्रामीण अर्थव्यवस्था को केंद्र में रखते हुए देश के समक्ष मौजूद चुनौतियों के समाधान के लिए गांधीवाद और समाजवाद की सोच के आधार पर जिस लोकदली राजनीति की नींव रखी, वह लगभग तीन दशक तक उत्तर प्रदेश, बिहार, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान और ओडिशा में गैर कांग्रेसवाद की राजनीति का आधार रही.

उत्तर प्रदेश में उन्होंने जिन भूमि सुधारों की पहल की थी, उन्हीं से प्रेरित वाम मोर्चा पश्चिम बंगाल में साढ़े तीन दशक तक शासन करने में सफल रहा. चौधरी साहब की विशाल राजनीतिक विरासत को वारिस क्यों नहीं संभाल पाये, यह राजनीतिक प्रश्न है, लेकिन उससे ज्यादा प्रासंगिक है उनकी समावेशी विचारधारा और यह सबक भी कि सिर्फ विरोध मत करिए, वैकल्पिक सोच भी प्रस्तुत करिए.

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